कांग्रेस ने कर्नाटक में सिद्धारमैया और डी के शिवकुमार के बीच का संकट फिलहाल टाल दिया है और अब ये साफ हो गया है कि सिद्धारमैया ही मुख्यमंत्री बने रहेंगे और उनकी कुर्सी बच गई है. मगर कब तक... ये बड़ा सवाल है. कांग्रेस में ये कोई पहला मामला नहीं हैं, जहां एक ही राज्य में दो या तीन बड़े नेताओं के बीच आपसी खींचतान की वजह से पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा हो. सबसे ताज़ा उदाहरण तो पिछले साल अक्टूबर में हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव का है. जहां भूपेन्द्र सिंह हुड्डा बनाम कुमारी शैलजा बनाम रणदीप सुरजेवाला के बीच मतभेद इतने बढ़ गए कि कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा.
बीजेपी को मिला फायदा
कांग्रेस आलाकमान ने रैली के दौरान मंच पर भूपेन्द्र सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा के हाथ मिलवा तो दिए मगर उनके दिल नहीं मिले. आपसी गुटबाज़ी में उलझी कांग्रेस के नेताओं का अहं पार्टी पर ऐसा पड़ा कि बीजेपी चुनाव जीत गई. इन दोनों नेताओं को एक करने की कांग्रेस आलाकमान की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं रही और नतीजा सबके सामने था.
यही हाल रहा कांग्रेस का राजस्थान और मध्यप्रदेश में भी. यहां भी दो नेताओं के बीच मनमुटाव इतना था कि वे पब्लिक में एक दूसरे पर आरोप लगा रहे थे खासकर कर राजस्थान में जहां मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट ऐसे लड़े जैसे दोनों एक ही पार्टी के नहीं विरोधी दलों में हों. अशोक गहलोत मुख्यमंत्री थे तो सचिन पायलट युवा और भीड़ खींचने वाले नेता मगर बीजेपी को हराने के बजाए ये दोनों अपने ही उम्मीदवारों को हराने में लग गए.
गहलोत सचिन पायलट पर अपनी सरकार को गिराने की साजिश का आरोप लगाते रहे .एक बार विधायकों की घेराबंदी भी की गई. कांग्रेस आलाकमान ने सुलह कराने के लिए अशोक गहलोत को अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने की कोशिश की मगर गहलोत नहीं माने. फिर मल्लिकार्जुन खरगे को दो अन्य नेताओं के साथ जयपुर भेजा गया मगर वो बैठक भी नहीं हो पाई क्योंकि गहलोत कहीं और चले गए. इन सब का नतीजा ये हुआ है कि कांग्रेस विधानसभा का चुनाव हार गई और सत्ता से बाहर हो गई.
2023 में ही मध्यप्रदेश में भी विधानसभा के चुनाव हुए. यहां थे कमलनाथ और दिग्विजय सिंह. कमलनाथ 18 महीने मुख्यमंत्री भी रह चुके थे मगर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने उनका तख्ता पलट दिया और बीजेपी की सरकार बनी शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने. जब यहां विधानसभा का चुनाव हुआ तो कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच गहलोत और पायलट जैसी बातें तो पब्लिक में नहीं दिखी मगर वो तालमेल भी नहीं दिखा जो कांग्रेस को चुनाव जीतवा देता. बीजेपी सरकार के खिलाफ लंबे समय तक सत्ता में रहने के बाद कांग्रेस ये चुनाव हार गई. कमलनाथ की राजनैतिक पारी का सूर्यास्त हो गया और दिग्विजय सिंह अभी भी राज्यसभा में हैं. कांग्रेस ने अपना नेतृत्व जीतू पटवारी और उमंग सिंघार जैसे युवा नेताओं के हाथ में सौंप दिया है.आज यहां बीजेपी के मोहन यादव मुख्यमंत्री हैं.
यही हाल छत्तीसगढ़ का हुआ. कांग्रेस के पास इतना बड़ा बहुमत था कि किसी को अंदाजा नहीं था कि भूपेश बघेल चुनाव हार जाएंगे. ऐसा लगता था कि कांग्रेस भले ही कुछ सीटें हार जाएगी मगर बघेल सरकार बना लेंगे .यहां भी दो नेता थे मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और टी एस सिंघदेव. पहले ये कहा गया कि दोनों के बीच ढाई ढाई साल का करार हुआ है मुख्यमंत्री बनने के लिए. इस तरह की बातें सार्वजनिक तौर पर की नहीं जाती और ना ही लिखित में होता है. नतीजा ये हुआ कि ढाई साल के बाद छत्तीसगढ़ में जो सत्ता संघर्ष हुआ वह कांग्रेस को चुनाव में भारी पड़ा. सिंघदेव तो अपनी सीट हारे ही कांग्रेस को भी ले डूबे उनके इलाके की सारी सीटें कांग्रेस हार गई और कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई.
हिमाचल में भी संघर्ष देखने को मिला
कुछ इसी तरह का सत्ता संघर्ष हिमाचल में भी देखने को मिल रहा है. यहां कांग्रेस की सरकार है और सुखविंदर सिंह सुक्खु मुख्यमंत्री हैं मगर यहां भी उप मुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री और पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के बेटे विक्रमादित्य सिंह के बीच सत्ता संघर्ष की खबरें आती ही रहती है. कुल मिलाकर कई राज्यों में दो बड़े नेताओं के आपसी कलह की वजह से कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा है कनार्टक सबसे ताज़ा उदाहरण है. फिलहाल कांग्रेस आलाकमान ने यहां संकट टाल दिया है शायद ऐसा ही कुछ बाकी राज्यों में किया जाता तो कांग्रेस की तस्वीर कुछ और होती.दूसरी बात ये भी है कि क्या कनार्टक में सब ठीक है या वह भी इन्हीं राज्यों के रास्ते पर है जिसकी वजह से कांग्रेस को चुनाव में अपनी सरकारों से हाथ धोना पड़ा है.