साल 4 लेकिन सवाल सिर्फ एक...

चार साल पहले लोकसभा चुनाव में जीत तो भारतीय जनता पार्टी की हुई थी लेकिन वोट 'मोदी लहर' के नाम पर दिया गया था, इस उम्मीद में की 'अच्छे दिन' आएंगे

साल 4 लेकिन सवाल सिर्फ एक...

हां, चार साल हो गए. करीब 1460 दिन. चार साल पहले 2014 में एक लहर चली थी. नाम था 'मोदी लहर'. न जाने ये लहर कैसी थी और किसके लिए थी ? चार साल पहले लोकसभा चुनाव में भारत की जनता ने इस लहर को जनादेश दिया था. जीत तो भारतीय जनता पार्टी (BJP) की हुई थी लेकिन वोट 'मोदी लहर' के नाम पर दिया गया था. इस उम्मीद में की 'अच्छे दिन' आएंगे.
 
16 मई, 2014, यह वही तारीख थी, जिस दिन आम चुनावों के बाद हिंदुस्‍तान की नई सियासी इबारत लिखी जा रही थी. लोगों ने BJP को जनादेश दिया और पूर्णबहुमत से किसी पार्टी की सरकार बनने वाली थी. इस तारीख के बाद लोगों के चेहरे पर रौनक थी. भारत की आबादी खुश थी क्योंकि उन्हें अच्छे दिनों की चाह था. पड़ोसी देश पाकिस्तान, जो हर बार पीठ में छुरा घोपने का काम किया करता था वो भी हैरान था और थर-थर कांप रहा था. क्यों.. ? क्योंकि इस बार के चुनाव में एक छोटी-सी लहर पर सवार होकर कोई राजनेता प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठने वाला था.
 
कहा जाता है कि उम्मीदें दुख देती है और इस मामले में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह काफी सही थे क्योंकि वो किसी को उम्मीद नहीं देते थे और उन्होंने साफ कह दिया था 'भ्रष्ट्राचार से निपटने के लिए मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है.' बस फिर क्या था लोगों की उम्मीदें टूटी और 26 मई 2014 से दूसरे के हाथ में सत्ता आ गई क्योंकि इस नई सरकार ने लोगों को काफी उम्मीदें दे दी थी. लोगों को उम्मीदों देकर जीत दर्ज करने का फॉर्मुला अपना काम कर चुका था. इस बात को अब चार साल बित चुके हैं लेकिन उम्मीदों की पूर्ति तो अभी तक नहीं हुई है. ऐसे में वर्तमान सरकार एक के बाद एक उम्मीदें लोगों को देती ही जा रही है और जनता है कि हर उम्मीद को आंखे मूंदकर स्वीकार भी कर रही है.
 
विकास का नारा देने वाली 'मोदी सरकार' कई मोर्चों पर फेल हुई लेकिन आज भी किसी राज्य में चुनाव होता है तो BJP उभरकर सामने आती है. सरकार बनाने लायक सीटें न भी मिले तो भी यह पार्टी सरकार बनाने की कवायद शुरू कर देती है. अब इसे सत्ता का नशा कहेंगे या सत्ता का भूत सवार कहेंगे ? लेकिन पार्टी के मुताबिक जनता सिर्फ उन्हें ही सरकार बनाने के लिए वोट कर रही है. किसी ने सही कहा था कि 'विकास पागल हो गया है' क्योंकि चार सालों के दरमियां देश का विकास कम और किसी राजनीतिक पार्टी का विकास और विस्तार ही ज्यादा देखा गया है. वहीं इस पार्टी की सरकार से उम्मीदें लोगों को आज भी है तभी तो हर वर्ग का आदमी अब भी इनको वोट देने से पीछे नहीं हटता. लेकिन हुक्मरानों को ये बात भी जान लेनी चाहिए कि हर दिन एक सा नहीं होता और जीत के पीछे एक वजह किसी दूसरे 'विकल्प' का न होना भी हो सकता है.
 
जैसे-जैसे सूरज चढ़ता जाता है वैसे-वैसे हिंदुस्‍तान में हर दिन कोई न कोई मुद्दा तूल पकड़ लेता है. कुछ सियासी पारा चढ़ा देते हैं तो कुछ ठंड़े बस्ते में चले जाते हैं लेकिन इन सबके बीच अहम मुद्दे आज भी सिर्फ मुद्दे ही बने हुए हैं. रोटी, कपड़ा, मकान तो आज भी सबकी पहली जरूरत है ही. लेकिन यहां हर सीट पर जीत दर्ज करने की ख्वाहिश मूलभूत चीजों पर भारी पड़ गई. क्यों ? क्योंकि अगर अहम मुद्दों को ही पूरा कर दिया गया तो चुनाव में फिर किस मुद्दे पर वोट मांगे जाएंगे ? वोट तो चाहिए न चुनाव जीतने के लिए और वोट तभी मिलेंगे जब कोई ऐसा मुद्दा हो जो सीधा लोगों को प्रभावित करे. मध्य प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल भी BJP नेताओं को वोट मांगने की कला सिखाती देखी जा चुकी हैं. ऐसे में अंदाजा लगा लेना चाहिए कि दशा और दिशा के लिहाज से 'सबका साथ, सबका विकास' नारे का मतलब क्या है.
 
