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This Article is From Apr 14, 2022

सबका भारत या एकतरफा भारत? - पार्ट 4

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 15, 2022 12:04 pm IST
    • Published On अप्रैल 14, 2022 21:53 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 15, 2022 12:04 pm IST

आंकड़ा नहीं है लेकिन सोशल मीडिया में उपलब्ध सामग्रियों और व्यक्त विचारों के आधार पर पता चलता है कि इस वक्त सबसे बड़ा झगड़ा केवल हिन्दू-मुस्लिम का नहीं है. केवल मुसलमानों के प्रति नफरत का प्रसार नहीं हो रहा है बल्कि रिश्तों के आधार पर भी नफ़रत फैल रही है. परिवारों में अनादि काल से झगड़े चले आ रहे हैं. वहां भी मर्ज़ी किसकी चलेगी इसकी लड़ाई चलती रहती है और बहसों का उत्पादन होता रहता है. इसी को हमने सकल घरेलु संबंध कहा है.

फिलहाल के लिए आप सकल घरेलू उत्पादन को लेकर हो रहे झगड़े को छोड़ दीजिए. सच कहूं तो जीडीपी की ग्रोथ फोरकास्ट करने वाले बाबाओं से बहुत परेशान हो गया हूं. अभी इसका सपना देखते हुए महीना भर नहीं बीतता है कि भारत की जीडीपी 8.5 प्रतिशत रहेगी, कोई न कोई आ जाता है और कांट छांट कर देता है कि सात प्रतिशत रहेगी तो उससे भी कम रहेगी. कभी रिज़र्व बैंक जीडीपी घटा देता है तो कभी विश्व बैंक घटा देता है. क्या आपको याद है कि किस साल किसी ने कहा था कि भारत की जीडीपी 8 प्रतिशत रहेगी और उतनी हो गई या उससे ज़्यादा हो गई. ये किस साल हुआ था और कितने साल पहले हुआ था?

आप कितनी सूचनाओं का हिसाब रखेंगे और यह भी कहना सही नहीं होगा कि सूचनाओं का महत्व नहीं है. ख़बरें तो छप ही रही हैं. लेकिन मैंने देखा है कि व्हाट्सएप ग्रुप में बहुत ही कम ऐसी सूचनाएं साझा होती हैं जिन्हें हम ख़बर समझते हैं. नागरिक चेतना के लिए ज़रूरी समझते हैं. मैं केवल गुडमार्निंग मैसेज की बात नहीं कर रहा और न हीं पत्नियों को लेकर बनाए जाने वाले लतीफों की कर रहा हूं. ऐसे सामाजिक परिवेश के बीच सूचनाओं के प्रति निष्ठा कभी कभी हिल जाती है. कभी-कभी. जिस तादाद में आध्यात्मिकता के कारोबारी चारों तरफ नज़र आ रहे हैं मुझे लगा कि न्यूज़ में भी आध्यात्मिकता का स्कोप है. न्यूज़ आध्यात्मिकता वो आध्यात्मिकता है जिसके तहत जब तेल महंगा हो तब समाज में किसी वीर पुरुष की चर्चा की जाती है. जब बेरोज़गारी बढ़ जाए तो शहर में बने सुंदर पार्क का मनोहारी दृश्य दिखाया जाता है. ताकि दिखे भी नहीं और दिखाने का काम भी जारी रहे. न्यूज़ आध्यात्मिकता क्या है इसे आप आने वाले समय में विस्तार से समझेंगे.

