प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सात वर्षों के लंबे अंतराल के बाद शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन के लिए चीन जाना, एक बड़ी वैश्विक हलचल है. इसी दौरान चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से देशों के मध्य आर्थिक, सुरक्षा और सामरिक संबंधों पर हुई द्विपक्षीय वार्ता ने भी दुनिया का ध्यान खींचा है. क्योंकि यह वार्ता ऐसे समय पर हुई है, जब अमेरिका द्वारा भारत पर लगाए गए 50 प्रतिशत टैरिफ प्रभावी हो चुके हैं और वैश्विक व्यापार जगत में भारत, चीन और रूस के त्रिकोण पर चर्चाएं तेज हैं. विशेष रूप से पश्चिमी मीडिया इस बैठक को दुनिया के चार सबसे ताकतवर नेताओं में से तीन के बदली वैश्विक परिस्थितियों में साथ आने की थ्योरी को बल दे रहा है.
...तो वैश्विक आर्थिक संतुलन पर इसका क्या असर होगा?
इस पूरे परिदृश्य ने दो बड़े सवाल खड़े कर दिए हैं जिनकी चर्चा आज पूरी दुनिया कर रही है. पहला, यदि भारत, चीन और रूस मिलकर किसी नई व्यवस्था का निर्माण करते हैं, तो दुनिया की आर्थिकी पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? दूसरा सवाल है कि यदि ब्रिक्स समूह अधिक आक्रामक रुख अपनाता है, जिसमें इन तीनों के साथ ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका जैसी दो प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाएं भी मौजूद हैं, तो वैश्विक आर्थिक संतुलन पर इसका क्या असर होगा? इसलिए वर्तमान का एससीओ शिखर सम्मेलन हो या फिर हाल ही में ब्राज़ील में सम्पन्न हुआ ब्रिक्स सम्मेलन, ये सब उन वैश्विक परिस्थियों का हिस्सा हैं, जिनका महत्व अब केवल क्षेत्रीय सुरक्षा और सहयोग तक सीमित नहीं है. ये मंच बदलते परिदृश्य में अमेरिका के संरक्षणवाद की बढ़ती प्रवृत्ति के संदर्भ में भी निर्णायक रूप ले रहे हैं. सबसे अहम पहलू भारत, चीन और रूस का त्रिकोण है, जो अब एक ऐसे निर्णायक मोड़ पर खड़ा है. जहां इनकी आर्थिक और सामरिक क्षमता वैश्विक व्यवस्था को नया आकार दे सकती है.

भारत, चीन और रूस के त्रिकोण से क्यों चिंतित हैं पश्चिमी देश?
दुनिया की भू-राजनीति इस समय अभूतपूर्व परिवर्तन के दौर से गुजर रही है. वह अमेरिका, जिसने कभी ग्लोबलाइजेशन का शंखनाद किया और मुक्त व्यापार व्यवस्था का सबसे बड़ा लाभार्थी रहा, आज स्वयं टैरिफ़ और व्यापार संरक्षणवाद की नीति अपना रहा है. वह आज टैरिफ़ का इस्तेमाल न केवल चीन, बल्कि भारत जैसी मित्र अर्थव्यवस्था के खिलाफ भी कर रहा है. इसका परिणाम है कि विश्व अर्थव्यवस्था में देश अपनी-अपनी आपूर्ति शृंखलाओं को नए सिरे से गढ़ रहे हैं, नए ट्रेड ब्लॉक बन रहे हैं और वैश्विक व्यापार की संरचना धीरे-धीरे बदल रही है.
इस परिदृश्य का सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन भारत, चीन और रूस के बीच उभरता संभावित गठबंधन है. इसमें कोई संदेह नहीं कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा शुरू किए गए आक्रामक टैरिफ वॉर ने इन तीनों देशों को एक-दूसरे के ज्यादा निकट लाने में भूमिका निभाई है. आर्थिक दबाव और भू-राजनीतिक दबावों के सम्मिलित प्रभाव ने इन देशों को यह एहसास कराया है कि पश्चिम-प्रधान व्यवस्था उनके दीर्घकालिक आरथिक हितों के अनुकूल नहीं है.
