अयोध्‍या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की समीक्षा आप कैसे करेंगे?

सुप्रीम कोर्ट ही इजाज़त देता है कि उसके फैसले की समीक्षा की जा सकती है. कोर्ट से भी फैसले की समीक्षा का आग्रह किया जा सकता है और सामान्य जन भी अपनी चर्चाओं में फैसले की समीक्षा कर सकते हैं.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला कैसा है, इससे पहले कि आप जवाब दें, लोग ख़ुद ही बोल देते हैं कि चलो बवाल ख़त्म हुआ. लेकिन तब भी पहला सवाल तो रह ही जाता है कि फैसला कैसा था. यह वाकई तारीफ की बात है कि जनता ने संयम और परिपक्वता के साथ सामना किया. वो जनता यह भी जानना चाहेगी कि फैसला कैसा है. फैसले की नुक्ताचीनी से वह नहीं घबराने वाली. आम सहमति से आए इस फैसले को जब कानून की क्लास में पढ़ाया जाएगा तब शायद ही छात्रों के बीच आम सहमति बन पाएगी. ऐतिहासिक फैसला है इसलिए इसकी समीक्षा आज ही नहीं, लंबे समय तक होती रहेगी. ऐतिहासिक फैसला, आम सहमति का फैसला लेकिन कौन सा हिस्सा किसका लिखा है, यह अनुपस्थित है. लाइव लॉ ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ. अब देखिए 2017 में निजता के अधिकार पर 9 जजों ने फैसला दिया. आम सहमति का फैसला था लेकिन पहले पन्ने से पता चल जाता है कि कौन सा हिस्सा किस जज ने लिखा है. इसी मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 8000 से अधिक पन्नों का था, गनीमत है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला उसे आठ गुना कम 1045 पन्नों का है. कम मेहनत लगेगी लेकिन अच्छा होगा कि आप खुद भी इस फैसले को पढ़ें. काफी कुछ जानने को मिलेगा.

सुप्रीम कोर्ट ही इजाज़त देता है कि उसके फैसले की समीक्षा की जा सकती है. कोर्ट से भी फैसले की समीक्षा का आग्रह किया जा सकता है और सामान्य जन भी अपनी चर्चाओं में फैसले की समीक्षा कर सकते हैं. बस आप यह नहीं कह सकते कि किस वजह से इस जज ने ऐसा लिखा होगा, अगर आप मंशा जोड़ेंगे तो अवमानना का सामना करना होगा. आम तौर पर राजनेता तय करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के किस फैसले पर राजनीति करेंगे और किस पर नहीं. बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि वाले फैसले के मामले में कोर्ट का फैसला किस्मत वाला रहा कि सभी राजनीतिक दलों ने कहा कि हम राजनीति नहीं करेंगे. स्वीकार करेंगे. लेकिन जब 2018 में सबरीमाला को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तब बीजेपी ही इस फैसले का विरोध करने वाले लोगों के साथ खड़ी हो गई. नहीं कहा कि हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन करते हैं.

इस फैसले को लेकर गृहमंत्री अमित शाह का बयान है कि हम इस फैसले के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों के साथ हैं. अमित शाह ने ट्वीट किया था कि सबरीमाला के मामले में राष्ट्र ने धर्म, विश्वास और भक्ति और केरल की दमनकारी सरकार के बीच लड़ाई देखी है. सरकार अयप्पा के भक्तों को दबाने में ताकत का इस्तमाल कर रही है. तब अमित शाह ने नहीं कहा था कि वे सुप्रीम कोर्ट के साथ हैं. तब नहीं कहा था कि केरल सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करना चाहिए. जबकि सबरीमला का फैसला 5 जजों की बेंच ने दिया था. एक महिला जज ने असहमति ज़ाहिर की थी. अब ये फैसला भी फिर से 5 जजों की बेंच के सामने समीक्षा के लिए प्रस्तुत है. मार्च 2018 में अनुसूचित जाति जनजाति एक्ट के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दे दिया कि बिना जांच से पहले किसी लोक सेवक की गिरफ्तारी नहीं होगी. इस फैसले के खिलाफ भारत बंद हो गया. इसमें 11 लोगों की जान गई थी. अनुसूचित जाति के सांसदों का दबाव बना और सरकार को संसद के भीतर इस फैसले को बदलना पड़ा. अब इसी फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने बदल दिया है. दो जजों के बेंच के फैसले को तीन जजों की बेंच ने बदल दिया.