मैं एंकर हूं. अग्नि के हिसाब से भयंकर हूं, जल के हिसाब से प्रलंयकर हूं. मेरी वाणी से निकली ख़बरों की गंगा इंसानों के विवेक जगत में जलजला पैदा कर देती है. गोद में बैठे गोदी मीडिया के श्राप से घास की दूब के नीचे दबे विवेक भी जल कर ख़ाक हो जाते हैं. मेरे काम के रास्ते में न तो गाली देने वाले वीडियो की कमी है और न ही तलवार चमकाने वाले वीडियो की फिर भी कभी कभी भाग्य की रेखाएं मुझे उलझा लेती हैं. नित्य ही प्रात: काल मन में ख़्याल आते रहते हैं कि हिन्दी मीडियम के युवाओं को कैसे स्विस चॉकलेट की कथा सुनाऊं तभी आकाशवाणी होने लगी. वत्स तुम स्वामी सीरीज़ करो. स्विस चॉकलेट की चिन्ता छोड़ो. स्वामी बन कर तुम जो भी कहोगे लोग दास बन कर सब स्वीकार करेंगे. जगत में झगड़ा केवल हिन्दू मुस्लिम का नहीं है, सास बहू का भी है. इस झगड़े के कारण बहुत से मकान भीतर-भीतर ढहे जा रहे हैं. कोई को मायका भागना पड़ रहा है तो किसी को जमायका भागना पड़ रहा है. धर्म के नाम पर हिंसा करने वाले युवाओं को तुम रास्ते पर लाने का प्रयास मत करो. उन्हें सूचनाओं की ज़रूरत नहीं है. तुम न्यूज़ आध्यात्मिकता की बातें करो. अपने दर्शकों को पताल लोक में ले जाओ, वहां से एक गुप्त दरवाज़ा खुलेगा, बहुत गर्म हवा का झोंका आएगा, लेकिन घबराना मत, यह वही मार्ग है जिसे गर्त कहते हैं. गर्त की गति पर चलो, सदगति मिलेगी. स्वामी सीरीज़ करो. नौकरी सीरीज़ बंद करो. इस आकाशवाणी का जो भी तिरस्कार करेगा, उसका टीवी म्यूट हो जाएगा.

इसी आकाशवाणी को सुनते ही लगा कि प्राइम टाइम में स्वामी सीरीज़ होनी चाहिए. दर्शकों को सांसारिक दुखों से मुक्ति का मार्ग चाहिए. बहुत से दर्शक मुझे पानी बिजली की समस्याओं में उलझा कर ख़ुद यूटयूब में क्या देखते हैं, पता चल रहा है. दर्शकों के कल्याण का एकमात्र उपाय है, प्राइम टाइम का स्वामी सीरीज़. यह व्यंग्य प्रधान कार्यक्रम तो है मगर एक बार प्रधानी का चुनाव लड़ कर देख लीजिए, राजनीति की सारी समझदारी हवा हो जाएगी. न्यूज़ आध्यात्मिकता एक नया मार्केट है. स्वामी सीरीज़ एक किस्म का स्टार्ट अप है. यूनिकार्न है. अगर कोई इसमे निवेश करना चाहता है तो स्वागत है, ऐसे सीरीज़ में निवेश करने से छापे भी नहीं पड़ेंगे, स्वामी सीरीज़ का मुख्य उद्देश्य किसी से टकराना नहीं है बल्कि टरकाना है. तो आज का विषय है सास बहू का झगड़ा. जम्बूद्वीप में लाउडस्पीकर को लेकर झगड़े हो रहे हैं. पर ये क्यों हो रहे हैं?

अलीगढ़ में एबीवीपी के युवाओं ने मांग की है कि शहर के चौराहों पर लाउडस्पीकर लगाकर पाठ होगा. यह कितनी सुंदर बात है लेकिन यह सुंदरता केवल चौराहे से गुज़रने वालों को ही क्यों नसीब हो. मुंबई में रोज़ ही दावेदारी हो रही है कि यहां पाठ होगा, वहां पाठ होगा. कमाल का आइडिया है. हम झगड़ा क्यों कर रहे हैं? क्यों न हर हाउसिंग सोसायटी के गेट पर लाउडस्पीकर लगा दें, स्कूल के बाहर लगा दें, अस्पताल के बाहर तो अनिवार्य रूप से लगा दें, ताकि कोई कहीं से भी गुज़रे लाउडस्पीकर से आ रही आवाज़ को सुने बग़ैर गुज़र ही न सके. जब तक मस्जिदों से सारे लाउडस्पीकर नहीं उतर जाते तब तक इसके नाम पर शहर के हर कोने में लाउडस्पीकर लगा देना चाहिए. हिन्दू मुस्लिम नेशनल सिलेबस में लाउडस्पीकर का बहुत रोल है. सौ साल से इस पर बहस हो रही है, अब ऐसी हर जगह को अवैध घोषित कर दिया जाए जहां लाउडस्पीकर न लगा हो. शहर में हर पल पाठ होता रहे. ताकि किसी धर्म को इस बात की शिकायत न रहे कि सामने वाले धार्मिक कार्य के लिए लाउडस्पीकर का इस्तेमाल करते हैं. राज ठाकरे भी राज करें और उद्धव ठाकरे भी राज करें. 

