इस 'आधार' में तो कई तरह के डरावने 'छल' मौजूद हैं...

इस 'आधार' में तो कई तरह के डरावने 'छल' मौजूद हैं...

प्रतीकात्मक चित्र

आखिर 'आधार' पर हफ्ते भर में ही संसद की मंजूरी हासिल करने की नरेंद्र मोदी सरकार की हड़बड़ी के मायने क्या हो सकते हैं...? क्या महज राज्यसभा में विपक्ष के अड़ंगे से निपटने के लिए इसे धन विधेयक के रूप में रखने का तरीका अपनाया गया...? क्या इसका मकसद सिर्फ यह दिखाना था कि विपक्ष बेहद ज़रूरी जनकल्याणकारी कार्यक्रमों में भी अड़ंगे लगाने से बाज नहीं आ रहा है और सरकार को काम नहीं करने दे रहा है...? और, बकौल वित्तमंत्री, इसका एकमात्र मकसद अगर कल्याणकारी योजनाओं का नकद लाभ लोगों तक सहजता से पहुंचाना है तो फिर पुलिसिया और जांच एजेंसियों को 'आधार' डाटाबेस को भेदने की इजाजत क्यों दी गई है...? यही नहीं, लोगों की गोपनीयता के अधिकार की सुरक्षा के इसमें जितने प्रावधान किए गए हैं, वे सभी 'राष्ट्रीय सुरक्षा' का हवाला देकर बेमानी क्यों बना दिए गए हैं...?

ऐसे कई सवाल इसके गंभीर पहलुओं की जांच-परख करने का तकाजा पैदा करते हैं। सबसे अहम सवाल हमारी गोपनीयता पर इससे उपजने वाले डरावने खतरे का है, लेकिन इससे पहले इसके इतिहास की हल्की-सी चर्चा कर ली जाए। ऐसे किसी राष्ट्रीय पहचानपत्र की अवधारणा पूर्व एनडीए सरकार के उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने पेश की थी। तब यह मसला मोटे तौर पर बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान के मकसद से उठाया गया था, लेकिन एनडीए सरकार उसे अमल में नहीं ला सकी। उसके बाद यूपीए सरकार आई तो विश्व बैंक से नकदी हस्तांतरण के जरिये लोगों को राहत देने की अवधारणा पेश की गई। इसी अवधारणा के आधार पर जनहितकारी सब्सिडी को सीमित करने के लिए यूपीए सरकार जब इस ओर बढ़ी तो भ्रष्टाचार रोकने के लिए एक राष्ट्रीय विशिष्ट पहचान संख्या की अवधारणा नए रूप में सामने आई। यही 'आधार' की आधारभूमि है, यानी, यह जितना सरल दिखता है, उतना है नहीं। इससे गोपनीयता ही नहीं, नव-उदारवादी या बाजारवादी अर्थव्यवस्था के सवाल भी जुड़े हुए हैं।

असल में मोदी सरकार की 'आधार' को कानूनी जामा पहनाने की जल्दबाजी से पहले ही उसकी व्यापक और विवादास्पद मौजूदगी देश में बनी हुई है। उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा चुकी है और महाधिवक्ता यह दलील पेश कर चुके हैं कि देश के लोगों के पास गोपनीयता का कोई अधिकार नहीं है। इससे संदेह कुछ अधिक गहरा हो जाता है। इस विधेयक में उन विस्तृत आंकड़ों और सूचनाओं को संस्थागत रूप दिया गया है, जो हमारी निहायत व्यक्तिगत सूचनाओं से जुड़े हुए हैं। ऐसी सूचनाओं के लिए ज़रूरी गोपनीयता सुरक्षा पर सार्वजनिक बहस और गहरे विचार-विमर्श के बिना कानून बनाने की हड़बड़ी कई तरह के संदेह पैदा करेगी ही।

