भाजपा का विज़न है या टेलीविजन का विज़न

भाजपा का विज़न है या टेलीविजन का विज़न

नई दिल्‍ली:

कम से कम इस मामले में बहुजन समाज पार्टी की तारीफ की जा सकती है कि पार्टी घोषणापत्र में यक़ीन नहीं करती। दूसरे दलों का भी घोषणापत्र में कम ही यक़ीन लगता है फिर भी वे जारी करते हैं इसलिए थोड़ी तारीफ़ उनकी भी की जानी चाहिए। हमारे देश में घोषणापत्र का ब्रांड पिट चुका है। लिहाज़ा पिछले कुछ चुनावों से घोषणापत्र को विज़न डाक्यूमेंट जैसे भारी भरकम नाम से दोबारा लॉन्‍च किया जा रहा है। विज़न डाक्यूमेंट में घोषणापत्र जैसी वचनबद्धता नहीं होती है। रूपरेखा के नाम पर चमकदार वादे को ही सजाया जाता है जो पहले घोषणापत्र में होता था।

बिहार चुनाव के संदर्भ में बीजेपी और नीतीश कुमार दोनों ने विज़न डाक्यूमेंट जारी किये हैं। नीतीश कुमार ने अपने नाम से पर्सनल गारंटी वाला सात सूत्री विज़न जारी किया तो बीजेपी के विज़न डाक्यूमेंट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर है। विज़न डाक्यूमेंट में बीजेपी ने एक लाख पैंसठ हज़ार करोड़ के पैकेज को दो चार लाइन में ही निपटा दिया है। पैकेज का विस्तार से कोई ब्यौरा नहीं है। भाजपा ने अपने पैकेज को विश्वसनीयता प्रदान करने का एक बड़ा मौक़ा गंवा दिया है। विज़न डाक्यूमेंट पढ़ कर पता नहीं चलता कि एक लाख पैंसठ हज़ार करोड़ में से सब खर्च होगा या उसमें किए गए वादों के लिए अलग से बजट बनेगा। नीतीश कुमार ने अपने सात सूत्री विज़न डाक्यूमेंट के लिए बजट तो बताया है लेकिन यह पता नहीं कि पैसा कहां से आएगा।

दृष्टि पत्र के नाम से हर दल यही प्रयास रहता है कि मीडिया में कुछ ऐसे बिन्दु ज्यादा लोकप्रिय हो जाएं जिनसे वोट खींचा जा सके। जैसे स्कूटी, लैपटॉप और साड़ी-धोती देना। विज़न डाक्यूमेंट में लिखा हुआ है कि हर दलित महादलित टोले में एक रंगीन टीवी दिया जाएगा लेकिन मीडिया ने चलाया कि हर दलित और महादलित को रंगीन टीवी मिलेगा। बीजेपी को बताना चाहिए कि बिहार में ऐसे टोलों की संख्या कितनी है और कितने टीवी सेट लगेंगे। छोटा टीवी मिलेगा कि बड़ा। हरियाणा में जब इंडियन नेशनल लोकदल ने स्कूटी देने का वादा किया था तो सबने उसका मज़ाक़ उड़ाया था। लगता है टेलीविजन देने के लिए विज़न डाक्यूमेंट बनाया गया है।

क्या अगले चुनाव में सरकारें कार बांटेंगी? कब तक हमारा युवा सरकारी स्कूल कॉलेज की ख़स्ता हालत का स्थायी समाधान छोड़ स्कूटी और लैपटॉप के पीछे भागेगा। फिर उसमें और जातपात की राजनीति करने वालों में क्या अंतर है? इन पंद्रह महीनों में देश के किस विश्वविद्यालय की हालत सुधरी है? कोई नहीं जानता कि उनमें कुलपतियों की नियुक्ति का क्या पारदर्शी पैमाना बना है। पहले आरोप लगता था कि कांग्रेसी निष्ठा वाले कुलपति बनते हैं अब कहा जा रहा है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से निष्ठा रखने वालों की बारी है।

लोकसभा के चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसे दावे करने से बचते रहे जो लोकलुभावन हों। उनकी ऐसी छवि बनी कि वे इन मजबूरियों से ऊपर उठकर निर्मम फ़ैसले लेंगे। टैक्स के पैसे से वोट ख़रीदने की जगह पेशेवर विकास करेंगे जिससे सबको लाभ होगा। काला धन के नाम पर पंद्रह लाख देने या किसानों को फ़सल की लागत पर पचास फ़ीसदी पक्का मुनाफ़ा देने के वादे को छोड़ दें तो उन्होंने चुनावी मजबूरियों से मुक्ति का अभियान चलाकर और जीतकर दिखाया। इस दम पर वे मनरेगा का उपहास तक उड़ा गए और उसका बजट कम कर दिया। हाल ही में उनकी सरकार ने मनरेगा में पचास दिनों का कार्यदिवस बढ़ाने का फ़ैसला किया लेकिन इसका भी ज़िक्र विज़न डाक्यूमेंट में नहीं है। आख़िर बीजेपी को अब वो सब क्यों करना पड़ रहा है जो यूपी में अखिलेश यादव लैपटॉप बांटने के बाद बंद कर चुके हैं और हरियाणा में अभय चौटाला स्कूटी देने का वादा करने के बाद भी चुनाव हार चुके हैं।