प्राइम टाइम के स्वामी सीरीज़ का एक ही मकसद है टकराव के दिनों में टरकाने की आध्यात्मिकता का प्रसार करना. हम विश्व गुरु बनने की राह पर हैं. जब दिखाने से नहीं दिख रहा तो क्यों न ऐसा दिखाया जाए जिसमें कुछ दिखे ही नहीं. उस असीम शक्ति की कृपा आप पर भी बरसे जिसने सड़कों पर भीड़ छोड़ रखी है, जिसके निर्देशों के पालन में भीड़ की शक्ति असीम हो गई है. 

हर दूसरा आदमी मुझे सलाह देता है कि न्यूज़ से दूर रहो. सरकार से सवाल पूछना बंद कर दो. किसी को फर्क नहीं पड़ता है. जो होना है, होकर रहेगा. इस देश में हिन्दू मुस्लिम का सिलेबस कभी बंद नहीं होगा, यह सिलेबस मोहल्लों में हिन्दी मीडियम लड़कों को टॉपर बना रहा है. हे एंकर तुम समय नहीं हो, बल्कि इस समय में तुम असमय हो. अगर तुम्हारे शहर में समंदर का किनारा नहीं है तो इस देश में समंदर के किनारों की कोई कमी नहीं हैं. वहां जाकर विश्राम करो. लाइफ का लुत्फ़ उठाओ. स्वामी बन जाओ.

वैसे ये है तो व्यंग्य मगर इसकी गंभीरता को समझने के लिए कुछ योग्यताओं का होना बहुत ज़रूरी है. इस कार्यक्रम को वही दर्शक समझ सकते हैं जिन्होंने कालेज की पढ़ाई के बाद कम से कम बीस साल से कोई किताब नहीं पढ़ी है. कई साल से कहानी की भी कोई किताब न पढ़ी हो. जिनके घर में हर चीज़ हो लेकिन एक ढंग की किताब न हो. सिर्फ वही लोग इस व्यंग्य को समझ  सकते हैं जो व्हाट्स एप में आए हर मीम से इतिहास सीख रहे हैं. तो सकल घरेलु संबंध के तहत हम पारिवारिक झगड़ों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं.हमने देखना शुरू किया कि अखबारों में रिश्तों को बेहतर करने के लिए क्या क्या छप रहा है. क्या पता यही उपाय हिन्दू मुस्लिम रिश्तों को बेहतर करने के काम आ जाए. जब ऐसी खबरों को पलट कर देखा तो लगा कि यहां तो घर घर में ही जुलूस निकला हुआ है. 

