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This Article is From Apr 21, 2015

अभिषेक शर्मा की कलम से : किसानों की मौत के आंकड़े तो सरकार के गुलाम हैं?

Abhishek Sharma, Vandana Verma
  • Blogs,
  • Updated:
    अप्रैल 21, 2015 17:09 pm IST
    • Published On अप्रैल 21, 2015 16:00 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 21, 2015 17:09 pm IST
नंबर चीज ही ऐसी है, जिसकी सरकार होती है, उसके हिसाब से बोलते हैं। आंकड़े सरकारों के गुलाम होते हैं, ये आपने सुना होगा, लेकिन समझना हो तो लोकसभा में केन्द्रीय कृषि मंत्री के भाषण को सुनिए। कह रहे थे कि महाराष्ट्र में सिर्फ तीन किसानों ने मौत को गले लगाया पिछले तीन महीनों में, यानी बेमौसम बारिश और ओले के बाद। सरकार इन तीन को भी इसलिए मान रही है, क्योंकि किसान लिखकर मरे थे कि वह क्यों खुदकुशी कर रहे हैं? बाकी के जो जनवरी से लेकर मार्च 2015 के बीच 558 किसान राज्य में मारे गए हैं, वह सरकार की नज़र में तकनीकी गलती कर गए हैं। मरने के पहले ये नहीं बता कर गए कि क्यों जा रहे हैं दुनिया से, इसलिए इनको हमारी सरकार देहात में फैले अवसाद का हिस्सा नहीं मान सकती। वह नहीं मानती कि बेमौसम बारिश और ओले ने इन किसानों को मरने के लिए मज़बूर किया। केन्द्रीय कृषि मंत्री गलत नहीं हैं कि मरे तो सिर्फ 3 किसान हैं। बाकी के सब तो सरकारी थ्योरी के शिकार हो गए।

आज अक्षय तृतीया है। किसान पूजन कर खरीफ की फसल बोते हैं, लेकिन अकोला के एक गांव में पूरे परिवार ने मौत को गले लगा लिया। पांच लोगों के शव खेत से मिले। सरकार ने कहानी बनाई किसान का ज़मीन को लेकर विवाद चल रहा था। विदर्भ, मराठवाड़ा के किसानों की कोई भी कहानी उठा कर देख लीजिये आपको हर सरकारी कहानी में दम नज़र आएगा। सबके पैटर्न लगभग एक सरीखे हैं। खुदकुशी के तुरंत बाद पुलिस मौके पर जाएगी। आला अफसरों को इत्तला मिलेगी। सबसे पहले पारिवारिक वज़ह खोजी जाएंगी। वह मिल गई तो सरकार का काम पूरा। मीडिया को बता दिया जाएगा कि किसान अपने कर्मों की वज़ह से मर गया है। और अगर पारिवारिक वज़ह न मिली तो समझिये बचा हुआ काम दारू की कहानी पूरी कर देगी। ज्यादा पीता था, कर्ज में था, इसलिये मर गया बेचारा।

अब तक मुझे ऐसा कोई आंकड़ा नहीं मिला है, जो बताए कि विदर्भ और मराठवाड़ा के किसान देश के दूसरे इलाकों की तुलना में ज्यादा पीते हैं।

ताज्जुब न करिये कि राज्य में वही सीएम हैं, जो मौत के आंकड़ों पर अब से कुछ महीने पहले चीखते थे। पूरी दुनिया को बताते थे कि कैसे विदर्भ और मराठवाड़ा के किसानों के साथ नाइंसाफी हुई है। सिंचाई के लिए पानी नहीं मिला है इसलिये किसान खुदकुशी कर रहा है। विदर्भ में जमकर प्रचार हुआ। खुद नरेन्द्र मोदी चाय पर चर्चा के लिए आए। यवतमाल में एक शाम किसानों के साथ बात की। मैं भी उस दिन वहां गया था। मोदी जी किसानों की विधवाओं से मुलाकात की थी। तब से अब तक बदला कुछ नहीं है। सिंचाई की योजनाएं अब रातोंरात तो बन नहीं सकती, इसलिये ये मानने में कोई हर्ज नहीं कि नाइंसाफी जारी है। बस शिकायत है तो इतनी-सी कि जब लोग मर रहे हैं तो हम मान क्यों नहीं रहे। सरकारी महकमे मीडिया को गलत साबित करने में मेहनत क्यों कर रहे हैं ?

सरकारें थोड़ी-सी दया दिखाएं, आंकड़े आपके गुलाम हैं, उनको हुक्म दें कि वो सच बताएं। बताएं कि हर वो किसान जो मर रहा है उसके मरने की फौरी वजह कुछ और हो सकती है लेकिन बड़े पैमाने पर उसके आसपास के हालात उसे जीने नहीं दे रहे।

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