भारत-पाकिस्तान महामुकाबले पर खास : लाला प्यार हमें भी कम नहीं मिला था तुम्हारे मुल्क में

भारत-पाकिस्तान महामुकाबले पर खास  : लाला प्यार हमें भी कम नहीं मिला था तुम्हारे मुल्क में

शाहिद अफरीदी (फाइल फोटो)

"लाला" प्यार से पाकिस्तान के कप्तान शाहिद अफ़रीदी को कहते हैं। लंबी जद्दोजहद के बाद पाकिस्तानी टीम वर्ल्ड T20 में हिस्सा लेने के लिए भारत आई। कोलकाता में अफ़रीदी ने कह दिया-भारत में पाकिस्तान से भी ज़्यादा प्यार मिलता है। फिर क्या था पाकिस्तान में हंगामा मच गया। पूर्व पाकिस्तानी कप्तान और कोच जावेद मियांदाद ने तो एक पाकिस्तानी चैनल पर उन्हें "बेवकूफ का बच्चा" तक बोल दिया। हालांकि पूर्व भारतीय टेस्ट कप्तान सुनील गावस्कर का कहना है कि अफ़रीदी ने बहुत सोच समझकर बयान दिया था। सनी गावस्कर के अनुसार अफ़रीदी के बयान के बाद पाकिस्तानी टीम के खिलाफ भारतीय दर्शकों का रुख थोड़ा नर्म पड़ेगा।

बहरहाल इन सब विवादों के बीच मेरी भावनाएं भी कुलबुलाने लगीं। मेरे अनुभव आपसे साझा होने के लिए अंगड़ाइयां लेने लगे। यादें कलम के जरिए कागज पर उतरने के लिए कुलांचे भरने लगीं।

10 साल हो चुके हैं। याददास्त से बहुत बातें मिट चुकी हैं, फिर भी अतीत के पन्नों को पढ़ने और पलों को टटोलने की कोशिश करता हूं। साल 2006 का जनवरी का महीना था। मैं, मेरे कैमरामैन सजीलाल बीएस और अंग्रेजी चैनल के मेरे सहयोगी रोहण व्यवहारकर पाकिस्तान के लिए रवाना हुए। एक और सहयोगी अफशां अंजुम कुछ कारणवश हमारे साथ नहीं आ पाईं। वे बाद में आईं। तब न्यूज़ टेलीविजन चैनल्स का शैशव काल ही चल रहा था। टेलीविजन पर बहस की शुरुआत नहीं हुई थी। शायद समय भी ऐसा नहीं था कि हर रोज तीखी और भड़काऊ बहस के लिए मुद्दा मिल पाए। आज के एंकर जब तक दोंनों पक्षों को लड़वा नहीं देते तब तक अपने कार्यक्रम को सफल नहीं मानते। समाज में बढ़ते विभाजन और खतरनाक होते ध्रुवीकरण में टेलीविजन चर्चाओं का कितनी असर हो रहा है इसका सर्वे होना चाहिए। मेरा तो मानना है कि नतीज़े चौंकाने वाले होंगे।

हम बात 2006 की कर रहे थे। न्यूज़ टेलीविजन शुरुआती दौर में थे। खबरों पर ज्यादा जोर था। पैसे की कमी नहीं थी। लिहाज़ा किसी भी कवरेज के लिए बड़ी टीम भेजी जाती थी। टीआरपी की रेस में क्रिकेट की लोकप्रियता को हर कोई भुनाना चाहता था। हमारे चैनल के संस्थापक खुद भी क्रिकेट के बड़े शौकीन रहे हैं और ये तो भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट सीरीज़ थी। सो कवरेज के लिए बड़ी टीम भेजी गई थी।

डेढ़ घंटे में ही हम लाहौर पहुंच गए। अल्लामा इकबाल इंटरनेशनल एयरपोर्ट काफी भव्य था। दिल्ली और मुंबई एयरपोर्ट से भी खूबसूरत। तब हमारे हवाईअड्डों का आधुनिकीकरण नहीं हुआ था। अब तो दिल्ली और मुंबई दोनों दुनिया के बेहतरीन एयरपोर्टों में गिने जाते हैं। मशहूर कवि, दार्शनिक, वकील, विद्वान और राजनेता मोहम्मद इक़बाल को ही अल्लामा इक़बाल नाम दिया गया था। इक़बाल को उर्दू के सबसे बड़े साहित्यकारों में गिना जाता है। आज की युवा पीढ़ी को शायद मालूम हो या न हो-"सारे जहां से हिंदुस्तां हमारा" राष्ट्रभक्ति गीत उन्होंने ही लिखा था। इस्लाम से उनकी लेखनी प्रभावित तो थी ही साथ ही हिंदू धार्मिक साहित्य पर भी उनका दखल था।

