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This Article is From Jul 24, 2014

संसद में 'गैर-गांधी' को कांग्रेस की कमान सौंपना अच्छी शुरुआत

Manoranjan Bharti
  • Blogs,
  • Updated:
    नवंबर 20, 2014 15:14 pm IST
    • Published On जुलाई 24, 2014 12:51 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 20, 2014 15:14 pm IST

कांग्रस का संकट कम होने का नाम नहीं ले रहा है - महाराष्ट्र में नारायण राणे का इस्तीफा, असम में हेमंत विस्वा शर्मा की खुली बगावत, हरियाणा में बीरेन्द्र सिंह का मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के खिलाफ लगातार मोर्चा खोले रखना (बीरेन्द्र सिंह ने तो यहां तक कह दिया है कि वह हुड्डा के नेतृत्व में चुनाव नहीं लड़ेंगे), पश्चिम बंगाल में तीन विधायकों का तृणमूल कांग्रेस में जाना, और दिल्ली में विधायकों की टूट का खतरा... यह लिस्ट अभी और लंबी हो सकती है और कांग्रेस का संकट इससे भी ज़्यादा गहरा सकता है... आलाकमान अभी तक एंटनी कमेटी की रिपोर्ट का इंतजार कर रहा है, और यही वजह है कि लोकसभा चुनाव में हरियाणा में केवल एक सीट और महाराष्ट्र में केवल दो सीटें आने के बावजूद इन दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों की कुर्सियां बची हुई हैं... दूसरी ओर, निशाने पर असम के तरुण गोगोई हैं, जहां कांग्रेस सबसे ज़्यादा मजबूत है... असम के हर गांव में कांग्रेस का चुना हुआ प्रतिनिधि है, जो शायद पूरे देश के लिए मिसाल हो...

कांग्रेस के एक बड़े नेता से जब मैंने पूछा कि क्या पार्टी का कोई रिवाइवल प्लान है, तो उन्होंने टका-सा जवाब दिया, लगता तो नहीं है... दबी जुबान में ही सही, कांग्रेस के कई नेता पार्टी में नेतृत्व के संकट की ओर इशारा करते हैं, और यह इशारा ज़ाहिर तौर पर पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी की तरफ है... उत्तर प्रदेश के एक विधायक हाल में ही पार्टी प्रमुख सोनिया गांधी से मिले और बाहर आकर पत्रकारों को 'ऑफ द रिकॉर्ड' बताया कि बिहार मॉडल को यूपी में भी आजमाया जाना चाहिए, यानि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़े... तो यह है कांग्रेस का रिवाइवल प्लान... पहले यूपीए में पॉलिसी पैरेलिसिस था, अब यह बीमारी पार्टी को लग गई है... किसी ने इस बीच यह भी याद दिलाया कि अगर आप मुंबई से अमृतसर तक ट्रेन से जाएं और कांग्रेस सांसद ढूंढें, तो आप की तलाश अमृतसर जाकर ही पूरी होगी, जहां से कैप्टन अमरिंदर सिंह जीतकर आए हैं, वरना मुंबई से अमृतसर के बीच कांग्रेस की बत्ती पूरी तरह गुल है...

जरा सोचिए, राहुल गांधी के पास क्या विकल्प हैं... पार्टी में नया जोश लाने के लिए नए लोग कहां से लाएं... हर जगह नेताओं के बेटों और नाते-रिश्तेदारों की लंबी लाइन लगी है... यूथ कांग्रेस में चुनाव करवाया तो इन लोगों ने उस सिस्टम को फिक्स कर लिया... जब टिकट बंटता है तो पुराने खुर्राट नेताओं की ही चलती है... एआईसीसी, यानि पार्टी पर भी उन्हीं का कब्जा है... वहीं मधुसूदन मिस्त्री, जो लोकसभा चुनाव के वक्त उत्तर प्रदेश के प्रभारी थे, अभी तक अपने पद पर काबिज हैं, जबकि वहां से केवल सेनिया और राहुल गांधी जीते हैं... यानि मोहरे वहीं हैं, आप केवल उन्हें इधर से उधर कर सकते हैं...