चार साल के सफर में काम तो दिखाई देता है. अरे..! इसमें हैरानी की बात नहीं है, कागजों पर तो काम दिखा ही है. कागजों पर विकास भी हुआ है. हां, ये बात अलग है कि जमीनी हकीकत काफी अलग है. रोजगार की चाह में हजारों की संख्या में लोग धरना आज भी दे रहें हैं. लेकिन सरकारी कागजों में तो चीख-चीख कर युवाओं को रोजगार देने की बात कही गई है. तो फिर वो युवा कौन है जो बेरोजगार है और धरना दे रहा है? कहीं ये विकास में रोड़ा अटकाने के लिए विपक्ष की कोई साजिश तो नहीं ? यहां चुनाव दर चुनाव जीत हासिल करने की भूख शांत नहीं होती और धूप में रहकर काम करने वाला किसान लोगों की असल भूख को शांत कर रहा है लेकिन फिर भी मौत को आज भी वो अपने गले लगा ही रहा है.
 
कागजों में जितना तेज विकास देखने को मिल रहा है, असल में पेट्रोल-डीजल के दामों का मीटर भी उतना ही तेज भाग रहा है. पेट्रोल-डीजल के दामों में जितनी आग लग रही है, ये पूरी आग दूसरी कई सुविधाओं को भी अपने साथ में जला रही है और लोगों की जेब भी ये आग बुझाने में नाकाम साबित हो रही है, लेकिन घबराईए मत विकास का नारा अब भी चरम पर है। महंगाई भी बढ़ती जा रही है। शायद यही विकास होगा... ? पार्टियों को एक काम करना चाहिए कि चुनावी घोषणाओं में विकास की परिभाषा भी बता दी जानी चाहिए, इससे जनता को भी समझने में आसानी होगी कि आखिर ये विकास किस चिड़िया का नाम है जो हो तो रहा है लेकिन दिखाई नहीं दे रहा.
 
इस विकास के बीच कश्मीर घाटी में अशांति और पाकिस्तान की आंखें दोनों ही लोगों को काफी डरा चुकी है और अब भी डराए जा रही है. जनाब, इस विकास की दौड़ में काला धन भी अहम मुद्दा है. काले धन का जिक्र करते ही अब मानों हुक्मरानों के पसीने छूटने लग जाते हैं. पैसों के मामले में नोटबंदी को तो शायद ही कोई भूला होगा. दावा था कि काला धन खत्म हो जाएगा. अब काला धन खत्म हो गया या कुछ बाकि है इसकी पुष्टि नहीं है और अर्थव्यवस्था में कोई अहम बदलाव भी नहीं देखा गया. हालांकि 2000 रुपये का एक नोट पकड़ा दिया गया, जिसका आज भी छुट्टा करवाने के लिए लोगों को कड़ी मेहनत से गुजरना पड़ता है.शेयर मार्केट तो आज भी बैंकों के घोटाले के कारण परेशान है. बाजार चढ़ता है और फिर धड़ाम से गिर जाता है. विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे लोग भी चूना लगाकर मोदी सरकार के राज में भाग जाते हैं. चार साल में न गंगा साफ हुई और न आदर्श ग्राम योजना कामयाब हो पाई. लेकिन कागजों पर विकास न जाने कैसे हो जा रहा है.
 
2014 में जनादेश 5 साल के लिए दिया था और अपने वादे पूरा करने में वर्तमान सरकार अब भी पिछड़ रही है. अब एक साल और बचा है जाहिर सी बात है कि 2019 के लोकसभा चुनाव पर ज्यादा फोकस होगा. बेरोजगारी, गरीबी, मंहगाई, शिक्षा जैसी कई बातें हर पार्टी के लिए अहम मुद्दा बनने वाला है. नए-नए नारे सुनने को मिलेंगे. इन नारों में सत्ताधारी पार्टी ने तो बिगुल बजा दिया है और मार्केट में 'साफ नीयत, सही विकास' का स्लोगन भी दे दिया. इस बीच लोगों को चार साल पहले दिया नारा भी नहीं भूलना चाहिए क्योंकि वो नारा देश की आबादी के लिए चार साल बाद अब सवाल बन चुका है. सवाल यह कि 'अच्छे दिन कब आएंगे?'


हिमांशु कोठारी NDTVKhabar.com में सब-एडिटर हैं...
 

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