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This Article is From Dec 04, 2019

विशेष तौर पर सक्षम लोगों से समाज का सलूक कैसा

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 04, 2019 01:18 am IST
    • Published On दिसंबर 04, 2019 01:14 am IST
    • Last Updated On दिसंबर 04, 2019 01:18 am IST

तीन दिसंबर को International Day of Persons with Disabilities के तौर पर मनाया जाता है. 1992 में संयुक्त राष्ट्र ने यह दिन इसलिए तय किया था ताकि इसके बहाने आम लोगों और सरकारों के बीच अलग से शारीरिक और मानसिक तौर पर सक्षमता को लेकर समझ बने और उनके हिसाब से अधिकारों की समझ समाज में बने. ताकि अगर जब हम देखें कि कोई इमारत, कोई सड़क या बाज़ार या दफ्तर इस लिहाज़ से न हो तो पहला सवाल ये दिमाग में आए कि इसका न होना, संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है. कुछ दिन पहले मैं कैलिफोर्निया गया था. वहां के मांटेरे में एक पब्लिक बस देखी. मैं हैरान हो गया पूरी प्रक्रिया को देखकर. बस का ड्राइवर पूरी ज़िम्मेदारी से शारीरिक रूप से बेहद कमज़ोर हो चुके एक बुज़ुर्ग को हाइड्रोलिक लिफ्ट के ज़रिए बस में चढ़ा रहा था. बस में ऐसी लिफ्ट का होना ही मेरे लिए सुखद आश्चर्य था. गर्व हुआ कि ये हासिल किया जा सकता है. एक बात और समझ आई. जब सिस्टम पर भरोसा हो तो कोई उम्र के इस पड़ाव पर अकेले बाजार जा सकता है. आप वीडियो देखेंगे तो पता चलेगा कि इस उम्र के बुज़ुर्ग को हम लोग शायद ही अकेले बाहर जाने दें क्योंकि बाहर सिस्टम नदारद है. आप ये वीडियो देखिए. फिर मांग कीजिए कि भारत में ये क्यों नहीं हो सकता है.

सोमवार रात को आल इंडिया रेडियो पर विकलांग दिवस की पूर्व संध्या पर एक चर्चा सुन रहा था. एक कॉलर ने जब पूछ दिया कि कई रेलगाड़ियों से विकलांगों के लिए बने विशेष कोच की व्यवस्था समाप्त कर दी गई है तो चर्चा में शामिल जिम्मेदार से जवाब देते न बना. यही कहा कि रेलवे से बात कर रहे हैं. हमें एक सुझाव मिला है कि विकलांगों के लिए कोच का स्थान फिक्स होना चाहिए. या तो सबसे पीछे लगे या इंजन के ठीक बाद लगे मगर अचानक न बदले. 

इस मामले में दिल्ली में काफी कुछ मिल जाता है लेकिन बाकी राज्यों में बहुत बुरा हाल है. गांवों में तो और भी बुरा हाल है. नीतियों के स्तर पर भले ही कुछ बदलाव दिखने लगा है मगर लागू होने के स्तर पर बहुत अच्छा काम नहीं हो पा रहा है. 2016 में भारत सरकार ने The Rights of Persons with Disabilities Act यानी RPWD Act 2016 बनाया है जिसमें ऐसे लोगों की सुविधा, सम्मान और अधिकारों को ध्यान में रखा गया है. 

नए कानून में शारीरिक और मानसिक क्षमता के दायरे में आने वाले वर्गों को 7 से बढ़ाकर 21 किया गया है. इसमें दृष्टिहीन, कम दृष्टि, बौद्धिक अक्षमता, मानसिक बीमारी, बोलने और भाषा की अक्षमता, बधिर, मस्क्युलर डिस्ट्रॉफ़ी, एसिड हमले के शिकार, पार्किंसन्स की बीमारी, थैलीसीमिया, हीमोफ़ीलिया, ऑटिज़्म स्पैक्ट्रम डिसऑर्डर जैसी समस्याओं से ग्रस्त लोग शामिल हैं. 

ये कानून कहता है कि सरकार और स्थानीय प्रशासन इन दिक्कतों से ग्रस्त बच्चों को सरकारी मदद से चलने वाली सभी शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा मुहैया करवाएगा. उन्हें बिना किसी भेदभाव के दाखिला देगा, सभी के बराबर खेल और मनोरंजन की सुविधाएं उपलब्ध कराएगा. इमारत, कैंपस और अन्य सुविधाएं मुहैया करवाएगा. व्यक्ति विशेष की जरूरत के हिसाब से उचित व्यवस्था करेगा. 