सास को खुश करने के 5 आसान तरीके पर नज़र पड़ी तो पता चला कि शादी के बाद लड़कियों को सबसे ज्यादा इसी बात की टेंशन लगी रहती है.हमें लगा कि लड़कियां व्हाट्एस एप ग्रुप में धर्म विरोधी मीम ठेलने में लगी होंगी पर यहां तो उन पर सास को खुश करने का भी लोड आ गया है. नवभारत टाइम्स की इस खबर से समझने में मदद मिली की सास को मनाने के लिए ज़रूरी है कि बहू सास के नेचर को समझें, नेचर को बदलने का प्रयास न करे, बल्कि पता करें क्या पसंद है, पति को बीच में न लाएं और मां जैसा सम्मान देना होगा. इस तरह के झगड़ा सुधार लेखों में सास झगड़ालू है, चालाक है वगैरह वगैरह. लेकिन झगड़ा एकतरफा तो होता नहीं. इसलिए नवभारत टाइम्स ने सास के एंगल से भी खबर छापी है कि बहू को खुश करने के 5 आसान तरीके क्या हैं. क्या इन आसान तरीकों को अपना कर हम भारत में हिन्दू मुस्लिम एकता स्थापित कर सकते हैं? जैसे इसमें लिखा है कि नई बहू पर किसी तरह का दबाव न डालें, सपोर्ट करें. बेटे के साथ समय बिताने दें. कोई काम नहीं आता है तो बहू को सिखाएं. साथ में समय भी बिताएं. टाइम्स आफ इंडिया में पिछले साल मई में छपा एक लेख मिला. toxic in laws यानी ज़हरीले सास ससुर से अपनी शादी को कैसे बचाएं. यानी अंग्रेज़ी बोलने वाले भी इस लफड़े में परेशान हैं. इसमें लिखा है कि पति और पत्नी को मिलकर सास ससुर का सामना करना है, एकजुटता बनाए रखनी है, पत्नी के बारे में मां बाप की गासिप यानी चुगली न सुनें. ओह तो मां बाप लोग ये काम कर रहे हैं, बहू के बारे में गासिप फैला रहे हैं और भीतर भीतर व्हाट्स एप ग्रुप में धर्म विरोधी नफरती मीम भी ठेल रहे हैं. do you get my point/ now I know you, now I see you, now I tell you, ज़हर केवल धर्म को लेकर नहीं है, बहू के प्रति भी है. My dear toxic in-laws, shame on you. बेटे बहू से निवेदन है कि toxic in laws का व्हाट्स एप चेक करें.अगर वो नफरती मीम ठेलने वाले हुए तो मुमकिन है कि फैमिली में बहू के बारे में भी toxic यानी ज़हर फैलाते होंगे. हम सबको मिलकर वायु और ध्वनि प्रदूषण दोनों से लड़ना है.विश्व गुरु के आंगन में toxic in-laws तो भयंकर मामला है. मेरा प्रश्न है कि क्या जब किसी धर्म विशेष से नफरत का टाइम आता है तब toxi in laws यानी ज़हरीले सास ससुर और बेटा बहू सब एक हो जाते हैं? मतलब क्या एक समुदाय के प्रति ज़हर से परिवार के भीतर जो ज़हर फैला होता है वो कम हो जाता है?

इन लेखों को बिल्कुल आप नारीवादी नज़रिए से पढ़ सकते हैं,इन सबमें कुल मिलाकर मर्द ही चैंपियन बनते हैं. जैसे हिन्दू और मुस्लिम को भिड़ा कर उनका राज कायम हो जाता है. हम बस यही देखना चाहते थे कि क्या आपके घरों में सबका भारत है, सबको बराबर की हिस्सेदारी मिली है या वहां भी एकतरफा भारत ही है? चेष्ठा सक्सेना मशहूर व्यंग्यकार औऱ यू ट्यूबर हैं. पुष्पा जिज्जी के नाम से शो आता है. आज हमने चेष्ठा के शो का काफी सहारा लिया है. उन्होंने बुंदेलखंड की बोली को भी हिन्दी की मुख्यधारा में बहुत खूबसूरती से स्थापित किया है. उनके इस व्यंग्य में दो बातें हैं. एक तो बिग बॉस टाइप आवाज़ जो सास की है और फिर बहू को बुराई सुन कर परलोक से सास की जो आवाज़ आती है उसमें एक संदेश भी है. उनके लिए जो तलवार लेकर सड़कों पर घूमे फिर रहे हैं.

अरी मैं तो ऐसी अच्छी स्वभाव की थी, पूरे गांव में हंसत खेलत फिरत थी जे तुम्हारे दद्दा से ब्याह क्या हुआ, सब जिंदगी में ही बर्बाद हो गई, जिन्हें मैं हंसना खेलना पसंद नहीं थीं, ये तो दबाते गए, मैं क्या बताऊं सो मैं हो गई भारी चिढ़चिढ़ी जब तुम आई तब तक मैं ऐसी कटखनी हो गई सो मैं लगल लगी तुम औरों की बुराई. सही कह रही हैं अम्मा. तुम हमऊं समझती तो मिल जुल कर रहती है. बेकार में लड़ते लड़ते निकल गई. मिल जुल कर रहेंगे. अब तो गए सो गए. कुछ तुमसे हो गई कछु हमसे हो गई. माफ करिए. अब तुम न लड़िओ. हम हमारी न करिओ बुराई. 

