भारत में कोरोना से कितने मरे, 42 लाख या 3 लाख?

न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक आंकलन कर बताया है कि इस साल जनवरी तक भारत में कोविड से मरने वालों की संख्या 42 लाख से भी अधिक हो सकती है. दूसरी लहर की गिनती नहीं है. राहुल गांधी ने इस खबर का लिंक ट्विटर पर साझा कर दिया तो स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन नाराज़ हो गए. उन्होंने लिख दिया कि लाशों पर राजनीति कांग्रेस स्टाइल. पेड़ों पर से गिद्ध भले ही लुप्त हो रहे हों, लेकिन लगता है उनकी ऊर्जा धरती के गिद्धों में समाहित हो रही है.

न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक आंकलन कर बताया है कि इस साल जनवरी तक भारत में कोविड से मरने वालों की संख्या 42 लाख से भी अधिक हो सकती है. दूसरी लहर की गिनती नहीं है. राहुल गांधी ने इस खबर का लिंक ट्विटर पर साझा कर दिया तो स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन नाराज़ हो गए. उन्होंने लिख दिया कि लाशों पर राजनीति कांग्रेस स्टाइल. पेड़ों पर से गिद्ध भले ही लुप्त हो रहे हों, लेकिन लगता है उनकी ऊर्जा धरती के गिद्धों में समाहित हो रही है. राहुल गांधी को दिल्ली से अधिक न्यूयार्क टाइम्स पर भरोसा है. लाशों पर राजनीति करना कोई धरती के गिद्धों से सीखें. गिद्धों को लेकर स्वास्थ्य मंत्री की जानकारी ठीक नहीं है. उन्हें पता नहीं है कि उन्हीं की सरकार ने गिद्धों को बचाने के लिए पांच साल का एक एक्शन प्लान बनाया है. यह कार्यक्रम 2006 से चल रहा है. स्वास्थ्य मंत्री ने गिद्धों के प्रति जिस घृणा का प्रदर्शन किया है वह अफसोसनाक है.

आसमान में उड़ते गिद्धों को नहीं मालूम कि मोदी सरकार के मंत्री डॉ हर्षवर्धन उनके बारे में क्या राय रखते हैं. ठीक उसी तरह डॉ हर्षवर्धन को नहीं मालूम कि उनके सरकार के पर्यावरण मंत्री ने गिद्धों को बचाने और उनकी संख्या बढ़ाने के लिए पांच साल का एक एक्शन प्लान बनाया है. 16 नवंबर 2020 को इसे लांच किया गया और जावडेकर ने ट्वीट भी किया था. मालूम होता तो डॉ हर्षवर्धन राहुल गांधी के ट्वीट की आलोचना में गिद्धों पर ऐसी टिप्पणी नहीं करते. एक्शन प्लान वाली रिपोर्ट में पर्यावरण राज्य मंत्री बाबुल सुप्रियो लिखते हैं कि भारत में गिद्धों के सामाजिक और सांस्कृति महत्व को कम शब्दों में इस तरह से रखा जा सकता है कि वे मृत जानवरों के मांस को खाकर पर्यावरण को साफ रखने का काम करते हैं. तो इस तरह कोविड की इस दूसरी लहर में टीका और मरने वालों की संख्या को लेकर तरह तरह के बयानों से अगर कोई झूठ साफ करने का काम करता है तो वह गिद्ध है और गिद्ध होकर भारत की संस्कृति की रक्षा करता है. कोई भी व्यक्ति जो सरकार के झूठे दावों को चुनौती देता है भारत की संस्कृति की रक्षा करने वाला गिद्ध कह सकता है और गौरव कर सकता है. एक्शन प्लान के अनुसार देश के पांच राज्यों में गिद्धों के प्रजनन केंद्र बनाएं जाएंगे जिनमें से एक राज्य उत्तर प्रदेश भी है.

अभी कुछ दिन पहले डॉ हर्षवर्धन ने वैज्ञानिक चेतना की चिन्ता में रामदेव को पत्र लिखा था, लेकिन गिद्धों के प्रति उनका नज़रिया बता रहा है कि उन्हें भी वैज्ञानिक नज़रिए को बेहतर करने की ज़रूरत है. Hope he doesn't mind and starts reading something about vultures. और ट्विटर पर गिद्ध वाली ट्वीट को pinned किया है उस पर विचार कर लें. वैसे थाली बजाना साइंटिफिक टेंपर नहीं था बल्कि साइंटिफिक टेंपर का पंचर कर देना था. अभी बात खत्म नहीं हुई है. शुरू हो रही है.