ऐसे में यदि यह समीकरण आगे बढ़ता है, तो वैश्विक आर्थिकी को संतुलित करने वाला एक रणनीतिक त्रिकोण बन सकता है. क्योंकि भारत, रूस और चीन तीनों सम्मिलित रूप से आज विश्व अर्थव्यवस्था को पुनः परिभाषित करने की स्थिति में हैं. क्रय शक्ति समानता (पीपीपी) के आधार पर इनकी संयुक्त जीडीपी लगभग 53.9 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर है, जो वैश्विक आर्थिक उत्पादन का लगभग एक तिहाई हिस्सा है. यानि कि यह त्रिकोण अमेरिकी अर्थव्यवस्था से बड़ा है और किसी भी पारंपरिक पश्चिमी ब्लॉक के लिए गंभीर चुनौती है. इस त्रिकोण की निर्यात क्षमता भी प्रभावशाली है. सामूहिक रूप से वे प्रतिवर्ष लगभग 5.09 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य का माल निर्यात करते हैं, जो विश्व के कुल वस्तु निर्यात का लगभग 20 प्रतिशत है. इसके अलावा यह त्रिकोण 3.1 अरब की जनसंख्या का प्रतिनिधि है, जो विश्व जनसंख्या का 38 फीसदी है. यह इतिहास का सबसे बड़ा उपभोक्ता बाज़ार है जो वैश्विक स्तर पर मांग और खपत का सबसे शक्तिशाली केंद्र है.

पश्चिमी देशों की वर्चस्ववादी संरचनाओं के लिए रणनीतिक चुनौती
भारत, चीन और रूस के त्रिकोण की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि तीनों देश आर्थिक दृष्टि से परस्पर पूरक हैं. चीन विश्व का प्रमुख विनिर्माण केंद्र है, जिसकी उत्पादन क्षमता और वैश्विक आपूर्ति शृंखला पर पकड़ अत्यंत मज़बूत है. वहीं रूस अपनी रक्षा प्रणाली, ऊर्जा संपदा और प्राकृतिक संसाधनों के कारण वैश्विक स्तंभ है. जबकि भारत अपने विशाल उपभोक्ता आधार और सेवाक्षेत्र की प्रतिस्पर्धी क्षमता के कारण प्रभावी है. इसका आशय है कि यदि चीन का विनिर्माण प्रभुत्व, रूस की रक्षा और ऊर्जा संपदा और भारत की सेवाक्षेत्रीय ताकत तथा इनका सयुंक्त जनसांख्यिकीय लाभांश एकसाथ संयोजित हो, तो यह गठबंधन न केवल एक वैश्विक महाशक्ति का रूप है, बल्कि पश्चिमी देशों की पारंपरिक वर्चस्ववादी संरचनाओं के लिए रणनीतिक चुनौती भी है.
रूस, चीन और भारत साथ आए तो बदल जाएगी वैश्विक अर्थव्यवस्था
यदि रूस, चीन और भारत औपचारिक या अनौपचारिक रूप से किसी आर्थिक गठबंधन अथवा ट्रेड ब्लॉक की दिशा में आगे बढ़ते हैं तो इसके परिणाम वैश्विक व्यापार, वित्त और आपूर्ति शृंखलाओं पर गहरे और दीर्घकालिक होंगे. उदाहरण के लिए वर्तमान में आईएमएफ, विश्व बैंक और डब्ल्यूटीओ जैसे वैश्विक वित्तीय संस्थानों पर पश्चिमी देशों का प्रभाव है. इन संस्थाओं के माध्यम से पश्चिमी देश विकासशील देशों के लिए सहायता की शर्तें तय करते हैं, नीतिगत दबाव बनाते हैं और निर्णय प्रक्रिया को अपने हितों के अनुरूप रखते हैं. किंतु यदि भारत, चीन और रूस इन संस्थाओं में विकासशील देशों के हितों में सामूहिक आवाज़ बने तो विश्व अर्थव्यवस्था में शक्ति संतुलन का ढांचा बदल जाएगा.
