किताबों का भंडार
कुंवर जी पिछले एक साल पहले तक बहुत सक्रिय रहे हैं. धीरे-धीरे आंखें कमजोर हुईं पर सुबह अपनी स्टडी में बैठने की आदत उनकी वैसी ही रही. कहते हैं कि जब वे लखनऊ में रहते थे तो उनका एक बड़ा सा पुस्तकालय था जहां देश दुनिया की बेहतरीन साहित्यिक किताबों और पत्रिकाओं का संग्रह नजर आता था. यह ऐसा ठीहा था जहां टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट की फाइलें व्यवस्थित रुप में देखी जा सकती थीं. पर जब से लखनऊ छोड़ कर दिल्ली आए, चितरंजन पार्क वाले मकान में लाइब्रेरी उतनी बड़ी भले न हो, अपने लिए किताबों का एक सुघर कोना आज भी सजाए हुए हैं. यहीं वे ब्रेन हैमरेज के कारण अभी अस्पताल जाने से दो माह पहले लोगों से मिलते और बतियाते रहे हैं. बीमारी के बाद वे फिर सक्रिय हुए थे. पर आंखों की बीमारी के चलते धीरे धीरे उनका देखना बंद होता गया. हालांकि रोशनी खो कर भी वे बातचीत करते रहे हैं कभी पत्नी भारती जी की सहायता से, कभी मिलने वाले के सहयोग से. अपने जीवन और साहित्य पर दो खंडों में मेरे द्वारा संपादित और प्रकाशनाधीन कृति ‘अन्वय’ और ‘अन्विति’ के आलेखों पर कभी वे खुल कर बातें करते थे. फिर ऐसे भी क्षण आए कि वे उसे छूकर देखते. बातों से समझते-समझाते-और अब जब वह प्रकाशनाधीन है, वे उसके आने की राह ही देखते रहे और अचानक उन्हें अस्पताल जाना पड़ा. अभी
विष्णुकुटी की महफिलें
लखनऊ स्थित उनके घर में अतिथियों के ठहरने की भी पर्याप्त जगह थी. वे संगीत के प्रेमी रहे हैं. उनकी विष्णुकुटी में कभी अज्ञेय ठहरते थे, कभी पंडित जसराज जी तो कभी इतालवी विदुषी मरिओला ओफ्रेदी. सत्यजित राय ने जब ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर फिल्म बनाई तो लखनऊ में कुंवर जी से अक्सर मुलाकातें होतीं. उनके यहां संजीदा साहित्यिकारों का जमावड़ा लगा रहता था. लखनऊ में भी सुबह उठने और टाइपराइटर लेकर कुछ न कुछ लिखने की आदत बनाए रहे. सिनेमा से उनका बेहद लगाव रहा है. एक जमाना था वे एक दिन में तीन-चार फिल्में देखते थे. अनेक फिल्म फेस्टिवल्स में उनकी मौजूदगी रही है. अभी हाल ही में लेखक का सिनेमा नामक पुस्तक आई है जिसमें उनकी गंभीर फिल्म समीक्षाएं पढ़ी जा सकती हैं. कविताएं लिखने के अलावा विदेशी कविताएं पढ़ने और उन्हें हिंदी में अनुवाद करने का गहरा शौक रहा है. ऐसी कविताओं की भी उनकी एक किताब न सीमाएं न दूरियॉं हाल ही में प्रकाशित हुई है.
लखनऊ की वे शामें
कुंवर नारायण को पहाड़ी स्थलों पर घूमने का बहुत शौक रहा है. विनोद भारद्वाज ने लिखा है, ऐसी ही एक जगह रामगढ़ में जिस बंगले में कुंवर नारायण ठहरे थे, यहां कभी रवींद्रनाथ ठाकुर ने गीतांजलि की कुछ कविताएं लिखी थीं. यह बंगला उनके एक अंग्रेज मित्र का था. रामगढ़ पर कुंवर नारायण की भी एक कविता है. जिन दिनों वे लखनऊ में रहा करते थे उनके मित्र लेखकों का जमावड़ा शाम को हजरतगंज में हुआ करता. कुछ मित्र टहलते हुए आ जाते. कैलाश वाजपेयी और कुछ मित्र रिक्शे पर. काफी हाउस उनके साथ सज्जाद जहीर, यशपाल, मजाज, भगवतीचरण वर्मा, इलाचंद्रजोशी, अमृतलाल नागर, श्रीलाल शुक्ल, ठाकुर प्रसाद सिंह, गिरिधर गोपाल और कृष्ण नारायण कक्कड़ आदि से गुलजार रहता था.