दरअसल गोपनीयता का अधिकार हमारे मूलभूत अधिकारों का हिस्सा है या नहीं, यह बहस बहुत पुरानी है। संविधान सभा में 1948-49 में तलाशी (छापा) और जब्ती से सुरक्षा को मौलिक अधिकारों के अध्याय में जोड़ने के लिए संशोधन पेश किए गए। तब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि इसकी सुरक्षा के प्रावधान अपराध प्रक्रिया संहिता में पहले ही शामिल किए गए हैं, लेकिन अगर संविधान के अनुच्छेद में जोड़ दिया जाए तो सरकारी अधिकारियों के लिए उल्लंघन करना मुश्किल हो जाएगा। फिर भी सदन में हंगामा शुरू हो गया तो संशोधन पर मतविभाजन टाल दिया गया। आखिरकार संशोधन पारित नहीं हो पाया।

हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने लगातार कई मामलों में यह फैसला सुनाया कि स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी को बचाए रखने के लिए गोपनीयता का अधिकार बेहद ज़रूरी है। 1997 में टेलीफोन टैपिंग के खिलाफ पीयूसीएल बनाम केंद्र सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि टेलीफोन टैपिंग अगर कानून-सम्मत प्रक्रिया के तहत नहीं होती है, तो वह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है और मान्य पाबंदियों के दायरे में नहीं की जाती है, तो अनुच्छेद 19 के तहत बोली और अभिव्यक्ति की आज़ादी का सरासर उल्लंघन है। प्रक्रियागत सुरक्षा की ज़रूरतों पर जोर देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सुरक्षा ढाल के तौर पर एक अंतरिम प्रशासकीय उपाय की व्यवस्था की। यही आधी-अधूरी-सी व्यवस्था आज भी सरकारी निगरानी के खिलाफ हमारी सुरक्षा ढाल बनी हुई है। इसी से पता चलता है कि कैसे तमाम राजनैतिक धाराओं की सरकारें मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की अपनी ताकत पर अंकुश लगाने में दिक्कत महसूस करती हैं।

असल में गोपनीयता का अधिकार ही हमें डॉक्टरों की असावधानी और लापरवाही से सुरक्षा प्रदान करता है, जो हमें सबसे कमजोर पलों में देखते हैं। गोपनीयता का अधिकार ही पुलिस को अपनी मर्जी से हमारे घरों में घुस आने से रोकता है। गोपनीयता का अधिकार ही सरकारी एजेंसियों को फोन पर हमारी बातचीत को सुनने और रिकॉर्ड करने से रोकता है, हालांकि इसका बड़े पैमाने पर उल्लंघन होता है। यह कई दशकों में समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट के इस निष्कर्ष पर पहुंचने से हासिल हुआ है कि गोपनीयता के बिना हमारे दूसरे मूलभूत अधिकारों का भी कोई मतलब नहीं रह जाता है।

मौजूदा 'आधार' विधेयक के प्रावधान कई मायने में बेहद छलावा-भरे हैं। कहा तो यह गया है कि इसका एकमात्र मकसद सार्वजनिक वितरण प्रणाली और कल्याणकारी योजनाओं के लाभ सही लोगों के हाथ में पहुंचाना और भ्रष्टाचार की गुंजाइश मिटाना है। यह भी कहा गया है कि डाटाबेस में संवेदनशील जानकारियां सुरक्षित हैं और इसका बिना अनुमति के कोई दूसरा इस्तेमाल असंभव है। हालांकि विधेयक में बारीक-सी चालाकी बरती गई है। 'सूचना की सुरक्षा' वाले हिस्से में इस कानून के दायरे से बाहर किसी मकसद के लिए इसका इस्तेमाल न करने की भरोसेमंद लगने वाली व्यवस्था तय की गई है, लेकिन इसके दो अपवाद भी हैं, जिससे सरकार को 'आधार' डाटा में झांकने का बेहिचक अधिकार दे दिया गया है। इस तरह ये सुरक्षा उपाय बेमानी बना दिए गए हैं।

