हिन्दी में गुनना-बुनना मुमकिन नहीं रह गया, सो हश्र तो यही होना था...

आज की पीढ़ी की समस्या है कि हमने हिन्दी को उसकी दूसरी भाषा बना दिया है, जिसमें सोचना और बोलना उसके लिए दुरूह है...

हिन्दी में गुनना-बुनना मुमकिन नहीं रह गया, सो हश्र तो यही होना था...

हिन्दी दिवस पर इस बार शायद दिल्ली मेट्रो इस गलती को सुधार ले...

कुछ दशक पहले तक कभी एक वक्त था, जब उत्तरी भारत के अधिकतर स्कूली बच्चों के लिए अंग्रेज़ी सिर्फ एक विषय हुआ करता था, और हिन्दी अपनी भाषा... लेकिन अब दृश्य लगभग उलट चुका है... पैदा होने के साथ ही जो भाषा आपके कानों में पड़ना शुरू हो जाती हो, उससे लगाव स्वाभाविक होता है, और उसे समझना भी आसान हो जाता है... लेकिन किसी भी भाषा को भली प्रकार समझने के लिए व्याकरण को समझना बेहद ज़रूरी होता है, और यही आज की पीढ़ी की समस्या है कि हमने हिन्दी को उसकी दूसरी भाषा बना दिया है, जिसमें सोचना और बोलना उसके लिए दुरूह कार्य है, क्योंकि हिन्दी व्याकरण को विज्ञान, गणित की तरह विषय बना दिया गया है, जिसमें सिर्फ उत्तीर्ण होना ज़रूरी है...

गली-गली में कुकुरमुत्तों की तरह उग चुके अंग्रेज़ी मीडियम स्कूलों में हमारे बच्चों को सबसे पहले 'ए फॉर एप्पल, बी फॉर बैट' पढ़ाना शुरू किया जाता है, और जाने-अनजाने हम अंग्रेज़ी को अपने ही बच्चे की पहली भाषा बना डालते हैं... इसके अलावा अधिकतर अंग्रेज़ी मीडियम स्कूलों में अंग्रेज़ी में ही बात करने का नियम भी बनाया जाने लगा है, और हिन्दी में बात करने पर जुर्माना लगाया जाता है... अब इस माहौल में हिन्दुस्तान का बच्चा हिन्दी कैसे सीख सकता है, जब हिन्दी पढ़ने में उसका मन लगेगा ही नहीं, क्योंकि अंग्रेज़ी में बात नहीं करने पर जुर्माना देने के डर से वह अंग्रेज़ी पर ही मेहनत करेगा... इसके अलावा, जब हिन्दी के स्थान पर अंग्रेज़ी ही वह भाषा बन जाएगी, जिसमें वह सोचता है, गुनता है, तो हिन्दी के हश्र से शिकायत करना व्यर्थ है...

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खैर, आज यह लिखने के बारे में इसलिए सूझा, क्योंकि दिल्ली में रिंग रोड पर बने मोती बाग मेट्रो स्टेशन का नाम रखा गया है - डॉ एम. विश्वेश्वरैया मोती बाग, लेकिन वहां भाषा संबंधी एक समस्या है... स्टेशन की इमारत के सामने वाले पहलू और दोनों किनारों पर नाम लिखे बड़े-बड़े बोर्ड लगे हैं... कुछ दिन पहले तक सामने वाला और एक कोने वाला नाम गलत लिखा था, और दूसरे कोने में वह सही लिखा गया था... हमेशा लगता था, किसी न किसी का ध्यान कभी न कभी इस पर जाएगा, और इसे ठीक कर लिया जाएगा... लेकिन सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि ध्यान तो गया, लेकिन गलत को सही करने के स्थान पर जो सही था, उसे भी गलत कर दिया गया... पहले कुल तीन में से दो जगह पर डॉ विश्वेश्वरैया का नाम एम. विश्वेश्वरैय्या लिखा था, और तीसरे स्थान पर इसे सही - विश्वेश्वरैया - लिखा गया था... और अब दो जगहों पर गलत को सही करने के स्थान पर तीसरे को भी 'विश्वेश्वरैय्या' कर दिया गया है... हंसी आती है - कैसे-कैसे विद्वान बैठे हैं...