विनोदप्रिय कुंवर जी
कुंवर जी में अपूर्व विनोदवृत्ति रही है तो उनके हमजोली कवि कैलाश वाजपेयी की विनोदी प्रज्ञा कोई कम न थी. एक संस्मरण में उन्होंने लिखा है कि एक बार आलोचक देवीशंकर अवस्थी उनसे मिलने आए. परिवार में किसी ने जाकर कुंवर जी को कहा कि ''कउनौ दैवी संकट आवा है'' कुंवर जी सकते में आ गए पहले तो अस्तित्व ही एक संकट, दूसरे महानगर में रहने का संकट. उस पर यह तीसरा संकट कौन सा आ गया--यही सोचते हुए बाहर आए तो देखा देवीशंकर अवस्थी खड़े हैं. ऐसी ही एक घटना श्रीलाल शुक्ल के साथ घटी. ‘71 में लखनऊ में बाढ़ में कई हिस्से पानी में डूबे थे. कुंवर जी का मकान पांच फुट पानी में था; लिहाजा वे ऊपरी मंजिल में चले गए थे. परिवार कोलकाता में था, बिजली गायब थी. खाना बड़े भाई के यहां से नाव पर आता था. रास्ता खुल जाने पर एक दिन श्रीलाल जी कुंवर जी के घर गए कि उस मकान के अर्ध एकांत में कुछ दिन गुजारेंगे और रचनाधीन उपन्यास आगे बढ़ाएंगे. कुंवर जी भी यह जान बेहद खुश हुए. पर उस रात सोने से पहले कुंवर जी ने उन्हें द साइक्लाजी आफ डर्टी जोक्स पकड़ाते हुए कहा कि देखो ऐसे विषयों पर भी पश्चिम में कितनी गंभीरता से काम किया जाता है. और फिर उस किताब में श्रीलाल जी ऐसे डूबे कि उपन्यास को आगे बढ़ाने का काम भूल ही गए. फिर तीन दिन बाद जब लौटने को हुए तो कुंवर जी ने नहले पर दहला जमाया कि ‘पंडिज्जी, जल्दी क्या है, चार छह दिन और रुकिए और उपन्यास पूरा कीजिए.‘
वे क्षण जब कुंवर जी से मिले रामधारी सिंह दिनकर
‘आत्मजयी’ कुंवर नारायण के जीवन की शुरुआती कृतियों में है. यह जीवन के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण और चिंतन से भरी है. कुंवर जी ने ‘आत्मजयी’ लिख कर राष्ट्रकवि दिनकर को चौंका दिया था. उनसे मिलने आए दिनकर ने युवा कुंवर को देखकर पूछा था: ‘तुम्हीं कुंवर नारायण हो?’ फिर ‘जी’ सुनने के बाद संशय में डूबते-उतराते हुए दिनकर ने कहा था: ‘ये बताओ जब तुमने अभी ‘आत्मजयी’ लिख डाली है तो बुढ़ापे में क्या लिखोगे!’ एक ऐसा ही वाकया हजारीप्रसाद द्विवेदी से मुलाकात का है. कुंवर नारायण ने उनकी किसी पुस्तक की एक पत्रिका में समीक्षा करते हुए उसकी काफी धज्जियां उड़ाई थीं. इसलिए जब किसी आयोजन में हजारीप्रसाद द्विवेदी को देखा तो उनसे बचने लगे. पर पंडित जी ने उनकी झिझक भांप ली और स्वयं मिलने आए तथा कहा कि ‘बहुत अच्छा लिखा है तुमने.‘
(डॉ ओम निश्चल हिंदी के सुपरिचित कवि, आलोचक और कुंवर नारायण के जीवन तथा साहित्य पर दो खंडों में प्रकाशनाधीन ग्रंथ 'अन्वय और अन्विति' के संपादक हैं.)