बीजेपी का विज़न डाक्यूमेंट देखकर नहीं लगता कि ये उस सरकार की पार्टी का है जिसका दावा है कि पंद्रह महीने में इतना काम हुआ है कि पंद्रह दिन तक रोज दो घंटे बताएं तब भी पूरा नहीं बता सकेंगे। भाजपा और मोदी सरकार के मंत्री देश में वीआईपी संस्कृति के ख़िलाफ़ माने जाते हैं लेकिन बिहार में वीआईपी सुरक्षा के लिए अलग से फ़ोर्स देने का वादा किया गया है। सीसीटीवी का भी ज़िक्र हर दल के विज़न डाक्यूमेंट में होने लगा है। पता चलता है कि हमारे राजनीतिक दलों के पास सरकार और प्रशासन चलाने का आइडिया बेहद लचर है। अब तो छोटा से छोटा दुकानदार भी सीसीटीवी लगा लेता है फिर सरकार इसका दावा क्यों करती हैं। सीसीटीवी से अपराध नहीं रुकता। अपराध रुकता है पुलिस में भर्ती की संख्या बढ़ाने और पुलिस को राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त करने से।

किसानों के लिए अलग से कृषि बजट की सोच अच्छी है पर यह काम देश के स्तर पर क्यों नहीं किया गया? भाजपा सरकार ने कर्नाटक में इसे लागू किया था लेकिन क्या इससे खेती की स्थिति बेहतर हो गई? पिछले कुछ महीनों में कर्नाटक से किसानों की आत्महत्या की ख़बरें आ रही हैं। गुजरात महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में भी आत्महत्या की घटनाएं बढ़ी हैं। पंजाब में जहां सिंचाई का जाल बिछा है वहां क्यों किसान आत्म हत्या कर रहे हैं? जरूरत उन किसानों के कर्ज माफ करने की है जहां भाजपा का ही शासन है मगर चिन्ता बिहार में शुरू हुई किसान आत्महत्या की खबरों को लेकर है। क्या इसलिए कि वहां चुनाव है?

अर्थशास्त्री देवेंद्र शर्मा ने बताया सरकार उद्योग को बढ़ावा देने के नाम पर कई हज़ार करोड़ का क़र्ज़ माफ कर रही है लेकिन किसानों से कहा जा रहा है कि जो समय पर क़र्ज़ चुकायेगा उसे ज़ीरो परसेंट पर क़र्ज़ दिया जाएगा। देवेंद्र शर्मा ने कहा कि यह नहीं बताया गया है कि कोई भी सरकार पंजाब नेशनल बैंक या स्टेट बैंक से ज़ीरो परसेंट पर लोन देने के लिए नहीं कह सकती। यह सिर्फ कोपरेटिव बैंकों के लिए हैं जिनका डिटेल विज़न डाक्यूमेंट में नहीं मिलता। इसीलिए विज़न डाक्यूमेंट पर गंभीरता से बहस होनी चाहिए ताकि राजनीतिक दलों पर सीरीयस होने का दबाव बढ़ें।

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अच्छी बात है कि बीजेपी बिहार में शाकाहार को लेकर उग्र नहीं लगती। मध्य प्रदेश में गरीब बच्चों से अंडा छीन लिया लेकिन बिहार में मछली पालन को बढ़ावा देने का वादा कर रही है। हिन्दी का ज़िक्र नहीं है लेकिन बीजेपी अंग्रेजी और संस्कृत के अलावा फ़्रेंच ज़र्मन, स्पेनिश और अरबी सीखाने का वादा कर रही है। जिन मदरसों में अरबी सीखाईं जाती है उन्हीं को लेकर कितना राजनीतिक बवाल खड़ा किया जाता है लेकिन यह अच्छा है बीजेपी ने अरबी को महत्व दिया। इन सब भाषाओं के लिए बिहार में शिक्षक कहां से आएंगे? नीतीश कुमार ने ब्लॉक स्तर पर अंग्रज़ी सीखाने का सेंटर खोलने का वादा किया है। अंग्रेजी का मुद्दा इस चुनाव में दोनों ही दलों पर बिहार की आकांक्षा की जीत है। शायद सबको पता है कि एक आम बिहारी अंग्रजी की कितनी अहमीयत समझता है। वो हिन्दी समर्थन के नाम पर राजनीतिक ढोंग की असलीयत जानता है। आप विज़न डाक्यूमेंट जरूर पढ़ें और इसी आधार पर अपना मत बनाएं।