जंगलमहल एक समय माओवादी नेता 'किशन जी' के 'मुक्त क्षेत्र' की वजह से सुर्खियों में था और आज वह पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के पहले चरण में सर्वाधिक मतदान के कारण सुर्खियों में है। वहां मीडिया में मतदान के लिए महिलाओं की लंबी-लंबी कतारें गवाह की तरह पेश की गईं और लोगों को यह कहते दिखाया-सुनाया गया कि 'अब कोई डर नहीं है...' यह भी गौरतलब है कि पहली बार चुनाव में 'कोई खून नहीं बहा...' यह ममता बनर्जी के कथित 'पोरिबर्तन' से ही हुआ है, यह कहना तो मुश्किल है, क्योंकि कई जगह तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के लोगों को डराने-धमकाने और वाममोर्चा कार्यकर्ताओं से छोटी-मोटी झड़पों की खबरें भी आईं, फिर भी जंगलमहल की यह कथा कई मायनों में बंगाल की राजनीति का प्रतीक है और इससे मौजूदा चुनाव के सूत्र खुलते हैं।
झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ से लगे दक्षिण-पश्चिम के इस इलाके का इतिहास गौरवमयी रहा है। यहां संथाल आदिवासियों की खासी तादाद है और अंग्रेजी राज में संथाल विद्रोह का बिगुल भी यहां बजा था। यही इलाका संन्यासी विद्रोह का भी केंद्र था, जिसका जिक्र बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की प्रसिद्ध कृति 'आनंदमठ' में मिलता है। इससे जुड़ा हुआ मेदिनीपुर का महिषादल इलाका 1942 में कुछ दिनों तक आजादी का ऐलान कर देने वाली देश की तीन-चार जगहों में से एक था। हाल के दौर में वाममोर्चा के राज में नंदीग्राम और सिंगुर के आंदोलनों की आंच भी इस इलाके में धधकती रही है।
इसलिए इन चुनावों में वाममोर्चा और तृणमूल की टक्कर में पलड़ा किस ओर झुक सकता है, इस इलाके की धड़कन से इसका कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। दरअसल जंगलमहल में सिर्फ माओवादियों का आतंक नहीं था, वाममोर्चा का भी आतंक रहा है, जिसके खिलाफ कभी इलाके में लोकप्रिय 'पुलिस संत्रास विरोधी कमेटी' सक्रिय थी। यहीं इस बार चुनाव प्रचार के दौरान पहली बार ममता बनर्जी ने माफी मांगी थी और कहा था कि 'कोई भूल हुई हो तो माफ कर देना... जिसने भी कोई गड़बड़ी की होगी, मैं उसका कान खींचूंगी, लेकिन मेरा साथ न छोडऩा... कोई और नहीं, मैं ही सभी 294 सीटों पर लड़ रही हूं...'
यह देखना दिलचस्प होगा कि ममता की यह जादुई छुअन कितना काम करती है और वाममोर्चा का वह गणित कितना काम करता है, जो माकपा के राज्य सचिव सूर्यकांत मिश्र ने विपक्ष के वोटों को बंटने से रोकने के लिए कांग्रेस से हाथ मिलाकर कायम किया है। हालांकि वाममोर्चा के कई नेता इससे खुश नहीं हैं। एक समय राज्य की राजनीति में धुर विरोधियों माकपा और कांग्रेस के बीच गठजोड़ का यह गणित जंगलमहल के धुर उत्तर सिलीगुड़ी में पिछले साल नगर निगम चुनाव में किए गए प्रयोग से सामने आया, जहां इस अजीबोगरीब दोस्ती के अच्छे नतीजे दिखे। विधानसभा चुनावों में यह तालमेल कुल 294 सीटों में से 274 पर कायम है।
दरअसल इस गणित का आधार 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजे हैं। कांग्रेस और वाममोर्चा के अलग लडऩे से मुसलमान वोट सीधे ममता की ओर चले गए। वाममोर्चा के वोटों में भाजपा ने सेंध लगा दी और उसके करीब नौ प्रतिशत वोट खिसक गए। इससे भाजपा की वोट हिस्सेदारी 17 प्रतिशत तक पहुंच गई, जो बंगाल में कल्पनातीत बात थी। दक्षिण बंगाल में वाममोर्चा का लगभग सफाया हो गया। अब इस बार वाममोर्चा-कांग्रेस गठजोड़ का ज्यादा लाभ दक्षिण में तो नहीं, लेकिन उत्तर बंगाल में ज्यादा दिखने की उम्मीद लगाई जा रही है। उत्तर बंगाल में 74 सीटें हैं, जबकि दक्षिण में 220 सीटें हैं।
