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This Article is From Aug 26, 2017

‘मकान’ में तब्दील होते ‘घर’..सावधान होने का वक्त आ गया

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 26, 2017 04:16 am IST
    • Published On अगस्त 26, 2017 04:16 am IST
    • Last Updated On अगस्त 26, 2017 04:16 am IST
तब के कलकत्ता और आज के कोलकोता पर एक शायर ने क्या खूब कहा था कि - फुटपाथ पर सोये हुए ये सोच रहे हैं, घर जिनके सलामत हैं, वे घर क्यों नहीं आते. इन पंक्तियों में घर की समस्या मुम्बई में घर की उस समस्या से अलग है, जिसमें एक गीतकार ने लिखा है - दो दिवाने शहर में, रात में दोपहर में, आशियाना ढूंढते हैं, आबो दाना ढूंढते हैं.

कोलकोता में घर तो हैं, लेकिन शायद वे सही-सलामत नहीं हैं. तभी तो बड़े-बड़े घरों के मालिक रात में फुटपाथ पर घूम रहे हैं. अन्यथा वे ऐसा क्यों करते? मैं जानता हूं कि आप निश्चित रूप से यह सोच रहे होंगे कि आखिर मेरे इस ‘घर-राग’ के अलापने का संदर्भ क्या है? इसके लिए मैं आपके सामने हाल ही में घटी तीन घटनाओं को प्रस्तुत कर रहा हूं, और ये तीनों घटनाएं काफी चर्चित भी रही हैं.

पहली घटना हमारे देश के हजारों करोड़ के मालिक रहे एक उद्योगपति से जुड़ी हुई है. ये उद्योगपति अभी किराये के मकान में रह रहे हैं. इसलिए नहीं कि उनका दिवाला निकल गया है. बल्कि इसलिए कि उनके प्रिय बेटे ने उन्हें उनके और अपने आर्थिक साम्राज्य से बेदखल कर दिया है.

दूसरी घटना भी मुम्बई की है, और एक अरबपति महिला से संबंधित है. यह महिला मुम्बई के धनी इलाके के अपने करोड़ों के फ्लैट में बुरी तरह कंकाल में तब्दील पाई गई. इस बात का पता तब चला, जब विदेश में बहुत बड़ी नौकरी कर रहा उनका बेटा सालों बाद मुम्बई आया. इस दौरान बेटे ने कभी मां से बात ही नहीं की थी. इसलिए उसे पता ही नहीं था कि ‘‘अब मेरी मां नहीं रही.’’

तीसरी घटना एक युवा आईएएस अफसर की है. उसे हिंदुस्तान की इस सबसे दमदार नौकरी में आए हुए केवल पांच साल हुए थे, और कलेक्टर का पद सम्हाले दो ही दिन हुए थे कि ट्रेन के सामने आकर उसने अपनी इहलीला समाप्त कर दी. अपने अंतिम वीडियो में इस होनहार युवा ने इसका कारण पत्नी के कारण घर में उत्पन्न असहनीय तनाव की स्थिति को बताया.

आप इन तीनों को एक साथ रखकर उनमें वह तथ्य ढूंढने की कोशिश कीजिए, जो तीनों में हो, लेकिन प्रत्यक्ष रूप से दिखाई न दे रहा हो. आपकी आप जानें, लेकिन मुझे जो तथ्य दिखाई पड़ा, वह था ‘मकान.’ तीनों की मूल समस्या मुझे यह लगी कि तीनों के पास मकान तो हैं.. आलीशान मकान हैं, लेकिन ‘घर’ नहीं हैं. मकान हमें नहीं बुलाता, घर बुलाता है. मकान हमारा इंतजार नहीं करता, घर करता है. हमारी अनुपस्थिति में बेचैनी घर को होती है, मकान को नहीं. और यही सोच-सोचकर सुकून का एहसास होता रहता है कि ‘‘कोई कहीं मेरे लिए, उदास बेकरार है.’’ घर के प्रति यही सोच हमें अपनी ओर खींचती है, और हम वहां चले ही नहीं जाते, बल्कि रह भी जाते हैं.

ऊपर की इन तीनों घटनाओं की, जिसका छोटा-मोटा टुकड़ा हम सबके भीतर भी मौजूद है, विडम्बना ‘घर’ के ‘मकान’ में तब्दील हो जाने की, अथवा ‘मकान’ के ‘घर’ में तब्दील न हो पाने की ही विडम्बना है. एक ही घर में रहने वाले लोग जब अपने-अपने कमरों में कैद हो जाते हैं, तो घर मकान बनने लगता है. और जब वे ही लोग आंगन में इकट्ठे होकर आपस में बतिया रहे होते हैं, तो वही मकान घर में परिवर्तित होकर गुंजायमान हो उठता है.

बात साफ है कि धन मकान तो बना सकता है, घर नहीं, और घर के लिए मकान की जरूरत होती ही नहीं है. यह घर ही है, जिनके लिए इस देश की सराहना पूरी दुनिया में होती है. और अब धीरे-धीरे ये घर दरकने लगे हैं. सावधान होने का वक्त आ गया है.


डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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