"यह बेहद दुखद है कि जितिन प्रसाद (Jitin Prasada) ने कांग्रेस छोड़ दी," जितिन प्रसाद के कांग्रेस का दामन छोड़कर बीजेपी (BJP) में जाने की खबरें सामने आने के बाद सचिन पायलट (Sachin Pilot) ने मेरे इस कॉलम के लिए यह प्रतिक्रिया दी. पायलट ने यह खेद ऐसे वक्त साझा किया जब उनके राजनीतिक समन्वय को लेकर एक बार फिर अटकलें जोर पकड़ने लगी हैं. राजस्थान में कांग्रेस सरकार को गिराने का उनका असफल प्रयास और फिर अगस्त 2020 में सुलह-समझौते के बाद अभी तक उन्हें किसी महत्वपूर्ण पद की जिम्मेदारी नहीं दी गई है.पिछले हफ्ते के लेख में मैंने लिखा था कि पायलट दूसरे सियासी तूफान की तैयारी कर रहे हैं.
कांग्रेस के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद जितिन प्रसाद दूसरे नेता थे, जो दूर चले गए. पायलट ऐसे तीसरे नेता होते-होते रह गए. इसके बावजूद गांधी परिवार के हाथो में मौजूदा पार्टी नेतृत्व, ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसे नुकसान को रोकने में खुद को सक्षम नहीं पा रहा है या ऐसा करने को इच्छुक नहीं है. वर्ष 2014 के बाद से पार्टी का जनता के बीच दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है. पार्टी में यह भ्रम है कि कौन उसका मुखिया है और बीजेपी से मुकाबला करने की उसकी रणनीति क्या होनी चाहिए.
प्रसाद, जैसा कि मैंने NDTV के पहले के एक कॉलम में कहा था कि 2019 में बीजेपी में शामिल होने वाले थे, लेकिन नई दिल्ली में राहुल गांधी के साथ एक कार ड्राइव के बाद उन्होंने अपनी योजना टाल दी. इस बार वो बेहद व्यथित थे कि उत्तर प्रदेश में उन्हें दरकिनार किया जा रहा है और प्रियंका गांधी की ओर से यह सुझाव कि वो राजनाथ सिंह के खिलाफ लखनऊ से चुनाव लड़ सकते हैं. इस बार सूत्रों का कहना है कि प्रसाद ने शीर्ष नेतृत्व को अपने फैसले के बारे में बताने का शिष्टाचार निभाने की कोशिश भी नहीं की. यूपी में विधानसभा चुनाव के ठीक आठ माह पहले यह वाकया हुआ है. पार्टी बदलने का उनका कारण यूपी में प्रियंका गांधी द्वारा उन्हें दरकिनार करना बताया जा रहा है. यूपी चुनाव को मोदी 3.0 का सेमीफाइनल माना जा रहा है. यह भारत के सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य की जनता की मूड भांपने में मदद करेगा, जहां से सर्वाधिक 80 सांसद आते हैं.
पिछले साल मार्च में, सिंधिया ने मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार को गिरा दिया था और इसके बाद उन्होंने बीजेपी का दामन थाम लिया था. जितिन प्रसाद 2014 से लगातार दो लोकसभा चुनाव हार चुके हैं और उनके पास सिंधिया जैसी सियासी शक्ति नहीं थी. हालांकि उनके बीजेपी में आने से पार्टी को यूपी में अपने जातीण गणित को दोबारा साधने में मदद मिलेगी. जितिन प्रसाद कांग्रेस का ब्राह्णण चेहरा थे. यूपी में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री के तौर पर शासन की व्यापक तौर पर "ठाकुरराज" की तरह आलोचना की जाती है. इससे अलग, बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व पार्टी के भीतर योगी आदित्यनाथ के खिलाफ विरोध के सुर को लेकर संजीदा है. उनकी नेतृत्वशैली को निरंकुश माना जाता है. महामारी को लेकर कुप्रबंधन ने उनके विरोधियों को उनके खिलाफ आवाज उठाने का मौका दिया. यही वजह रही कि बीजेपी और आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व ने यूपी में पार्टी कैडर से मुलाकात की और संकट की गहराई जानने की कोशिश की.
