अरुण जेटली को कैसे समझ आ गया एक GST रेट, क्या आप समझ पाए...?

जुलाई, 2017 में GST लागू होता है. राहुल गांधी तरह-तरह के टैक्स और अधिक टैक्स को लेकर विरोध शुरू करते हैं. एक टैक्स की मांग करते हैं.

अरुण जेटली को कैसे समझ आ गया एक GST रेट, क्या आप समझ पाए...?

वित्त मंत्री अरुण जेटली (फाइल फोटो)

4 अगस्त, 2016 को हमने एक लेख लिखा था. उस हफ्ते राज्यसभा में GST को लेकर बहस हुई थी. कांग्रेस और BJP के नेताओं की बहस को सुनते हुए मैंने लिखा था, "राज्यसभा में वित्तमंत्री अरुण जेटली और पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम की भाषा और देहभाषा ऐसी थी, जैसे दोनों एक चैप्टर पढ़कर आए हों और उसे अपना पर्चा बताने का प्रयास कर रहे हों... दोनों के भाषणों में चंद भाषाई असहमतियों के साथ व्यापक सहमति का इज़हार हो रहा था..." हिन्दी के पाठकों के लिए और ख़ुद समझने के लिए इंटरनेट पर उपबल्ध कई सामग्रियों का अध्ययन कर यह लेख लिखा था. चार नए पैराग्राफ इसमें जोड़े हैं, इस कारण लेख लंबा हो गया है. उस वक्त हिन्दी के पाठकों के लिए काफी रिसर्च के बाद लिखा था. आप पूरा पढ़ें, तो अच्छा रहेगा.

जुलाई, 2017 में GST लागू होता है. राहुल गांधी तरह-तरह के टैक्स और अधिक टैक्स को लेकर विरोध शुरू करते हैं. एक टैक्स की मांग करते हैं. इसके जवाब में वित्तमंत्री अरुण जेटली ट्वीट करते हैं, "राहुल गांधी भारत में एक GST टैक्स की वकालत कर रहे हैं, यह बुनियादी रूप से गलत आइडिया है. एक GST टैक्स उसी देश में काम कर सकता है, जहां सारी आबादी एक जैसी हो और भुगतान करने की क्षमता काफी अधिक हो..." अब वही अरुण जेटली एक साल के भीतर ज्ञान दे रहे हैं, "GST में अगले चरण का जो सुधार होगा, वह 15 प्रतिशत के मानक टैक्स रेट में बदलने को लेकर होगा... अभी जो 12 और 18 प्रतिशत का टैक्स है, उसका बीच का बिन्दु होगा..."

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अरुण जेटली के दोनों बयानों का स्क्रीनशॉट लगा रहा हूं. एक साल में ही एक GST टैक्स को लेकर इतनी समझदारी कहां से आ गई है. पहले में वह राहुल गांधी को मूर्ख बता रहे हैं और दूसरे में ख़ुद को विद्वान. जब आप मेरे पुराने लेख को पढ़ेंगे, तो दो बातें देखने को मिलेंगे. पहली कि GST रेट शुरू होता है एक टैक्स से और बाद में कई टैक्स आ जाते हैं या बढ़ने लगते हैं. दूसरा कि कई टैक्स से शुरू होकर एक टैक्स की ओर जाता है. इसका मतलब है कि एक टैक्स को लेकर इसकी कोई ठोस समझ नहीं है. शायद जनता का मूड देखकर टैक्स के प्रति समझदारी आती है.

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'बिजनेस स्टैंडर्ड' ने अपने संपादकीय में एक GST टैक्स के ऐलान का स्वागत किया है. संपादकीय में लिखा है कि 18 राज्य ऐसे हैं, जो GST टारगेट से पीछे चल रहे हैं. केंद्र के स्तर पर पिछले साल की तुलना में इस साल प्रतिमाह GST संग्रह अच्छा है, मगर सरकार ने बजट में जो टारगेट रखा था, उससे बहुत दूर हैं. 2018 में सिर्फ अप्रैल और अक्टूबर में एक लाख करोड़ का GST संग्रह हुआ था. 2018-19 के पहले आठ महीनों में 7 लाख 76 हज़ार करोड़ GST जमा हुआ है, जो अपने सालाना टारगेट का मात्र 58 फीसदी है.