आमतौर पर आप उसी भाषा को आत्मसात कर अच्छी तरह इस्तेमाल कर सकते हैं, जिसमें आप सोचते हैं, गुनते हैं, शब्दों और वाक्यों को बुनते हैं... अगर आप अंग्रेज़ी में सोचेंगे, उसी में विचार करेंगे, तो अंग्रेज़ी में ही खुद को आसानी से अभिव्यक्त कर पाएंगे... यहां मुद्दा अंग्रेज़ी का विरोध करना नहीं है, कतई नहीं, हरगिज़ नहीं... लेकिन हिन्दी की कीमत पर सीखी गई अंग्रेज़ी का स्तर भी अधिकतर बच्चों का वैसा ही रह जाता है, जैसा उनकी हिन्दी का बन गया है... जन्म से ही हिन्दी बोलने-समझने की वजह से बच्चों के मन में यह गलतफहमी बेहद आसानी से घर कर जाती है कि वे हिन्दी जानते हैं, और जो वे जानते हैं, वही सही है... कुछ साल पहले हिन्दी दिवस के मौके पर हिन्दी मुहावरों-कहावतों पर बातचीत के दौरान एक साथी ने कहा, - 'एक ही थाली के चट्टे-बट्टे'... इसके बाद मैंने उस साथी को सही मुहावरा बता दिया - 'एक ही थैली के चट्टे-बट्टे'... गलत को सही बता देना कोई अनूठी बात नहीं थी, लेकिन यहां अनूठा यह था कि इसके बाद साथी का तर्क था, "हमने अब तक हर जगह यही पढ़ा है, और एक फिल्मी गीत में भी 'थाली' ही बोला गया है, सो, वह गलत नहीं हो सकता..."

अब इसके बाद कहने के लिए मेरे पास ज़्यादा कुछ नहीं है, क्योंकि उक्त साथी ही नहीं, मेरे अपने बच्चे भी स्कूल से 'गलत' पढ़कर आने के बाद 'सही' बताए जाने पर बहस के मूड में नज़र आते हैं... जब भी उन्हें कुछ सही बताया जाए, उसे साबित कर दिखाना भी ज़रूरी लगने लगता है, क्योंकि आसानी से तो वे हम पर भरोसा भी नहीं कर पाते हैं... व्याकरण की किताबों में आज भी कुछ गलत नहीं है, लेकिन मुझे यह महसूस होता है कि हर नियम और परिभाषा को सही तरीके से सिखाए जाने की जितनी और जैसी कोशिश हमारे समय के अध्यापक-अध्यापिकाएं किया करते थे, वैसी और उतनी कोशिश आज के अध्यापक शायद नहीं कर पाते हैं, क्योंकि वे भी संभवतः अपने जैसे अध्यापकों से ही पढ़कर आए हैं...

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मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि किसी भी भाषा को सीखने के लिए सबसे ज़रूरी होता है, पाठ्यक्रम से इतर सामग्री पढ़ने का अभ्यास... सिर्फ पाठ्यक्रम में मौजूद पुस्तकों को पढ़ने से आप विषय के रूप में हिन्दी को सीख सकते हैं, लेकिन हिन्दी की व्यापक शब्दावली और उसका अलंकारिक और विभिन्न रूपों में प्रयोग आप तभी सीखेंगे, जब आप पाठ्यक्रम से बाहर निकलकर कुछ पढ़ेंगे... पाठ्यक्रम में शामिल किया गया मुंशी प्रेमचंद का कोई एक उपन्यास पढ़कर आप कभी नहीं जान पाएंगे कि उन्होंने किस-किस मुद्दे पर क्या-क्या, और कैसे लिखा था...

आज का युग वैसे भी मोबाइल और टैबलेट पर पढ़ने का युग हो गया है, और किन्डल पर किताबें पढ़ने के शौकीनों की तादाद लगातार बढ़ रही है, सो, हिन्दी का पाठक वैसे ही अल्पसंख्यक हो गया है... मेरा आज भी मानना है कि रात को बिस्तर पर जाकर सोने से पहले सीने पर रखकर किताब को पढ़ना जो सुकून, जो खुशी, जो संतुष्टि देता है, वह किन्डल पर नहीं मिल सकती... पुरानी-नई किताबों की जिल्द की अलग-सी गंध आज भी पढ़ने का शौक ज़िन्दा रखे हुए है... सो, आप लोगों से अब सिर्फ यही कहना चाहता हूं, खुद भी कुछ न कुछ पढ़ने की आदत डालें, और अपने बच्चों को देखने दें कि आप क्या कर रहे हैं, ताकि वे भी वैसे ही बन सकें... और यकीन मानिए, अगर ऐसा हो पाया, तो हिन्दी की दशा सुधारने के लिए हर साल मनाए जाने वाले हिन्दी दिवस की ज़रूरत नहीं रहेगी...

विवेक रस्तोगी Khabar.NDTV.com के संपादक हैं...

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