है राम के वजूद पर हिन्दोस्तां को नाज़
अहले नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द

विभाजन के पहले ही उनका निधन हो गया था लेकिन पाकिस्तान ने उन्हें अपना राष्ट्रकवि घोषित किया।


लाहौर : दिल्ली की ऐतिहासिकता और लखनऊ की नफ़ासत का समेटे शहर
"जिन्ने लाहौर नै देख्या ओ जम्याई नै।" हिंदी के मशहूर साहित्यकार असगर वज़ाहत नोएडा में मेरी सोसाइटी में ही रहते हैं। उनका मशहूर नाटक है "जिन्ने लाहौर नै देख्या ओ जम्याई नै।" हमारी लाहौर देखने की कसक पूरी हो गई। लाहौर दिल्ली और लखनऊ के इतिहास को समेटे हुए है। प्राचीन भी और आधुनिक भी। उस समय तक पाकिस्तान आतंकवादियों की गिरफ्त में नहीं आया था। एयरपोर्ट और शहर में सुरक्षा व्यवस्था सामान्य थी।  

लाहौर के बाग-ए-जिन्ना पार्क में भारत ने दौरे का पहला अभ्यास मैच खेला। मैच ड्रॉ रहा था। बाग-ए-जिन्ना पार्क ऐतिहासिक मैदान है। 6 दशक पहले भारत और पाकिस्तान के बीच लाहौर में पहला टेस्ट मैच इसी मैदान पर खेला गया था। पाकिस्तान ने वीनू मांकड़ और सुभाष गुप्ते की फिरकी का कमाल देखा था। दोनों ने 12 विकेट चटकाए थे।  यह मैदान अंग्रेजी हुकूमत की विरासत का हिस्सा है। अंग्रेज यहां फुरसत के समय क्रिकेट खेलते थे। दरख़्तों से घिरे इस मैदान पर आप बदलते वक्त के निशान भी देख सकते हैं। यहां के 99 पेड़ों पर अल्लाह के नाम खुदे हुए हैं। अब तो सारे मैच कर्नल गद्दाफ़ी स्टेडियम पर खेले जाते हैं।

लाहौर में बाग-ए-जिन्ना के अलावा एक और मैदान है-मिन्टो पार्क जिसे इकबाल पार्क भी कहते हैं। यह मीनारे पाकिस्तान के पास है। इसी मैदान से पाकिस्तान के पूर्व कप्तान और रिवर्स स्विंग के दो जादूगर वक़ार युनूस और वसीम इकरम ने क्रिकेट की शुरुआत की थी। मुंबई के शिवाजी मैदान की तरह यहां भी हर रोज क्रिकेट का मेला लगा होता है। छोटे-छोटे बच्चे अपने किट बैग के साथ पहुंचे थे। रविवार को खास रौनक रहती है। कुछ बच्चे अपने साथी को छेड़ रहे थे-"ये हिंदू है! हिंदू!" लेकिन उनकी छेड़छाड़ में शरारत थी। अपमान करने की कोशिश नहीं थी। वह हिंदू बच्चा भी बेपरवाह था। वहीं हमारी मुलाकात काशी अली से हुई। हमें भारतीय जानकर वह बेहद खुश हुआ। काशी अली के रिश्तेदार आज भी राजस्थान के झुंझनू में रहते हैं। दिल्ली लाहौर बस सेवा शुरू होने के बाद वह अक्सर अपने रिश्तेदारों से मिलने भारत आता-जाता रहता है।