घरों में सत्ता का संघर्ष चल रहा है. अविश्वास की ऐसी ऐसी कहानियां और उनका दर्द लेकर लोग बैठे हैं कि उनके बीच हम हर रात उनकी कहानी लेकर जाते हैं जिन्हें रोज़ धर्म के नाम पर गाली दी जाती है, अपमानित किया जाता है तब उस समाज पर, उस परिवार पर कोई असर नहीं पड़ता है. इसलिए लगा कि स्वामी सीरीज़ ही किया जाए ताकि जनता को उसकी समस्याओं से मुक्ति दी जा सके. जब हमने अखबारों में रिसर्च करना शुरू किया तब हमारी धारणा टूटने लगी कि सबका भारत है. पता चल रहा है कि समाज में और भी एकतरफा झगड़े चल रहे हैं. तभी मैं कहूं कि धर्म के आधार पर नफरत न करने की मेरी अपील का असर क्यों नहीं होता,एक जवाब मिल गया,  क्योंकि समाज तो दस तरह के और झगड़ों की नेट प्रैक्टिस में लगा हुआ है. 

अक्‍टूबर 2021 में नवभारत टाइम्स ने बहुओं को हिदायत देते हुए छापा कि अगर आप सास के साथ बिगाड़ नहीं चाहते हैं तो उनसे ये चार बातें न कहें. जैसे सास को न कहें कि हमारी जिंदगी में दखल न दें, ये तो बिल्कुल न कहें कि मैं आपके बेटे को आपसे बेहतर जानती हूं. वर्ना घर की रसोई के सारे बर्तन ड्राईंग रुम में आ जाएंगा. और हां इस लेख के अनुसार सास को बिल्कुल न कहें कि काश! आपने अपने बेटे को कुछ सिखाया होता. मगर कोई बात नहीं बहुओं. उसी नवभारत टाइम्स में छपा है कि जब मिल जाए चालाक सास तो बहू ऐसे संभाले बात. घबराना नहीं है चालाक सास से. इसमें लिखा है कि कई बार ऐसी सास मिल जाती ह जो नेचर से चालाक हो और हर चीज़ में नाकारात्मकता ही तलाशती हो. बताइये हमें लगा कि समाज केवल दूसरे धर्म से नफरत करने में व्यस्त हैं यहां तो घर घर आग लगी हुई हैं. घरों में चल रहे इस सत्ता संघर्ष को चेष्ठा ने अपने वीडियो में क्या खूब उतारा है. 

“मैं नहीं जानती अम्मा, मैं अकेले अकेले करके तंग आ गई. अकेले काम नहीं होत घर में कोई सपोर्ट नहीं, मैंने भी अकेले न 18 18 घंटा काम करे हो, खुद से आत्मनिर्भर हूं. फालतू अकेले . ते न बहू हमेशा मेरे विपक्ष में बोली नहीं तो भक्त बन जाऊं अम्मा, झूठी तारीफ करूं तुम्हारी, भक्त ऐसे होते हैं क्या, भक्तन की जवाब नहीं चलत ये भक्त बनेगी मेरी. मुजे नहीं मालूम, अकेले काम नहीं  जब तक घर की डोरी मेरे हाथ में है मेरी चली है, रहना है तो रह नहीं तो निकल जा घर से. मेरी चल रही है मेरी सत्ता है. चला तो अममा है. मेरे हाथ में भी तो आएगी तब मैं देखूंगी. चाय बना लो मेरे लिए दिन भर चाय चाय. चाय ने बचा कर रखे गो. छह साल से चाय के बल पर चल रही हूं. जा बना कर ले आ.”

इसलिए प्राइम टाइम का स्वामी सीरीज़ बहुत ज़रूरी है,समझने के लिए जो समाज हर दिन घर में हिंसा को अलग अलग तरीके से बर्दाश्त कर रहा है, वह समाज क्यों बाहर हो रही हिंसा का विरोध करेगा. हिंसा के साथ उसके जीने की आदत हो गई है. अभी हमने सास वाला ऐंगल ही चुना है लेकिन ऐसे बहुत से और मिलेंगे बल्कि ज्यादा मिलेंगे जिसमें बहू को विलेन बनाया जाता है. 

बहू से..क्या मिठाई बनवा रही है, वो जानती है कुछ बनाना, सब हमारे ऊपर है तुम तो जानती हो हम कितने काम, फुर्तीले, शुरू से, काम में कभी नहीं किया, कोई नहीं संभाल सकें अब तुमको बताएं, पहली बार ब्याह होकर आई बहू से कही कि बनाओ रसगुल्ला, मिठाई तो बनता ही है, अब तुमको क्या बताए, सच्ची में ऐसी रसगुल्ला बनाए, पथरा से मारो तो काहो को मुंह फूट जाए, कसम से झूठ न बोेले. हमने तो करम पीट लेई कि जे आई हैं हमारे पास. बातें तो बड़ी बड़ी करती हैं. सब कुछुहि हमीं हम लगे हैं. भाई साहब हमारी बहू पहली बेर गुलाब जामुन बनाई का बताएं कछु नहीं जानती …म्यूज़िक है.