इस ट्वीट में डॉ हर्षवर्धन कहते हैं कि राहुल गांधी को न्यूयॉर्क टाइम्स पर भरोसा है दिल्ली पर नहीं. क्या स्वास्थ्य मंत्री यह कह रहे हैं कि जो दिल्ली कहे उसे सच मानना ही होगा? तो यही बात वो भारतीय मीडिया को भी कहना चाहेंगे? सबसे पहले दूसरी लहर में कोविड से मरने वालों की सरकारी संख्या को चुनौती तो भारतीय भाषाई अखबारों ने दी है. गुजरात के अखबारों ने दी. इसी को आधार बनाकर दुनिया भर के विद्वान मरने वालों की सही संख्या और सरकार के झूठ का विश्लेषण कर रहे हैं. क्या डॉ हर्षवर्धन भारतीय अखबारों की रिपोर्ट पर भरोसा करना चाहेंगे? किस दिल्ली पर भरोसा करें, खुद प्रधानमंत्री को ही आंकड़ों पर भरोसा नहीं लगता. क्या डॉ हर्षवर्धन को नहीं मालूम कि 15 मई को प्रधानमंत्री ने राज्यों से कहा है कि संख्या ज़्यादा है तो बताने से पीछे न हटें. ख्वाहमख्वाह गिद्धों को बदनाम कर दिया. डॉ हर्षवर्धन को कोई इतना ही बता दे कि पारसी समाज गिद्धों को कितनी आदरणीय निगाह से देखता है. जानना हो तो गुजरात के नवसारी ही चले जाएं. जहां पारसी समाज अंतिम संस्कार के लिए जाना पसंद करना है. वहां गिद्धों की कमी से चिन्तित रहता है.

मरने वालों की सही संख्या का पता लगाना गिद्ध होना नहीं है बल्कि सत्यमेव जयते के आदर्शों का पालन करना है. बालमीक रामायण के अरण्य कांड के पचासवें सर्ग का श्लोक संख्या तीन की याद दिलाना चाहता हूं. जिसमें जटायु कहते हैं हे दस मुख रावण मैं प्राचीन सनानत धर्म में स्थित, सत्य प्रतिज्ञ और महाबलवान गिद्धराज हूं. मेरा नाम जटायु है. भैया, इस समय मेरे सामने तुम्हें ऐसा निंदित कर्म नहीं करना चाहिए. गिद्धराज सत्य प्रतिज्ञ हैं, सत्य के साथ खड़े हैं और निंदित कर्म का विरोध कर रहे हैं. सबको पता है कि सरकार ने मरने वालों की संख्या सही नहीं बताई है. हर किसी को गिद्ध बन कर उस पर सवाल करना चाहिए. दुनिया भर के विद्वान सरकारी दावों से अलग अखबारों में छपी खबरों और अन्य माध्यमों से आंकड़ा लेते हैं. क्योंकि सरकारें झूठ बोलती हैं. फर्ज़ी डेटा देती हैं. इसे लेकर इमोशनल होने की क्या ज़रूरत है.

केरल एक ऐसा राज्य है जहां के अख़बारों में मरने वालों की सूचना और श्रद्धांजलि छापने की परंपरा है. इसके लिए किसी से पैसा नहीं लिया जाता है. हिन्दी प्रदेशों से निकलने वाले हिन्दी और अग्रेज़ी के अखबारों में श्रद्धांजलि छपवाने के पैसे देने होते हैं. मलयालम भाषा के अखबार वर्षों से प्रिट और आनलाइन संस्करणों में मुफ्त में श्रद्धांजलियां छापते रहे हैं. अख़बारों के हर ज़िला संस्करण में एक पन्ना श्रद्दांजलि और मरने वालों की सूचना का होता ही है. केरल के पाठकों के लिए यह देख कर रख देने वाला पन्ना नहीं होता है बल्कि उनकी नज़र इस पन्ने पर जाती ही जाती है. आप चाहें तो मलयालम मनोरमा, माध्यमम, मातृभूमि, केरला कौमुदी के किसी भी संस्करण को उठा कर देख सकते हैं. माध्ययम अखबार के एक पत्रकार ने बताया कि केवल सूचना देनी होती है, मरने वालों की सूचना छपेगी ही. मना कर ही नहीं सकते. यह एक तरह से केरल के अखबारों की पब्लिक सर्विस है. अगर परिवार चाहता है कि मौत का कारण कोविड लिखे तो अखबार लिखते हैं. नहीं बताता तो नहीं लिखते हैं. हमें इसकी जानकारी नहीं है कि इन अखबारों ने सरकारी आंकड़ों की तुलना में छपने वाली श्रद्धाजंलियों की संख्या को अधिक पाया या सही पाया.