हमारा ड्राइवर हावभाव और पहनावे से ड्राइवर नहीं दिखता था। कहा तो यह भी जाता है कि पाकिस्तान पहुंचते ही हर भारतीय पर निगरानी शुरू हो जाती है। आप पर निगाह रखने वाला आपका ड्राइवर भी हो सकता है। बहरहाल, हमें अपने 'हीरो' ड्राइवर पर कोई शक नहीं हुआ। नज़र रख भी रहा हो तो हमारी बला से। हम कोई गैरकानूनी काम करने तो गए नहीं थे। ड्राइवर ने एक दिन कहा कि आपने पुराने लाहौर को देख लिया आज रात वह लाहौर की आधुनिकता को दिखाएगा। वह हमें अलफ़ला मिनी गॉल्फ़ कोर्स ले गया। वहां ओपन हुक्का बार था। लड़के क्या लड़कियां भी हुक्के का दम भर रहीं थीं। हमारे टीवी कैमरे को देखकर भी किसी को ऐतराज नहीं हुआ। हमारे लिए पाकिस्तान की यह नई तस्वीर थी। जब उन्हें पता चला कि हम भारत से आए हैं तो हमारी खूब खातिरदारी हुई।

उसी दौरान हमें पता चला कि लाहौर के एक मल्टी मीडिया डिजायनर ज़ाहिद बेग के घर कुछ भारतीय मेहमान ठहरे हुए हैं। हम उनसे मिलने बेग के घर जा पहुंचे। परीक्षित अग्रवाल और राजिंदर गुप्ता सहित चार कारोबारी दोस्त चंडीगढ़ से मैच देखने लाहौर पहुंचे हुए थे। होटल में ठहरने की बजाए उन्होंने ज़ाहिद बेग का निमंत्रण स्वीकार कर लिया था। पिछले साल बेग परिवार चंडीगड़ मैच देखने गया था तब मेज़बान गुप्ता परिवार था। इनकी पुरानी जान पहचान नहीं थी। लाहौर से जब क्रिकेट प्रेमियों को लेकर बस चंड़ीगढ़ पहुंचती है तो लोग खुद इन्हें मेहमान बनाकर अपने घर ले जाते हैं। अब आप इसे क्या कहिएगा। आम दिलों में दरार कहां है? है भी तो दीवार खड़ा करने का काम कौन कर रहा है?

लाहौर का गद्दाफ़ी स्टेडियम काफी बड़ा और शानदार है। टेस्ट ड्रॉ रहा था। वीरेंद्र सहवाग ने 254 तो राहुल द्रविड़ ने 128 रन बनाए। पूरे 5 दिन प्रेस बॉक्स में हमे खास इज्ज़त बख़्शी गई। वेज़ खाने वालों के लिए खास इंतज़ाम थे। वैसे पाकिस्तान में वेज़ खाना ढ़ूंढना आसान नहीं होता। वहां के स्थानीय पत्रकार पहले हमें खाना सर्व करने के लिए कहते। कुछ साल बाद दिल्ली के फ़िरोज़शाह स्टेडियम में प्रेस बॉक्स में खाने के लिए मारामारी होते देखी तो अच्छा नहीं लगा। कई पाकिस्तानी पत्रकारों को खाना नसीब भी नहीं हो पाया। दिल्ली में बदइंतजामी इसलिए मचती है क्योंकि डीडीसीए के अधिकारियों के रिश्तेदार प्रेस बॉक्स में गैरकानूनी तरीके से घुसे रहते हैं।

लाहौर आए और 200 साल पुरानी अनारकली बाज़ार नहीं गए तो आपकी शॉपिंग अधूरी रह जाएगी। यहां के दुकानदारों के स्वागत से हम अभिभूत थे। भारत से आए मेहमानों को हर कोई खरीददारी में खास छूट दे रहा था। हस्तशिल्प और कढ़ाई के कारण महिलाओं में यह बाज़ार बहुत लोकप्रिय है। समझ लीजिए की लाहौर का चांदनी चौक है।

दिल्ली के स्ट्रीट फूड का अपना स्वाद है। हमारे पाकिस्तानी मित्र हमें लाहौर की ग्वालमंडी ले गए। परंपरागत पाकिस्तानी खाने के लिए इससे अच्छी जगह शायद नहीं। चूंकि हम हिंदुस्तानी थे इसलिए ख्याल रखा जा रहा था कि हमें "बड़े" का नॉन वेज़ नहीं परोसा जाए। हम जहां भी जाते लोग हमसे बातें करना चाहते। भारत के बारे में जानने की कोशिश करते। लाहौर की आवाभगत ने हमें मुरीद बना लिया।
(अगले भाग में फैसलाबाद और कराची के अनुभव)

संजय किशोर एनडीटीवी के खेल विभाग में एसोसिएट एडिटर हैं...

Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।