चुनाव से पहले पार्टी में युवा जोश को जगाने की कोशिश में जुटे राहुल का प्लान भी पटरी से उतर चुका है... पार्टी में चापलूसी और लॉबीइंग की जगह लोकतांत्रिक तरीके से आंतरिक चुनावों के जरिये पारदर्शिता की बात करने वाले राहुल भी कहीं न कहीं उसी के शिकार नज़र आ रहे हैं... चुनाव में हुई हार के बाद वह और उनके सलाहकारों की चौकड़ी कांग्रेस के उन पुराने दिग्गज़ों के खास निशाने पर है, जिन्हें लगता रहा कि राहुल सब कुछ उनकी कीमत पर करना चाह रहे हैं... राहुल के माथे पर फिलहाल एक नाकाम नेता का दाग है और इसी मौके के फायदा उठाकर पुरानी ताकतें राहुल को नाकारा साबित कर देने पर तुली हैं... राहुल अगर कामयाब हुए होते तो कई पुराने कांग्रेसियों की दुकान बंद हो गई होती... लेकिन यह भी सच है कि राहुल के नाम पर कई नेताओं ने अपनी दुकान सजा भी ली है, जिनमें जयराम रमेश जैसे नेताओं का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है, जो अपने नज़दीकी पत्रकारों के साथ बातचीत में इस बात का भी श्रेय लेते थे कि देखो, मैंने राहुल को समझा दिया है कि भाषण देते वक्त कुर्ते की बांहें न चढ़ाया करें...

यह वही जयराम रमेश हैं, जिनसे बजट के बाद मैं प्रतिक्रिया मांगता रहा, मगर वह अपने अकड़ में रहे, और हर बार कहा, अभी बजट पढ़ नहीं पाया हूं... कांग्रेस के कई नेता लोकसभा चुनाव में करारी हार के बावजूद उसी अकड़ में हैं, जैसे वे अब भी मंत्री हैं... यह एक बानगी भर है, उन नेताओं की, जो राहुल के नेतृत्व में आस्था तो जताते रहे, लेकिन राहुल के हाथों को मज़बूत करने के स्थान पर राहुल के नाम का इस्तेमाल कर पार्टी में खुद को दूसरों पर भारी साबित करने की कोशिश करते रहे...

राहुल गांधी की टीम में कई ऐसे चेहरे भी हैं, जो दुनिया की नामवर यूनिवर्सिटीज़ से पढ़कर आए हैं... उनके पास इंडिया के डेवलपमेंट के लिए एक से बढ़कर एक आइडिया हो सकते हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर की राजनीति के लिए वे सब नौसिखिये साबित हुए... सीधे शब्दों में कहा जाए तो इन चेहरों को भारतीय राजनीति का ककहरा भी नहीं पता... इन्हें शायद लगता रहा कि गांधी परिवार का आभामंडल इतना बड़ा है कि बस राहुल के चेहरे के सहारे वैतरणी पार की जा सकती है... 'इलीट क्लास' के ये सलाहकार पार्टी के ज़्यादातर नेताओं से खुद को जोड़ ही नहीं पाए, और पार्टी के एक बड़े तबके को राहुल से दूर कर दिया... राहुल उनकी कच्ची-पक्की सलाहों को राजनीति का ब्रह्मवाक्य मानकर चलते रहे, और जब नतीजे सामने आए तो मुस्कुरा-भर देने के अलावा राहुल के पास कुछ नहीं बचा था...

कांग्रेस की एक बड़ी दिक्कत यह है कि पार्टी की चाहे जितनी बुरी हार हो, उसके किसी नेता को यह अपनी व्यक्तिगत क्षति नहीं लगती... जीत की सूरत में तो वे अपने योगदान का बखान करने सामने आ जाते हैं, लेकिन हार का ठीकरा वे एक-दूसरे के सिर फोड़ना चाहते हैं, मौके का फायदा उठाकर एक-दूसरे के ऊपर स्कोर कर लेना चाहते हैं... आज आप पार्टी के चाहे जितने नेताओं से बात कीजिए, एक-दूसरे की टांगखिंचाई में लगे नज़र आएंगे... रिवाइवल प्लान किसी के पास नहीं... सबके पास एक दलील है, राजनीति में हार-जीत चलती रहती है... कांग्रेस विशालकाय हाथी जैसा है, यह ये कितना भी दुबला हो जाए, वजनदार तो रहेगा ही... हम तो 60 साल सत्ता में रहे हैं, थोड़े दिन ऐसे भी सही... हमारे भी अच्छे दिन लौटेंगे... लेकिन कब, और कैसे, इसका जवाब किसी के पास नहीं...

अब सबसे बडा सवाल यह है कि कांग्रेस के पास विकल्प क्या हैं... क्या प्रियंका गांधी ही सब मर्ज़ों की दवा हैं या बीजेपी की तरह किसी ज़मीनी नेता को कांग्रेस तरजीह देगी... संकट यह है कि कांग्रेस के पास कोई मुस्लिम चेहरा नहीं है, जो जबको स्वीकार हो... यही हाल दलित, ब्राह्मण और पिछड़ी जाति को लेकर है... क्या कांग्रेस ऐसे हालात में राहुल गांधी से आगे देखने की कोशिश करेगी या किसी दैवीय चमत्कार की इंतज़ार में रहेगी... कांग्रेस ने लोकसभा और राज्यसभा में गैर-गांधी को कमान देकर एक अच्छी शुरुआत की है, और इसे कितना आगे तक लागू किया जाएगा, इसी पर कांग्रेस का भविष्य निर्भर करेगा...

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