राजनीतिक दल जब यह कहें कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर राजनीति नहीं करनी है तो यह उनकी राजनीति होती है. इसलिए फैसले की समीक्षा करना एक परिपक्व लोकतंत्र की निशानी है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के ऑपरेटिव पार्ट की शुरुआत जस्टिस, इक्विटी और गुड कांशिएंस से की है जिसकी चर्चा सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील राजीव धवन ने ही बहस के दौरान की थी. फैसला जस्टिस इक्विटी और गुड कांशिएंस की उत्पत्ति का लंबा इतिहास बताता है. यह रोम से शुरू हुआ. बाद में 16 वीं सदी में अंग्रेज़ों के बनाए कानून में घुल मिल गया. किसी हिन्दी चैनल को पता नहीं चला वर्ना हेडलाइन बनाता कि रोम आया राम के काम और दर्शक राम के काम आया रोम. वैसे जस्टिस इक्विटी और गुड कांशिएंस का सिद्धांत इसलिए अपनाया गया क्योंकि न्याय का यह सिद्धांत जजों को अवसर देता है कि जब किसी विशेष परिस्थिति में कानून अपर्याप्त हो, काफी नहीं हो, तब न्याय, बराबरी और अच्छे विवेक के आधार पर फैसले लिए जा सकते हैं. इसके लिए दूसरे देशों में लिए गए फैसले के आधार को देखना भी हर्ज नहीं है. यह बताने का मकसद यही है कि मौजूदा मामले में भी बहुत से पहलू ऐसे हैं जो मौजूद कानून के पैमाने पर फिट नहीं होते हैं. क्या वाकई हमारे इस केस के ऐसे कई पहलू थे जिनका निपटारा करने के लिए हमारे मौजूदा कानूनों में पर्याप्त क्षमता नहीं थी? यह सवाल है मगर जवाब हमारे पास नहीं है. फैसले में इसे रेखांकित किया गया है कि 4 सदियों का यह झगड़ा है इस बीच भारत में मुगलों का राज रहा, ईस्ट इंडिया कंपनी का राज रहा, ब्रिटिश हुकूमत का राज रहा और फिर आज़ाद भारत का संविधान लागू हुआ.

विवादित परिसर 1861 से ही नज़ुल की भूमि पर है यानि सरकारी भूमि है. सरकार की तरफ से कभी दावा नहीं किया गया कि ज़मीन हमारी है. 1861, 1893-94 और 1936-37 के राजस्व रिकॉर्ड में इस जगह को जन्मस्थान कहा गया है. राजस्व रिकॉर्ड में मस्जिद, शाही मस्जिद या जन्मस्थान मस्जिद का ज़िक्र नहीं है. ज़मीन पर मस्जिद थी इसके प्रमाण 1856 के अवध एनेक्सेशन के बाद का है. 1856 के पहले का कोई शाही फरमान पेश नहीं किया जा सका.

इसके बाद तर्क दिया गया कि चूंकि वहां नमाज़ होती थी इसलिए वह वक्फ की ज़मीन मानी जाएगी. इस बात की अदालत कई फैसलों से जांच करती है. देखती है कि ऐसे मामले में किस फैसले में कैसे फैसला दिया गया है. अदालत कहती है कि तब देखा जाता है कि उस जगह का इस्तमाल नमाज़ या इबादत के लिए हो रहा था या नहीं. इसी आधार पर कई मामलों में ऐसे फैसले दिए गए हैं कि तब इसे वक्फ की ज़मीन मानी जाएगी. कोर्ट कहती है कि 1528 से 1856 के बीच नमाज़ होने का प्रमाण पेश नहीं किया जा सका. इसलिए नहीं कहा जा सकता कि इसका इस्तमाल धार्मिक हो रहा था. 1856 में जब रेलिंग बनती है तब ज़मीन का मालिक कौन है, इसकी दावेदारी कोई नहीं करता है.

अग्रेज़ों के दौरान बाहरी परिसर में अंग्रेज़ों ने हिन्दुओं के धार्मिक अधिकार को मान्यता दी. मुसलमानों ने भी बाहरी परिसर पर दावा नहीं किया. न ही वे 1857 के बाद इसका इस्तमाल कर रहे थे. कोर्ट के फैसले को लेकर सवाल दो पहलु पर हो रहे हैं.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एएसआई से पूछा था कि बाबरी मस्जिद खाली ज़मीन पर बनी थी या पहले कोई ढांचा था. ASI ने अपनी रिपोर्ट में नहीं बताया कि मंदिर गिरा कर मस्जिद बनाई गई थी या नहीं. ASI ने यह ज़रूर कहा कि ज़मीन के नीचे पुरानी इमारतों के अवशेष मिलते हैं जो मंदिर जैसे प्रतीत होते हैं. ASI ने कहा कि इन अवशेषों के निर्माण का समय 12वीं सदी का लगता है. कोर्ट कहता है कि ASI की रिपोर्ट से साफ नहीं होता है कि 12वीं सदी के ढांचे का इस्तमाल मस्जिद में हुआ. ASI ने यह ज़रूर कहा है कि ख़ाली ज़मीन पर मस्जिद नहीं बनी थी. कोर्ट मानता है कि पुरातात्विक साक्ष्यों से साबित नहीं होता कि मस्जिद के लिए हिन्दू मंदिर तोड़ा गया.