डॉ हर्षवर्धन चाहें तो इनकी गिनती कर केरल सरकार के आंकड़ों को चुनौती दे सकते हैं लेकिन जानबूझ कर कोई इस मामले की तह तक नहीं जाना चाहता है. मगर रिसर्चर तो गिनती करेंगे. क्योंकि सही संख्या से ही आप कोविड या किसी भी महामारी से लड़ने की बेहतर तैयारी कर सकते हैं. Do you get my point. खराब प्लानिंग से कितने लोग मर गए और मार दिए गए यह जानना ज़रूरी है तभी आप आगे की सही प्लानिंग कर पाएंगे.

इंडियन एक्सप्रेस में चिन्मय तुंबे का एक लेख छपा है. चिन्मय बता रहे हैं कि 1918 में जब भारत में स्पेनिश फ्लू नाम की महामारी आई थी तब कितने लोग मरे थे उसकी संख्या को लेकर आज तक शोध हो रहे हैं. उस वक्त के सैनिटरी कमिश्नर नॉर्मन व्हाइट में इतनी ईमानदारी तो थी कि उसने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि भारत में साठ लाख लोग मरे होंगे, और संख्या इससे भी अधिक हो सकती है. 1921 में जब जणगनना हुई तो सर्वे करने वालों ने देखा कि गांव के गांव ख़ाली हो चुके हैं. तब अंदाज़ा लगाया गया कि साठ लाख नहीं, एक करोड़ से अधिक लोग मरे थे. चिन्मय तुंबे ने अपने शोध के दौरान पाया कि भारतीय उपमहाद्वीप में दो करोड़ लोग स्पेनिश फ्लू से मरे थे. सरकारी आंकड़ों से तीन गुना ज़्यादा. आबादी का छह प्रतिशत गायब हो गया.

दिव्य भास्कर ने 1 मार्च से 14 मई के बीच का डेटा खंगाल दिया. अखबार ने पाया कि पिछले साल के इन्हीं दिनों की तुलना में इस बार गुजरात में 65000 अधिक मौतें हुई हैं जबकि सरकारी आंकड़े के अनुसार इस दौरान 4000 ही मरे हैं. चिन्मय ने इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए जब 2019 का डेटा देखा तो पाया कि उस साल की तुलना में इस साल के मार्च अप्रैल और मई के कुछ महीनों में 43,000 अधिक लोग मरे हैं. सोचिए सरकार 3,992 बताती है और मरने वालों की संख्या 43000 है. मरने वालों की सरकारी संख्या को लेकर गंभीर चुनौती नहीं मिलती अगर गुजराती भाषा के अखबारों में शानदार रिपोर्टिंग न की होती. संदेश, दिव्य भास्कर, गुजरात समाचार और सौराष्ट्र समाचार ने धुन के रिपोर्टिंग की है. आज वही रिपोर्टिंग दुनिया भर की यूनिवर्सिटी में डेटा के अध्ययन के काम आ रही है. संदेश ने अपना मॉडल बना लिया और इसी के साथ पत्रकारिता के इतिहास में एक नई लकीर खींच दी.

