फिलहाल जीडीपी, जीएसटी, तेजोमहल, पगलाया विकास, गुजरात चुनाव, गौरव यात्रा, बाबाओं के रोमांस आदि-आदि का शोर इतना अधिक है कि इस कोलाहल में भला भूखेपेट वाले मुंह से निकली आह और कराह की धीमी और करुण आवाज कहां सुनाई पड़ेगी. ऐसी ही एक ताजातरीन आवाज यह थी कि वैश्विक भूख सूचकांक में भारत ने शतक बना लिया है. पिछले साल यह तीन अंकों से चूक गया था. खुशी की बात यह भी है कि वह अपने इस स्थान पर पिछले उन 11 सालों से लगातार जमे रहने में सफल रहा है, जबसे इस सूचकांक की शुरुआत हुई थी. कुल देशों की संख्या 119, और इसमें भारत का स्थान है 100वां.
यह है मेरा देश महान, अच्छे दिन, विश्व की महान शक्ति तथा दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली आर्थिक गति की भयानक सच्चाई, जिस पर न तो राष्ट्रीय आर्थिक समिति बात करती है, न अर्थशास्त्री, न राजनेता, न बुद्धिजीवी और न धार्मिक बाबा.
आंकड़े और सत्य चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि लाखों टन अनाज और सब्जियां गोदामों में सड़ रही हैं. फिर भी आजादी के 70 सालों बाद भी इस देश का हर तीसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है. चिंता साफ है कि पिछले लगभग डेढ़ दशक में हमारे यहां जिस तेजी से जीडीपी बढ़ा है, वह गया कहां, जिसके बारे में जनशायर दुष्यंत कुमार ने कुछ इस तरह जानना चाहा है कि “बांध का यह पानी आखिर रुक कहां गया है?”
थोड़ा हटकर एक अलग पक्ष की तस्वीर. युवा भारत में हम हर दिन अपने 14 से 29 साल की आयु वर्ग के लगभग डेढ़ सौ युवाओं को उनके द्वारा आत्महत्या किये जाने से खो रहे हैं. इसका मुख्य कारण है, उनके अंदर घर कर गई घोर हताशा, जहां उन्हें आशा की कोई किरण दिखाई नहीं देती. ऐसे युवाओं का प्रतिशत जो जीवित तो हैं, लेकिन घोर निराशा के शिकार हैं, लगभग 55 के आसपास पहुंच गया है. इसी की परिणति हम ड्रग्स आदि की बढ़ती हुई लत के रूप में देख रहे हैं. निःसंदेह रूप से इनमें बड़ी संख्या बेरोजगार युवाओं की है, जो लगातार बढ़ती ही जा रही है. यह वह वर्ग है, जिसके आधार पर हम दुनिया के सामने गर्व से कहते हैं कि “हम दुनिया के सबसे युवा राष्ट्र हैं.”
लेकिन क्या जो रोजगार में हैं, उनकी मानसिक स्थिति बेहतर है? हम भारतीयों को कामकाज की आपाधापी में जिंदगी की एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है. इस बार के “विश्व मानसिक दिवस” का विषय था- “कार्यस्थल पर मानसिक स्वास्थ्य.” इसमें यह बात सामने आई कि भारत के कर्मियों को हृदय रोग का खतरा 60% है, जबकि वैश्विक स्तर पर यह 48% है. काम करने के तनाव की रेटिंग भारत में सर्वाधिक है. यही कारण है कि लगभग 40% लोग लगातार अपनी नौकरीयां बदलने के चक्कर में ही पड़े रहते हैं. और यह सब वैश्वीकरण के फैलाव के कारण हुआ है. इससे पहले स्थिति इतनी बुरी नहीं थी.
कुछ इन तस्वीरों के बरक्स यह एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल खड़ा होता है, जिस पर वक्त रहते ही पूरी संवेदनशीलता के साथ और समग्रता से विचार किया जाना चाहिए. सवाल यह है कि यदि इस भूमंडलीकरण के कारण भूखमरी नहीं मिट रही है, लोगों को रोजगार नहीं मिल रहा है, जिन्हें मिल गया है, वे खुश नहीं हैं, जीने की बजाय मरना बेहतर नजर आ रहा है, तो आप इस वैश्वीराज का करेंगे क्या? दो करोड़ से भी कम आबादी वाले स्पेन से यदि उसकी लाखों की आबादी वाला केटोलोनिया नामक प्रांत अलग होने के लिए मतदान करता है, तो यह कहीं न कहीं इस वर्तमान विश्व-व्यवस्था के प्रति व्यक्त किया गया घोर असंतोष ही है. यहां यह जानना रोचक होगा कि स्पेन का यह राज्य वहां का सबसे समृद्ध प्रांत है.
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Oct 21, 2017
आखिर किसके लिए है यह ग्लोबलाइजेशन?
Dr Vijay Agrawal
- ब्लॉग,
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Updated:अक्टूबर 21, 2017 22:30 pm IST
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Published On अक्टूबर 21, 2017 22:30 pm IST
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Last Updated On अक्टूबर 21, 2017 22:30 pm IST
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