मलेशिया में GST ज़्यादा दिन नहीं चला. लागू होने के दो साल के भीतर हटा दिया गया, जबकि वहां एक टैक्स था. छह फीसदी GST. वहां नई सरकार चुनाव इसी मुद्दे पर जीती कि आते ही GST हटा देंगे. भारत के वित्तमंत्री अब भी 15 प्रतिशत GST की बात कर रहे हैं. दूसरा GST को लेकर इस तरह के बकवास से दूर रहें कि इससे रोज़गार बढ़ता है, ग़रीबी दूर होती है और अर्थव्यवस्था में तेज़ी आ जाती है. ऐसा कुछ नहीं होता है. आएदिन रिपोर्ट आती है कि दुनिया की 25 विकसित अर्थव्यवस्थाओं में दो तिहाई परिवारों की वास्तविक आय घटी है या जस की तस रह गई है. सिर्फ दो प्रतिशत परिवारों की वास्तविक आय बढ़ी है.

अब आप इस पैराग्राफ के बाद अगस्त, 2016 में लिखे मेरे लेख को पढ़ें. मैं कोई एक्सपर्ट नहीं हूं, मैं भी तमाम लेखों के ज़रिये आपकी तरह समझने का प्रयास कर रहा हूं. दो साल पहले के इस लेख को पढ़ते हुए आप समझ पाएंगे कि अरुण जेटली एक GST टैक्स की बात कर न तो नई बात कह रहे हैं और न ही जनता को राहत दे रहे हैं.

भारत ने भी GST लागू करने में लंबा वक्त लिया. ऑस्ट्रेलिया ने तो 1975 से चर्चा शुरू की और लागू किया 2000 में. भारत जिस GST को ऐतिहासिक बता रहा है, वह सबसे पहले फ्रांस में 1954 में लागू हुआ था. अप्रैल, 2016 में मलेशिया ने GST लागू किया. न्यूज़ीलैंड में 1986 में लागू हुआ. 1991 में कनाडा और दक्षिण अफ्रीका में लागू हो चुका है. 140 से ज़्यादा देश GST लागू कर चुके हैं. अमेरिका में GST नहीं है.

GST मूलतः एक उपभोग कर है. GST अंतिम उपभोक्ता देता है. इसे 1950 के दशक से दुनिया भर में इनकम टैक्स के विकल्प के रूप में लाया जा रहा है. मौजूदा दौर में पूंजी कहीं ठहरती नहीं है. वह एक देश से दूसरे देश में रातोंरात चली जाती है. दिन में सेंसेक्स धड़ाम से गिर जाता है और इस आवाजाही से सरकार को राजस्व को भारी नुकसान होता है. इसलिए पूंजी को आकर्षित करने और रोककर रखने के लिए टैक्स और ब्याज़ दरों में कई प्रकार की छूट दी जाती है. फिर भी पूंजी की यह प्रकृति नहीं बदल पाई है.

लिहाज़ा इसकी भरपाई का यह आइडिया निकाला गया कि अगर सभी उत्पादों के उपभोग पर GST के नाम से एक टैक्स लगा दें, तो टैक्स वसूली का आधार व्यापक होगा. GST लागू करते समय यही बताया जाता है कि एक समान और स्थायी टैक्स है. मगर आगे आप पढ़ेंगे कि कैसे सरकारों ने GST की दरें बढ़ाने की तरकीबें निकाली हैं, ताकि कॉरपोरेट का टैक्स कम होता चला जाए. उन्हें पैकेज दिया जा सके. जिनकी संस्थानिक और व्यक्तिगत कमाई ज्यादा है, उन्हें राहत देकर आम और ग़रीब जनता पर समान रूप से टैक्स लाने का सिस्टम लाया गया है. जो ज़्यादा कमाएगा, वह कम टैक्स दे और जो कम कमाता है, वह एक समान टैक्स के नाम पर ज़्यादा टैक्स दे. सबने कहा कि GST से तीन साल महंगाई आती है. मैंने कहीं नहीं पढ़ा कि महंगाई सिर्फ तीन साल के लिए आती है. बल्कि यही पढ़ा कि महंगाई आती है.