संदेश अखबार में अप्रैल के महीने में श्रद्धांजलि की संख्या अचानक बढ़ गई. जहां पहले मुश्किल से एक पन्ना भी नहीं भरता था, आठ से दस पन्ने केवल श्रद्दांजलियों के छपने लगे. अखबार ने सही समय पर नोट कर लिया कि कोविड से मरने वालों की सरकारी संख्या सही नहीं. संवाददाताओं की टीम सिविल अस्पताल और शहर के तमाम श्मशानों में लगा दी गई. कोविड प्रोटोकोल से अंतिम संस्कार किए जाने वाले शवों की गिनती होने लगी और श्मशान के रिकार्ड छापे जाने लगे. इसके अलावा अखबार ने अपने सभी संवाददाता, ब्यूरो चीफ और वितरण के नेटवर्क से जुड़े लोगों को मरने वालों की संख्या की गिनती में लगा दिया. हर दिन एक ज़िले के पांच गांवों का चुनाव होता था और डेटा लिया जाने लगा. हर दिन संदेश ने तीन तरह का डेटा छापा. अस्पताल से बताया जाता था कि कोविड से इलाज के दौरान कितने मरे. फिर ज़िले में बनी डेथ ऑडिट कमेटी समीक्षा करती थी और कोविड से होने वाली मौतों को प्रमाणित करती थी. इस कमेटी की संख्या अस्पताल से काफी कम होती थी. और जब श्मशान में कोविड प्रोटोकोल से अंतिम संस्कार की गिनती होती थी तो वह संख्या अस्पताल और ऑडिट कमेटी की संख्या से अधिक होती थी. अप्रैल के महीने में राजकोट सिटी के चार श्मशान गृहों का डेटा डराने वाला था. ये श्मशान कोविड शवों के अंतिम संस्कार के लिए बने थे. संदेश अखबार ने पाया कि अप्रैल महीने में इन चार श्मशानों में 4000 से अधिक शवों का अंतिम संस्कार हुआ है. जबकि राजकोट सिटी का सरकारी डेटा 300 से भी कम का है. कई बार संवाददाताओं ने पाया कि 100 लोग मरते थे और सरकार बताती थी कि 10 लोग मरे हैं. 100 लोग को बताया जाता था 10 मरे, कई बार इससे भी कम. इस हिसाब से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि अगर कोविड से देश भर में तीन लाख मरे हैं तो मरने वालों की संख्या तीस लाख हो जाती है. इस बात को लेकर न्यूयार्क टाइम्स से नाराज़ होने की ज़रूरत नहीं बल्कि अपनी करतूत पर शर्मिंदा होने की राष्ट्रीय ज़रूरत है.

गुजराती अख़बारों के साथ गुजराती पाठकों की भी तारीफ़ बनती है. बेशक वहां के अखबार अपने पाठकों के साथ खड़े थे लेकिन उनके पाठकों ने भी अपने अख़बारों से गोदी मीडिया टाइप खबरों को बर्दाश्त नहीं किया. गुजराती पाठकों ने एक पाठक और नागरिक होने का स्वाभिमान बचाए रखा. क्या संदेश की इस रिपोर्टिंग पर मोदी सरकार के स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन गर्व करना चाहेंगे? सोच लीजिएगा छह करोड़ गुजरातियों के स्वाभिमान का सवाल है 28 अप्रैल को डॉ हर्षवर्धन ने कहा था कि कोविड से दुनिया भर में सबसे कम भारत में लोग मर रहे हैं.

19 अप्रैल को संदेश ने छापा कि 48 घंटे के भीतर गुजरात के सात बड़े शहरों में कोविट प्रोटोकोल से 1495 शवों का अंतिम संस्कार किया गया जबकि सरकार ने बताया कि इस दौरान 220 लोग मरे थे. 20 अप्रैल को संदेश ने छापा कि गुजरात के सात शहरों के कोविड श्मशान गृहों में 672 लोगों का अंतिम संस्कार हुआ जबकि सरकार ने बताया है 88. सरकार ने 7 गुना कम बताया है.

आपको यह भी बता दें कि न्यूयार्क टाइम्स ने भारत मे कोविड से मरने वालों की संख्या का अनुमान जनवरी महीने तक के आंकड़ों के आधार पर निकाला है कि भारत में कोविड से 42 लाख लोग मरे होंगे. नीति आयोग के सदस्य डॉ वी के पॉल ने कहा है कि न्यूयार्क टाइम्स के विश्लेषण का आधार ग़लत है.
 