इस गठबंधन से एक महत्त्वपूर्ण बदलाव वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं और व्यापार मार्गों का पुनर्गठन है. चीन की ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव' पहले ही एशिया, यूरोप और अफ्रीका को जोड़ने का प्रयास कर रही है, जिसमें भारत और रूस की भौगोलिक स्थिति निर्णायक है. भारत यदि इस ढाँचे में अपनी शर्तों और हितों के अनुरूप शामिल हो तो इस व्यापारिक गलियारे को एक नया आयाम मिलेगा. इसी तरह भारत, रूस और ईरान का ‘इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर' भी पश्चिमी मार्गों के विकल्प के रूप में उभर सकता है. विदेशी निवेश और वित्तीय सहयोग के क्षेत्र में भी यह त्रिकोण महत्वपूर्ण है. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रवाह और वैकल्पिक वित्तीय संस्थानों की स्थापना, जैसे ब्रिक्स का ‘न्यू डेवलपमेंट बैंक' या ‘एशियन डेवलपमेंट बैंक', विकासशील देशों को पश्चिमी वित्तीय तंत्र से स्वतंत्रता प्रदान कर सकते हैं.
इसके अतिरिक्त भारत, चीन और रूस यदि मिलकर कदम बढ़ाते हैं तो वे डॉलर की दीर्घकालिक एकाधिकार स्थिति को भी चुनौती दे सकते हैं. इस दिशा में प्रारंभिक संकेत पहले से मौजूद हैं. रूस और भारत के बीच स्थानीय मुद्राओं में व्यापार, जबकि रूस और चीन भी डॉलर के बजाय युआन और रूबल में लेन-देन पहले से जारी है. यदि इस प्रवृत्ति को संस्थागत समर्थन मिले और एक व्यापक व्यापारिक व्यवस्था विकसित हुई जिसमें डॉलर प्रमुख मुद्रा न रहा, तो यह अमेरिका और पश्चिम के लिए सबसे बड़ी आर्थिक चुनौती सिद्ध होगी. हाल के दिनों में देखा गया है कि कैसे अमेरिका ने ब्रिक्स की आलोचना ‘डी-डॉलराइजेशन' के लिए की है. इससे स्पष्ट है कि यह गठबंधन वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में एक संरचनात्मक परिवर्तन का संकेत होगा. यह संभावित त्रिकोण एक महाद्वीपीय आर्थिक धुरी के रूप में उभर सकता है, जो पश्चिमी प्रभुत्व को संतुलित करते हुए बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था को और मजबूत करेगा.

अमेरिकी बादशाहत को सबसे बड़ी चुनौती है ‘ब्रिक्स'
पिछले कुछ वर्षों में ब्रिक्स ने स्वयं को पश्चिमी गुट, विशेषकर जी-7 की तुलना में एक समतामूलक मंच के रूप में स्थापित किया है. यही कारण है कि दुनियाभर की उभरती अर्थव्यवस्थाएं इसका हिस्सा बनना चाहती हैं. इस बढ़ती दिलचस्पी के पीछे दो प्रमुख कारण हैं: पहला, सभी सदस्य देशों को बराबरी का स्थान और निर्णय में समान भागीदारी. दूसरा, यह समूह आर्थिक संभावनाओं और व्यावहारिक विकास के नए द्वार खोल रहा है, विशेषकर उन देशों के लिए जिन्हें पारंपरिक पश्चिमी संस्थानों में अक्सर हाशिए पर रखा गया. इस बात को समझना जरूरी है कि आईएमएफ जैसी संस्थाओं में उभरते देशों को उनकी आर्थिक क्षमता के अनुपात में अधिकार नहीं है, जबकि ब्रिक्स "वीटो" जैसे विशेषाधिकारों के आधार पर निर्णय नहीं थोपता हैं. उदाहरण के लिए, ब्रिक्स द्वारा स्थापित न्यू डेवलपमेंट बैंक में सभी सदस्य देशों के पास एक वोट होता है. यही विशेषता ब्रिक्स को जी-7 और ब्रेटन वुड्स संस्थाओं से अलग और अधिक लोकतांत्रिक बनाती है.