प्रसाद का हालिया रिकॉर्ड बहुत चमकदार नहीं रहा है. वह कांग्रेस के भीतर ही एक ब्राह्मण संगठन का संचालन कर रहे थे, जिसका कोई खासा प्रभाव नहीं दिखाई दिया, जो यूपी मे उनके हिस्सेदारों को दिखाने के लिए कुछ भी नहीं था. पश्चिम बंगाल चुनाव में कांग्रेस के प्रभारी के तौर पर वह गांधी परिवार को मजबूती से चुनाव प्रचार में उतरने के लिए मनाने में नाकाम रहे और नतीजा बेहद निराशाजनक रहे. सिंधिया, प्रसाद, पायलट औऱ मिलिंद देवड़ा सभी विरासत में मिली राजनीति के चेहरे हैं और जिन्हें अगली पीढ़ी के उन नेताओं में गिना जाता है, जो राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के करीबी रहे हैं. पिछले दो सालों में उनके बीच समीकरण ठीक नहीं रहे हैं. बहरहाल, गांधी चुनाव राजनीति में अकेले कोई छाप छोड़ने में असफल रहे हैं. यही वजह है कि दो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा.
कांग्रेस नेताओं ने आज कहा कि इन युवा तुर्क को उनके मौके के पहले आगे बढ़ाया गया और यूपीए सरकार में मंत्री बनाया गया और इनका पार्टी में चमकदार करियर था, जब तक कि कांग्रेस के लिए चुनावी नतीजे खराब होते नहीं चले गए. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, "जो लोग विरासत की राजनीति का विशेषाधिकार रखते हैं, उनके लिए विचारधारा मायने नहीं रखती. लेकिन यह इससे कुछ ज्यादा जटिल है. उनके सभी के बीच एक साझा कड़वाहट है कि गांधी परिवार ने उनके सुझावों को लेकर कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं द्वारा उन्हें हाशिए पर डाला जा रहा है. ये सभी उनके करियर में आ रही गिरावट को खत्म करने को लेकर ज्यादा मेहनत करने की कांग्रेस की इच्छा और रुख को लेकर बेहद आशंकित थे.
पायलट ने पिछले साल राजस्थान में उनके कप्तान और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका था और तभी वो अपने बागी विधायकों के साथ लौटे थे, जब गांधी परिवार की ओर से उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर पदोन्नत करने का आश्वासन मिला था. लेकिन दस महीने के बाद भी पायलट की एक भी शिकायत पर तीन सदस्यीय कमेटी ने कोई समाधान नहीं दिया, जिसे इसकी जिम्मेदारी दी गई थी. पायलट के करीबी सूत्रों का कहना है कि वह नाराज और बेचेन हैं, क्योंकि गहलोत लगातार उनके करीबी विधायकों के पर कतरने में जुटे हुए हैं.
जब पायलट अपने दूसरे तूफान के कदमों पर विचार कर रहे हैं तो उनके एक करीबी नेता ने कहा, नवजोत सिद्धू कांग्रेस में पिछले चार साल से हैं. वो बीजेपी छोड़कर आए थे. गांधी परिवार ने सार्वजनिक तौर पर अमरिंदर सिंह का कद छोटा करते हुए उन्हें सिद्धू द्वारा उठाई गई शिकायतों का समाधान खोजने के लिए बनाई गई समिति के समक्ष पेश होने को बाध्य किया. पायलट ने हर चुनाव में कांग्रेस के लिए प्रचार किया है. मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान उन्हें कोरोना भी हो गया था, फिर भी पार्टी ने उन्हें एक संदेश भी नहीं भेजा कि वो उनके साथ खड़ी है.
पायलट के करीबी सूत्रों ने उनके बीजेपी में जाने से इनकार किया है, लेकिन यह साफ है कि वह गहलोत की ओर से किए जा रहे अपमान को ज्यादा देर तक चुपचाप स्वीकार नहीं करेंगे. ऐसा प्रतीत होता है कि जबकि गांधी परिवार इस बात को सुलझा नहीं सकता कि परिवार का कौन सा शख्स अध्यक्ष होगा, जिन नेताओं की बाहर एक मांग है, वो बेहद अधीरता से पार्टी की बाहरी चौखट पर खड़े इंतजार कर रहे हैं.
असंतुष्ट नेताओं का समूह जी-23, जिसने सोनिया गांधी को पार्टी में आमूलचूल बदलाव के लिए पत्र लिखा था, वो अब एक और पत्र लिखने की तैयारी कर रहे हैं. ये नेता कुछ अन्य दलों से भी वार्ता कर रहे हैं. कांग्रेस को अपनी ही मदद करने की सख्त जरूरत है, लेकिन क्या कोई इसका ख्याल करेगा.
(स्वाति चतुर्वेदी लेखिका तथा पत्रकार हैं, जो 'इंडियन एक्सप्रेस', 'द स्टेट्समैन' तथा 'द हिन्दुस्तान टाइम्स' के साथ काम कर चुकी हैं...)
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