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अस्पतालों के चक्कर और सिस्टम से हारा फौजी पिता, फिर मासूम ने तोड़ा दम, रूला देगी उत्तराखंड की ये कहानी

हल्द्वानी में शुभम को वेंटिलेटर पर रखा गया, लेकिन 16 जुलाई को डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया. दिनेश जोशी ने एनडीटीवी से बातचीत में सिस्टम पर गंभीर सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि एक सैनिक के रूप में वे 144 करोड़ देशवासियों की सुरक्षा करते हैं, लेकिन अपने बेटे को नहीं बचा सके.

अस्पतालों के चक्कर और सिस्टम से हारा फौजी पिता, फिर मासूम ने तोड़ा दम, रूला देगी उत्तराखंड की ये कहानी
  • उत्तराखंड के ग्वालदम के एक गांव में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण डेढ़ साल के शुभम जोशी की मृत्यु हो गई.
  • शुभम के पिता दिनेश चंद्र जोशी ने बेटे के इलाज के लिए पांच अस्पतालों का लगभग 180 किलोमीटर का सफर किया.
  • बागेश्वर जिला अस्पताल में डॉक्टरों की लापरवाही और नर्सों के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार से इलाज में देरी हुई.
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उत्तराखंड के ग्वालदम के एक सुदूर गांव में स्वास्थ्य सुविधाओं की बदहाल स्थिति ने एक डेढ़ साल के मासूम बच्चे शुभम जोशी की जान ले ली. शुभम के पिता दिनेश चंद्र जोशी, जो सेना में देश की सरहदों की रक्षा करते हैं, अपने बेटे को बचाने के लिए पांच अस्पतालों के चक्कर काटते रहे. लेकिन कहीं भी उचित इलाज नहीं मिला. सिस्टम की इस लापरवाही ने एक परिवार के चिराग को बुझा दिया.

अस्पतालों में इलाज के के नाम पर रेफर
शुभम की तबीयत अचानक बिगड़ने पर परिजन उसे ग्वालदम अस्पताल ले गए, जहां सुविधाओं के अभाव में इलाज नहीं हो सका. वहां से उसे बैजनाथ अस्पताल रेफर किया गया, लेकिन वहां भी कोई इलाज नहीं मिला. इसके बाद परिजन बागेश्वर जिला अस्पताल पहुंचे, जहां दिनेश के अनुसार डॉक्टर मोबाइल पर व्यस्त थे और नर्सें आपस में हंसी-मजाक कर रही थीं. इमरजेंसी में भी डॉक्टर ने शुभम का ठीक से इलाज नहीं किया और उसे अल्मोड़ा रेफर कर दिया. बागेश्वर में दो घंटे (शाम 7 से 9 बजे) तक एंबुलेंस नहीं मिली. 9:30 बजे एंबुलेंस मिलने पर परिजन अल्मोड़ा पहुंचे, जहां डॉक्टरों ने बच्चे का इलाज किया और व्यवहार भी अच्छा रखा, लेकिन हालत गंभीर होने के कारण उसे हल्द्वानी रेफर कर दिया गया.

'अपने बेटे को नहीं बचा सके...'
हल्द्वानी में शुभम को वेंटिलेटर पर रखा गया, लेकिन 16 जुलाई को डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया. दिनेश जोशी ने एनडीटीवी से बातचीत में सिस्टम पर गंभीर सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि एक सैनिक के रूप में वे 144 करोड़ देशवासियों की सुरक्षा करते हैं, लेकिन अपने बेटे को नहीं बचा सके. बागेश्वर में दो एंबुलेंस मौजूद होने के बावजूद समय पर नहीं दी गईं. अगर जिलाधिकारी को फोन न किया होता, तो शायद एंबुलेंस भी नहीं मिलती.

'डॉक्टरों की लापरवाही पर क्या कार्रवाई होती है?'
दिनेश ने पूछा कि इमरजेंसी में सैनिक से ज्यादा कौन समझ सकता है? अगर एक सैनिक ड्यूटी में चूक करे, तो उसका कोर्ट मार्शल होता है. लेकिन स्वास्थ्य विभाग के डॉक्टरों और कर्मचारियों की लापरवाही पर क्या कार्रवाई होती है? 180 किलोमीटर तक पांच अस्पतालों का सफर करने के बावजूद शुभम को बचाया नहीं जा सका.

स्वास्थ्य विभाग को हर साल करोड़ों का बजट मिलता है, लेकिन यह पैसा कहां जाता है? अगर डॉक्टरों की तैनाती, बुनियादी ढांचा और चिकित्सा सुविधाएं समय पर उपलब्ध होतीं, तो शायद शुभम आज अपने परिवार के साथ होता. दिनेश का कहना है कि जब एक सैनिक और उसके परिवार को सम्मान और सुविधा नहीं मिलती, तो आम नागरिक की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है. यह घटना स्वास्थ्य सेवाओं की जमीनी हकीकत को उजागर करती है और सिस्टम की जवाबदेही पर गंभीर सवाल उठाती है.

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