इनमें से एक यह है कि कोई जिला जज जानकारी के खुलासे का आदेश दे सकता है। यह जज अब प्रभावित लोगों की अनुमति के बिना 'आधार' डाटा को भेद सकते हैं, उनके आदेश को चुनौती देने का अधिकार सिर्फ 'आधार' प्राधिकरण को होगा, बशर्ते वह ऐसा चाहे। इस विधेयक में किसी पीड़ित पक्ष द्वारा अपील की भी कोई गुंजाइश नहीं है, जिससे डाटाबेस के दुरुपयोग की प्रचुर संभावना बन जाती है।

दूसरा तरीका यह है कि 'राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में' कोई अधिकारप्राप्त संयुक्त सचिव सीधे सूचनाओं को खंगाल सकता है। इसमें भी पद के दुरुपयोग को रोकने के लिए सार्वजनिक या निष्पक्ष निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं है। इस आदेश को कैबिनेट सचिव और केंद्रीय कानून तथा इलेक्ट्रॉनिक व सूचना तकनीकी विभागों के सचिवों की समिति समीक्षा करेगी, लेकिन सरकारी सचिवों की निष्पक्षता पर संदेह करने की पर्याप्त वजहें हैं।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयुक्त नेवी पिल्ले की 2014 में 'राइट टु प्राइवेसी इन डिजिटल एज' की विस्तृत रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया है कि बिना निष्पक्ष बाह्य निगरानी के अधिकारों की सुरक्षा की आंतरिक प्रक्रिया अधूरी और संदिग्ध होती है। मतलब यह हुआ कि संयुक्त सचिव के आदेश की तीन सचिवों की समीक्षा संदेह से परे नहीं हो सकती है। उस रिपोर्ट में साफ लिखा है कि कानून में प्रभावी सुरक्षा तभी संभव हो सकती है, जब सरकारी प्रक्रियागत सुरक्षा उपायों की निष्पक्ष नागरिक निगारनी की व्यवस्था हो। नए 'आधार' विधेयक में निष्पक्ष निगरानी समिति की व्यवस्था हटा दी गई है, जो 'आधार' की प्रक्रियाओं की निगरानी के लिए रखी गई थी।

'आधार' विधेयक में अदालतों को अपराध का संज्ञान लेने के दायरे से बाहर रखा गया है, सिर्फ 'आधार' का संचालन करने वाला प्राधिकरण ही किसी कार्रवाई की अनुमति दे सकता है। विधेयक का यह प्रावधान उसमें दिए गए सुरक्षा के तमाम उपायों को पूरी तरह बेमानी बना देता है, क्योंकि कोई आदमी प्राधिकरण के सहयोग के बिना सुरक्षा ढाल का सहारा नहीं ले सकता और प्राधिकरण में हितों के टकराव की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

इन्हीं प्रावधानों के राज्यसभा में संशोधन पेश किए गए थे, जिन्हें एनडीए ने लोकसभा में अपने बहुमत के बल पर दरकिनार कर दिया। कांग्रेस के जयराम रमेश का संशोधन भी अहम था, जिसमें 'राष्ट्रीय सुरक्षा' के बदले 'सार्वजनिक सुरक्षा और सार्वजनिक आपातकाल' शब्द जोड़ने का संशोधन पेश किया गया था, जिसे साबित करना सरकारी अधिकारियों के लिए कुछ मुश्किल हो सकता था। असल में सरकारी अधिकारी और जांच एजेंसियां तो बिना किसी रुकावट के अधिक से अधिक अधिकार चाहती हैं। अगर उनकी मांगें मान ली जाएं तो यहां पुलिसिया राज स्थापित हो जाएगा। इसलिए इस 'आधार' में तो कई तरह के डरावने छल हैं।

हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...

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