ऐसा नहीं है कि अमरीका में आधिकारिक आंकड़ों को चुनौती नहीं दी जाती. वहां की कई यूनिवर्सिटियां ऐसा करती हैं. वाशिंगटन यूनिवर्सिटी की संस्था Institute for health metrics and health evaluation की वेबसाइट पर जाकर देख सकते हैं कि न्यूयार्क स्टेट में मरने वालों की संख्या 64000 होगी जबकि आधिकारिक आंकड़ा 42,000 का है. न्यूयार्क टाइम्स ने हवा में सर्वे नहीं किया है. अखबार के एक्सपर्ट ने साफ साफ कहा है कि सीरो सर्वे ही एकमात्र आधार नहीं है. भारत में कई कारणों से मौत की कम रिपोर्टिंग होती है. अखबार ने यह भी लिखा है कि भारत में 5 में से 4 मौतों की चिकिस्तीय जांच नहीं होती है. क्या ये सही नहीं है कि भारत में टेस्टिंग नहीं होता है. दिल्ली में ही लोगों को अप्रैल के महीने में टेस्टिंग कराने में दिक्कत हुई और कई लोग नहीं करा सके. क्या यह सही नहीं है कि भारत में मृत्यु का आंकड़ों को चुनौती न्यूयार्क टाइम्स से पहले संदेश और दिव्य भास्कर जैसे अखबारों ने दी. हमारे ही सहयोगी अनुराग द्वारी ने भोपाल के श्मशान और कब्रिस्तान के रिकार्ड से सरकारी आंकड़ों के सामने बड़ी संख्या पेश कर दी. क्या सरकार सीरो सर्वे पर भरोसा करती है? इसी आलोचना में कहती है कि मरने वालों की संख्या सही है, सीरो सर्वे में संक्रमित मरीज़ों की संख्या के बढ़ने से नहीं बदलती है. क्या ऐसा हो सकता है? वी के पॉल संदेश के उस डेटा पर क्या कहना चाहेंगे, जिसमें बताया गया है कि 19 अप्रैल को 48 घंटे के भीतर कोविड प्रोटोकोल से 1495 शवों का अंतिम संस्कार होता है और सरकार मरने वालों की संख्या 220 बताती है. 6 गुना कम. संदेश के राजकोट संस्करण के संपादक जयेश ठकरार से बात करते हैं.
 
गुजरात में जब अखबारों के कारण सवाल ज़ोर पकड़ा कि गांवों में भी लोग मर रहे हैं तो सरकार ने कोविड सेंटर खोलने की घोषणा कर दी. करीब हज़ार सेंटर खोलने के दावे किए गए हैं. वहां के अखबार लिख रहे हैं कि बहुत सारे सेंटर तो स्कूल के कमरे खोल कर बना दिए गए जहां कुछ भी सुविधा नहीं थी.

यह वीडियो भी ऐसे ही एक ग्रामीण कोविड सेंटर का है. संदेश न्यूज़ चैनल का है. आप देख सकते हैं कि कोविड सेंटर के नाम पर यह सेंटर बिहार और यूपी से आने वाली प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों की तस्वीरों को भी मात दे रहा है. फाइव ट्रिलियन इकानमी बनने की जल्दी में हम गांवों में यही इंतज़ाम कर पाए हैं. गुजरात मॉडल पर देश के गांव गांव में लोग आज भी फिदा हैं. यह सेंटर भी गुजरात के एक गांव का ही हैं. गोदाम के बगल में ही सुविधा दे दी गई है. यकीन हो रहा है कि कोविड से हम मिल कर लड़ रहे हैं. कभी मौका मिले इन ग्रामीणों से मिल आइयेगा. तारीफ करने के इंतज़ार में बेकरार हैं. पता भी बता देता हूं, राजकोट ज़िले के चरानिया गांव है, जेतपुर के पास है.

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सत्यमेव जयते वाले भारत में झूठ की विजय पताका लहरा रही है. आपके परिचितों में लोग मरे हैं सरकार उनकी गिनती कोविड से होने वाली मौतों मे नहीं गिन रही है. यह कितना भयावह है. मौत की जानकारी आपको है, सरकार कहती है आपकी जानकारी गलत है. इस झूठ के साथ क्या आप अपनों को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं? है जवाब आपके पास..