आर्थिक दृष्टिकोण से भी ब्रिक्स एक व्यवहारिक विकल्प है. वर्ष 2010 में इसका वैश्विक अर्थव्यवस्था में हिस्सा मात्र 18 प्रतिशत था और उस समय इसे जी-7 के मुकाबले एक ‘कमजोर आवाज' माना जाता था. लेकिन अब यह धारणा टूट चुकी है. वर्ष 2023 में पहली बार ब्रिक्स देशों की सम्मिलित जीडीपी (क्रय शक्ति समता के आधार पर) जी-7 समूह की कुल जीडीपी से अधिक हो गई. इसके अलावा नॉमिनल जीडीपी के आधार पर ब्रिक्स 2030 तक वैश्विक नेतृत्व की भूमिका में होगा, जो वैश्विक उत्पादन में 50 प्रतिशत से अधिक योगदान देगा. अन्य आर्थिक संकेतक भी ब्रिक्स की बढ़ती ताकत को रेखांकित करते हैं. यह समूह वैश्विक निर्यात में लगभग 25 प्रतिशत हिस्सेदारी रखता है, कच्चे तेल का 43 प्रतिशत उत्पादन करता है और दुर्लभ खनिजों (रेयर अर्थ मिनरल्स) का 72 प्रतिशत से अधिक भंडार अपने पास रखता है.
भारत, चीन और रूस पहले से ही ब्रिक्स में साझीदार हैं, जिसमें ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका भी शामिल हैं. यद्यपि वर्तमान की चर्चा मुख्यतः भारत-चीन-रूस तिकड़ी पर केंद्रित है, लेकिन इस मंच को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. यदि भारत-चीन-रूस का त्रिकोण और ब्रिक्स मंच सामंजस्य से कार्य करें, तो वे मिलकर दक्षिण अमेरिका से लेकर एशिया-अफ्रीका तक विकासशील दुनिया की आवाज बन सकते हैं. ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका के साथ होने से इस मंच की भौगोलिक पहुँच बड़े भूभाग तक फैलती है. आज यह मंच सामूहिक रूप से प्राकृतिक संसाधन, कृषि, खनिज, मानव संसाधन और तकनीक सभी क्षेत्रों में समृद्ध है. आज विश्व स्वीकार कर रहा है कि ब्रिक्स एक वास्तविक प्रभाव रखने वाला ध्रुव जो अब पश्चिमी प्रतिबंधों को निष्प्रभावी करने की क्षमता है. उदाहरण के लिए, रूस-यूक्रेन संघर्ष के दौरान भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका ने पश्चिमी प्रतिबंधों के बावजूद रूस के साथ व्यापारिक संबंध बनाए रखा.

लेकिन भारत को सतर्क रहना होगा
हालाँकि इन तमाम संभावनाओं को सबसे बड़ी चुनौती चीन के बढ़ते एकतरफा प्रभुत्व से है. चीन कभी भी एक पारदर्शी व्यापारिक साझेदार नहीं रहा है. उसके पास आर्थिक शक्ति है, परंतु वह अक्सर इसका उपयोग अन्य देशों पर दबाव बनाने के लिए करता है. इसके अलावा उसकी विस्तारवादी नीतियाँ किसी भी समीकरण के लिए गंभीर चुनौती हैं. चीन आज भारत से बेहतर संबंध केवल इसलिए चाहता है क्योंकि अमेरिका के साथ चल रहे व्यापार युद्ध में वह भारत को अपने माल के लिए बड़ा बाज़ार देख रहा है. यही स्थिति रूस के साथ भी है, जहाँ संबंध होने के बावजूद चीन को पूर्ण विश्वास प्राप्त नहीं है. इसलिए आज अमेरिकी टैरिफ ही वह शक्ति है जो इस संभावित गठबंधन को गति दे रही है, अन्यथा हाल ही में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान चीन का भारत के प्रति क्या रुख है यह स्पष्ट देखने को मिला था. भारत के सामने सबसे बड़ा जोखिम यह है कि उसकी आत्मनिर्भर भारत योजना को चीन से सबसे बड़ी चुनौती है. बदलते समीकरणों में यदि चीन को आसान व्यापार मार्ग मिलेगा तो वह अपने सस्ते उत्पादों से भारतीय बाज़ार को भर देगा. इसलिए भारत को चीन पर अत्यधिक भरोसा से बचना चाहिए.
(डिस्क्लेमर - विक्रांत निर्मला सिंह, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी), राउरकेला में शोधार्थी हैं और काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के पूर्व छात्र हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है. )