यह इस राजनीति का सबसे बड़ा झूठ था जिसे अदालत ने अपने फैसले में साफ कर दिया. मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाने के नाम पर उत्तर भारत में कितना बवाल मचा लेकिन यह बात सुप्रीम कोर्ट में साबित नहीं हुई. सुप्रीम कोर्ट के फैसले का एक हिस्सा और महत्वपूर्ण है.

इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि 16 दिसंबर 1949 को नमाज़ अदा की गई थी. 22/23 दिसंबर 1949 की दरम्यानी रात वहां मूर्ति रख दी गई जिसके बाद से नमाज़ पर रोक लग गई. मुसलमानों को इस जगह से कानून के आधार पर बेदखल नहीं किया गया बल्कि सोच समझ कर इबादतगाह से बेदखल कर दिया गया.

अदालत ने अपने फैसले में इस पर इंसाफ ज़रूर दिया कि 22-23 दिसंबर 1949 की रात गैर कानूनी तरीके से मस्जिद में मूर्ति रखी गई. तब क्या अदालत को यह नहीं कहना चाहिए कि इस घटना को लेकर आज़ाद भारत की अदालतों ने क्या रुख अपनाया, क्या गैर कानूनी मानते हुए मुसलमानों के हक में फैसला दिया. नहीं दिया. बल्कि जब मूर्ति हटाने के आदेश दिए गए तो ज़िला प्रशासन ने मूर्ति हटाने से इंकार कर दिया. अगर यह नाइंसाफी थी तो इंसाफ क्या होना चाहिए था. 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वस्त कर दी गई. अगर यह इमारत नहीं टूटती तो फिर इस मुकदमे का क्या फैसला होता, इस पर सोचा ही जा सकता है. मगर सुप्रीम कोर्ट ने इस घटना पर भी उसी आमसहमति से फैसला दिया है जिस आम सहमति से इस मसले का फैसला हुआ है.

6 दिसंबर 1992 को मस्जिद का ढांचा तोड़ दिया गया. यथास्थिति रखने के आदेश का उल्लंघन करते हुए मस्जिद तोड़ी गई. अदालत को आश्वासन दिया गया कि यथास्थिति रहेगी. मस्जिद को ढहाना कानून के राज का खुला उल्लंघन था.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में यह दो फैसले बेहद महत्वपूर्ण हैं. हज़ारों की संख्या में लोग और कई बड़े नेता इस काम में शामिल थे या मस्जिद गिराने के वक्त मौजूद थे, वे सभी राम मंदिर के निर्माण से जुड़े आंदोलन में भी सक्रिय रहे. क्या वे भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत कर रहे हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने उस काम को गैर कानूनी माना है. राम मर्यादा पुरुषोत्तम माने जाते हैं. अयोध्या में फैसला मंदिर के हक में आया है जहां संविधान की मर्यादाएं 1949 में और 1992 में ध्वस्त की गईं. उसी संविधान के तहत मंदिर का फैसला आया है. देखा जाए तो वो सारे अपराधी इस वक्त कहां होगे, वो अपने इस कृत्य के बारे में क्या सोच रहे होंगे, क्या वे राम को याद करते हुए खुद से अदालत के सामने आ जाएंगे कि उनसे यह गुनाह हुआ था. क्या ऐसे लोग उस ट्रस्ट में भी होंगे जिसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश से बनना है. जो कानून के अपराधी हैं, भले पकड़े नहीं गए हैं, वे मंदिर निर्माण से जुड़ी किसी प्रक्रिया में कैसे शामिल हो सकते हैं? अप्रैल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने ही मस्जिद ध्वस्त के मामले में आदेश दिया था कि दो साल के भीतर ट्रायल पूरा हो. दो साल पूरा हो चुका है.

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विवादित ज़मीन एक संपूर्ण ईकाई है. 1856-57 में रेलिंग बनाई गई थी लेकिन ज़मीन या स्वामित्व का बंटवारा नहीं हुआ था. सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड भी ज़मीन पर कब्ज़े के अधिकार का प्रमाण नहीं दे सका. हिन्दुओं का बाहरी परिसर में निरंतर कब्ज़ा रहा और पूजा अर्चना होती रही. भीतरी परिसर को लेकर हिन्दू और मुस्लिम पक्ष में विवाद होते रहे. 16 दिसंबर 1949 तक नमाज़ होती रही. बाहरी परिसर पर हिन्दुओं के लगातार कब्ज़े के आधार पर ही उनके पक्ष में फैसला हुआ.