न्यूज़ीलैंड का GST सबसे उत्तम श्रेणी का माना जाता है. यहां पर किसी भी उत्पाद को GST के दायरे से बाहर नहीं रखा गया है. GST की दर एक है और सब पर लागू है. भारत की तरह तीन प्रकार की GST नहीं है. न्यूज़ीलैंड के सामने भारत की तरह अलग-अलग राज्य व्यवस्था की चुनौती नहीं है. जैसे भारत में शराब, तंबाकू और पेट्रोल को GST से बाहर रखा गया है. ऑस्ट्रेलिया की तरह भारत में शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य बुनियादी सेवाओं को बाहर नहीं रखा गया है. GST का समान टैक्स लागू होने से सर्विस टैक्स बढ़ेगा और स्वास्थ्य और शिक्षा और महंगे हो जाएंगे.

जहां भी GST लागू हुआ है, वहां कुछ साल तो एक टैक्स होता है, मगर उसके बाद बढ़ाने की प्रक्रिया शुरू होती है. न्यूज़ीलैंड में GST 1986 में 10 फीसदी था, पहले बढ़कर 12.5 फीसदी हुआ और फिर 15 फीसदी हो गया. ऑस्ट्रेलिया में सन 2000 से 10 फीसदी है और वहां खूब बहस चल रही है कि इसे बढ़ाकर 15 फीसदी या उससे भी अधिक 19 फीसदी किया जाए. ब्रिटेन ने हाल ही में GST की दर बढ़ाकर 20 फीसदी कर दी है.

30 मुल्कों का एक संगठन है OECD (Organization of Economic Co-Operation and Development). पिछले पांच सालों में 30 में से 20 सदस्य देशों ने अपने यहां GST की दरें बढ़ाईं हैं. OECD के अनुसार 21 देशों ने 2009 से 2011 के बीच GST रेट को बढ़ाकर 17.6 से 19.1 किया है, जबकि GST की मूल अवधारणा यह है कि सब पर टैक्स लगे. सब पर कम टैक्स लगे. मगर बाद में धीरे-धीरे उपभोक्ताओं से वसूली होने लगती है, इसीलिए भारत में कांग्रेस कह रही है कि 18 फीसदी अधिकतम टैक्स का प्रावधान संविधान में जोड़ा जाए. मोदी सरकार इसलिए जोड़ने से मुकर रही है कि दुनिया में जहां भी GST लागू हुआ है, वहां कुछ साल के बाद GST बढ़ाने की नौबत आई है.

GST बढ़ाने की नौबत क्यों आती है...? जो मुझे समझ आया, वह इसलिए, क्योंकि GST के नाम पर कॉरपोरेट टैक्स कम किया जाता है. अमीर लोगों के इनकम टैक्स कम होते हैं. सरकार को कम राजस्व मिलता है. इसे छिपाने के लिए सरकार बताने लगती है कि कुल राजस्व में GST की भागीदारी बहुत कम है, इसलिए GST की दर बढ़ाई जा रही है. ऑस्ट्रेलिया में GST से कुल राजस्व का 23 फीसदी टैक्स ही आता है. एक जगह पढ़ा कि ऑस्ट्रेलिया के कुल राजस्व में GST का हिस्सा 12.1 फीसदी है. जापान में 19.5 फीसदी है. ऑस्ट्रेलिया में सरकार ने दावा किया है कि कर वसूली कम होने से पिछले 10 साल में शिक्षा और स्वास्थ्य में 80 अरब ऑस्ट्रेलियन डॉलर की कटौती की गई है. अगर GST से राजस्व ज़्यादा आता, तो शिक्षा और स्वास्थ्य में कटौती क्यों करनी पड़ी. भारत में भी राजस्व के बढ़ने का दावा किया जा रहा है. कहीं भी नौकरी बढ़ने का ज़िक्र तक नहीं मिला.

ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और न्यूज़ीलैंड के बारे में मैंने पढ़ा कि वहां GST लागू होने के साथ-साथ इनकम टैक्स में भी कमी की गई है, ताकि सामान्य आयकरदाता चीज़ों के दाम बढ़ने का झटका बर्दाश्त कर सके. भारत में आयकर में कटौती की कोई चर्चा तक नहीं कर रहा है. उल्टा वित्तमंत्री पिछले दो बजट से कॉरपोरेट टैक्स घटाने का ही ऐलान किए जा रहे हैं. तो क्या यह GST बड़े कॉरपोरेट और उच्च वर्गों को लाभ पहुंचाने के लिए आ रहा है.

ऑस्ट्रेलिया में एक अध्ययन यह भी हुआ कि GST लागू होने से वहां के छोटे उद्योगों पर क्या असर पड़ा है. पाया गया है कि शुरुआती दौर में GST लागू कराने के लिए सॉफ्टवेयर, कंप्यूटर, खाता-बही विशेषज्ञ रखने, फ़ार्म भरने में लगे कई घंटे इत्यादि इन सब पर खर्च काफी बढ़ गया, लेकिन बाद में उन्हें लाभ हुआ है. ज़ाहिर है, GST से बिजनेस की प्रक्रिया सरल होती है. यह बिजनेस के लिए ज़रूरी है. मगर इससे आम आदमी का जीवन आसान नहीं होता है. ग़रीबी दूर नहीं होती है. बल्कि इन सबके नाम पर बड़े बिजनेस को बड़ा पैकेज मिलता है. आज के 'फाइनेंशियल एक्सप्रेस' में एक रिपोर्ट छपी है कि GST के आने से भारत के बड़े उद्योगों को सबसे अधिक लाभ होगा. जब सदन में बहस होती है, तब यह क्यों नहीं कहा जाता है कि बड़े उद्योगों को काफी फायदा होगा. क्यों कहा जाता है कि GST ग़रीबों के लिए है. आम बिजनेसमैन के लिए है.

हर जगह यह बात आई कि GST से ग़रीबों पर मार पड़ती है. न्यूज़ीलैंड ने इसका उपाय यह निकाला है कि वह ग़रीबों को कई तरह की आर्थिक मदद देता है. डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के ज़रिये. भारत में भी इसकी वकालत हो रही है. मगर आप देखेंगे कि कई जगहों पर इस इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम के नाम पर बड़ी संख्या में ग़रीबों को अलग भी किया जा रहा है. न्यूज़ीलैंड में GST को समझने वालों का कहना है कि इसकी कामयाबी तभी है, जब राजनीतिक दबाव में किसी आइटम को GST से बाहर नहीं किया जाए. जब हर चीज़ पर टैक्स लगाएंगे, तभी ज़्यादा राजस्व आएगा.

ऑस्ट्रेलिया की आर्थिक पत्रकार जेसिका इर्विन ने लेख लिखा है, जो इंटरनेट पर मौजूद है. उन्हीं के लेख में पीटर डेविडसन नाम के टैक्स एक्सपर्ट का कहना है कि जैसे ही आप इनकम टैक्स से GST की तरफ कदम बढ़ाते हैं, समाज में असामनता बढ़ने लगती है. न्यूज़ीलैंड में 30 वर्षों में आर्थिक असामनता बढ़ी है. मतलब ग़रीबों की संख्या बढ़ी है और ग़रीबों की ग़रीबी बढ़ी है. GST से ग्रोथ रेट बढ़ने का कोई स्पष्ट आधार तो नहीं मिलता, मगर यह ज़रूर पता चलता है कि इससे असमानता बढ़ती है. ज़्यादा सवालों के साथ देखने-परखने से नए सिस्टम के प्रति विश्वास भी बढ़ सकता है और आशंका भी. एक नागरिक के लिए ज़रूरी है कि ऐतिहासिकता का आवरण लिए आ रही नई व्यवस्था की व्यावहारिकता को परखता रहे. इसी में सबकी भलाई है.

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