लेकिन कोई अगर यह सोचे कि वोटों को बंटने से रोकने का फार्मूला बिहार की तरह यहां भी कारगर हो सकता है, तो वह शायद अंदाजा लगाने में गलती कर बैठ सकता है। बंगाल की अब तक की राजनीति पर नजर रखने वालों को यह एहसास हो सकता है कि वहां राजनीति गणित के आधार पर कम ही चलती है। वहां भावनाओं का ज्वार ज्यादा तेज चढ़ता है और उतरने में भी काफी समय लेता है। आजादी के आंदोलन के समय नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रति अगाध श्रद्धा के बावजूद वहां कांग्रेस की सत्ता हिलने में ढाई दशक से ज्यादा लग गए थे। फिर वाममोर्चा का नशा तो तीन दशक से ज्यादा समय बीतने के बाद उतरा था।
सत्तर के दशक में नक्सलवाद के दौर में प्रसिद्ध नाट्य और साहित्यकर्मी विजय तेंदुलकर ने अपने एक अध्ययन में अतिवामपंथ को शक्ति उपासना से जोड़कर देखा था और कहा था कि इसमें एक तरह का बंगाली विशिष्टता का एहसास भी प्रेरणा जगा रहा है। वाममोर्चा की सत्ता के बारे में भी एक वक्त कुछ विद्धानों की राय थी कि जिस दिन वह दिल्ली की सत्ता का भागीदार बन जाएगा, उस दिन बंगालियों के दिलों से उतर जाएगा। यही हुआ भी। जैसे यूपीए-1 के दौर में वामपंथी पार्टियां केंद्र की सत्ता की लंबे दौर तक सहयोगी बनीं और फिर पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने विकास के लिए निवेश आकर्षित करने की मुख्यधारा की नीति अपनाई, बंगाल में सत्ता गंवा बैठे।
इसी वजह से यह भी कयास लगाया जा सकता है कि अगर ममता कांग्रेस में बनी रहतीं तो शायद वाममोर्चा को इस कदर सत्ताच्युत करना संभव नहीं हो पाता। ममता भले कांग्रेस से निकली हों, लेकिन उन्होंने वही नीतियां अपनाईं, जो मुख्यधारा से अलग हैं, इसलिए कई वामपंथी भी कहने लगे हैं कि ममता वामपंथियों से भी ज्यादा वाममार्गी हो गई हैं। दरअसल बंगाल की राजनीति का एक सूत्र पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) से आए लोगों और पश्चिम के लोगों के बीच एक तरह की खींचतान भी रही है, जिन्हें क्रमश: बाटी और घोटी कहा जाता है। पश्चिम के लोगों में कांग्रेस या एक जमाने में कुछ समाजवादियों का ज्यादा आधार रहा है तो पूरब से आए लोगों में वामपंथियों को ज्यादा शह मिलती रही है। ज्योति बसु की सरकार में बंटाइदारों का नाम जमीन पर चढ़ाने और उन्हें फसल का तीन-चौथाई देने के 'वर्गा ऑपरेशन' के सफल अभियान से वामपंथियों का आधार मजबूत हुआ था, लेकिन अब मजेदार स्थिति यह है कि यह आधार तृणमूल की ओर खिसक गया है।
दूसरा विभाजन उत्तर और दक्षिण बंगाल का है। दोनों की तासीर कुछ अलग रही है, लेकिन ममता की पहुंच दोनों में एक समान है। उन्होंने पंचायतों के उस नेटवर्क पर पूरी पकड़ कायम कर ली है, जिसे वाममोर्चा की सरकार ने बड़े जतन से बनाया था। फिर भी वाममोर्चा और कांग्रेस गठजोड़ की अपनी ताकत से इनकार नहीं किया जा सकता। जहां तक भाजपा की बात है, दक्षिणपंथी राजनीति की गुंजाइश अभी भी बंगाल में बनती नहीं दिख रही है। उत्तर भारत और हिन्दी प्रदेशों से गए लोगों में जरूर वह कुछ स्फुरण पैदा करती है, लेकिन वह आधार बहुत छोटा है। बंगाली मन थोड़ा-बहुत ही डोला हो सकता है। फिर भी बंगाल के नतीजे महत्वपूर्ण हैं और आगे की सियासी दशा-दिशा तय कर सकते हैं।
हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Apr 06, 2016
पश्चिम बंगाल का मन ममतामयी या वामपंथी...?
Harimohan Mishra
- ब्लॉग,
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Updated:अप्रैल 13, 2016 17:52 pm IST
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Published On अप्रैल 06, 2016 14:01 pm IST
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Last Updated On अप्रैल 13, 2016 17:52 pm IST
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