उत्तम शैक्षणिक और सामाजिक विकास के लिए जरूरी सहयोग देगा. ये सुनिश्चित करेगा कि देख और सुन पाने में अक्षम बच्चों को उनके द्वारा समझी जाने वाली भाषा और तरीके में शिक्षा दी जाए. सीखने के क्रम में बच्चों के सामने आने वाली दिक्कतों को जल्द से जल्द समझ कर उसका उचित हल निकालेगा. ऐसे बच्चों को आने-जाने की उचित सुविधाएं और सहयोग देगा. हर पांच साल पर स्कूली बच्चों का सर्वे कर ऐसे बच्चों की पहचान करेगा जिन्हें विशेष सहयोग की जरूरत हो या जिनमें किसी तरह की अक्षमता हो. 

ऐसा सर्वे 2016 के इस कानून के लागू होने के दो साल के भीतर करना होगा ताकि ऐसे बच्चों के लिए शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं को स्थापित किया जा सके. साइन लैंग्वेज और ब्रेल में प्रशिक्षित शिक्षकों को ट्रेनिंग और नौकरी देना भी इस कानून का मकसद है.  अब सवाल ये है कि कानून तो बन गया है लेकिन इस पर अमल कितना होता है. क्या हमारी प्रशासनिक व्यवस्था और हमारा समाज शारीरिक अक्षमता से ग्रस्त लोगों की भावनाओं के प्रति संवेदनशील है. शारीरिक तौर पर अक्षम लोगों को सम्मान का वही अधिकार है जो हमें और आपको है. 

देश भर में कई जगहों पर आज विकलांगों ने प्रदर्शन किए हैं. इनका कहना है कि हमारे लिए आरक्षित नौकरियां भी समय से नहीं मिलती हैं और न ही वेकेंसी आती हैं. सरकार कहती है कि विकलांगता का आरक्षण बढ़ा दिया गया है लेकिन नौकरियां कहां आ रही हैं. एक अच्छा सुझाव आया है विकलांगों के लिए क्यों नहीं अलग से परीक्षा होती है. रेलवे में ही चुनावों के समय भर्ती निकली थी मगर विकलांग अपनी समस्या को लेकर कई दिनों से दिल्ली के मंडी हाउस पर प्रदर्शन कर रहे थे. कोई उन्हें पूछने तक नहीं गया. 

एक मसला पेंशन का है. केंद्र विकलांगता पेंशन के लिए अपना हिस्सा कितना देती है, आप जानकर हैरान रह जाएंगे. मात्र 300 रुपये. जबकि दिल्ली सरकार 2500. कई राज्यों में 500 भी हैं. विकलांगों का कहना है कि हमें उपकरण बांट कर नेता फोटो खिंचा लेते हैं मगर उपकरण ही एकमात्र जरूरत नहीं हैं. हमें अवसर भी मिलना चाहिए. 

यह बात ठीक लगी क्योंकि हाथ से खींचने वाला रिक्शा या स्कूटर बांटकर कुछ मदद तो होती है लेकिन अवसरों में समानता होनी चाहिए. स्कूल में एडमिशन से लेकर जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी बराबरी की भागीदारी होनी चाहिए. विकलांगता के साथ कई बीमारियां भी जुड़ी होती हैं जिनका खर्चा अक्सर बस की बात नहीं होता है. जैसे मस्क्युलर डिस्ट्रोफी

लिहाजा जरूरी है कि RPWD Act 2016 को सख्ती से अमल में लाया जाए. समाज को ऐसे लोगों की जरूरतों के प्रति संवेदनशील बनाया जाए. सभी सरकारी विभाग ऐसी संवेदनशीलता बढ़ाने के लिए कार्यक्रम चलाएं. इससे जुड़े कानून के उल्लंघन के लिए सजा और पैनाल्टी हो. प्रभावितों के रोजगार और पुनर्वासी के लिए कार्यक्रम बनाए जाएं. शिक्षा देना महज औपचारिकता न हो, उस पर गंभीरता से अमल किया जाए.और इस काम में सिर्फ सरकारी ही नहीं निजी संस्थाओं की भी भूमिका सुनिश्चित की जाए.

दिल्ली सरकार ने पिछले ही महीने नए ऐक्ट के हिसाब से Disability पर रिसर्च के लिए छह सदस्यों की एक राज्य स्तरीय कमेटी बनाई है. ये कमेटी Disability से जुड़ी हर रिसर्च की निगरानी करेगी. मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज के डीन इसके चेयरपर्सन होंगे और ये कमेटी तीन साल के लिए होगी. इसी ऐक्ट के निर्देशों के मद्देनजर दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग ने हर जिले में नोडल ऑफीसर्स की नियुक्ति की है जो सरकारी स्कूलों और सरकारी मदद से चलने वाले स्कूलों में शारीरिक और मानसिक तौर पर विशेष क्षमता वाले बच्चों से जुड़े सभी मामलों को देखेगी. ये नोडल ऑफिसर अपने तहत आने वाले सभी स्कूलों में दाखिल ऐसे बच्चों की तिमाही रिपोर्ट शिक्षा निदेशालय को भेजेंगे.

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