परिवारों में बराबरी की जगह के लिए संघर्ष चल रहा है. जिन परिवारों में बराबरी आई है वहां शांति भी है दोस्ती भी है और खुशी भी है लेकिन जहां जहां कंट्रोल की राजनीति है उन्हीं घरों में सड़क पर कंट्रोल की राजनीति के समर्थक हैं. हो सकता है बराबरी वाले भी हों लेकिन ज्यादातर गैर बराबरी वाले ही मिलेंगे.जिन परिवारों में शांति नहीं है क्या वहां धर्म के नाम पर हो रहे फसाद को देखकर शांति आ जाती होगी? और जिन परिवारों में शांति नहीं है वहां क्या अखबारों में बताए जाने वाले उपायों से शांति आ जाएगी?  

ये सच है कि चाहे सास जैसी भी हो, लेकिन वो अपने बेटे के लिए एक केयरिंग मां ही होती है, ऐसे में उन्हें जिंदगी में से बाहर नहीं किया जा सकता. तो फिर क्या करें, जिससे आप उनसे जुड़ी स्थितियों को संभाल सकें? चलिए जानते हैं. 
अलर्ट रहें 
कम्यूनिकेशन को स्ट्रॉन्ग बनाने पर काम करें
असुरक्षा के भाव को दूर करने की कोशिश
पति और ससुर को बीच में न लाएं

सास बहू के फसाद पर काफी रिसर्च हैं. एक दूसरे पर नियंत्रण करने और लगातार शक करते रहने के कारण परिवार भले न टूटता हो मगर भीतर से टूटा-टूटा ही रहता है. मार्टिन रेव, गीतांजली गांगुली, आयशा के गिल का एक रिसर्च इंटरनेशनल विमन स्टडीज़ में प्रकाशित है. 

इनके अनुसार भारतीय सास लगातार बहू के खिलाफ हिंसा करती रहती हैं. खासकर दहेज के मामले में. दोनों के बीच हिंसा और प्रताड़ना के संबंधों को गहराई से समझने की ज़रूरत है. ताकि पता चले कि भारतीय मिडिल क्लास परिवारों में कंट्रोल और पावर की लड़ाई किस स्तर पर चलती है.इस लड़ाई में होने वाली शारीरिक और मानसिक हिंसा से औरतों को बचाने की ज़रूरत है.

एक तरफ हम देखते हैं कि समाज में लोग गर्व का टोकरा सर पर उठाए चले जा रहे हैं, लेकिन जैसे ही छोटी सी ख़रोंच लगती है टोकरे का मोटरा खुल जाता है. अनैतिकता और क्रूरता के असंख्य कंकड़ भरभरा कर बाहर आ जाते हैं.

आज की ही खबर है. लड़की उससे शादी करना चाहती थी जिससे वह प्यार करती थी. पिता और उसके भाई ने मिलकर लड़की की हत्या कर दी. हत्या करने के बाद पिता और पुत्र भागे नहीं बल्कि घर गए, नहाया धोया, और आराम से चाय पीने लगे. बगल में एक और खबर छपी है कि बदायूं से भागकर प्रेमी जोड़ा अहमदाबाद गया और वहां मंदिर में शादी कर ली. प्रेमियों ने मंदिर में शादी कर ली. घर वाले नहीं माने.प्रेमी ने खुदकुशी कर ली और प्रेमिका ने भी प्रयास किया. इस खबर को कैसे सुनाएं आपको. पड़ोसी का कुत्ता भौंकने लगा तो झगड़ा हुआ और फिर कुत्ते के स्वामी पिता पुत्र को गोली ही मार दी. इलाज चल रहा है.

भारत की महिलाओं के जीवन की सच्चाई किसी दूसरे देश की महिलाओं के जैसी है या अलग है, यह हमारा विषय नहीं है, लेकिन यहां आए दिन अदालत में इस बात को लेकर बहस होती ही रहती है कि उनके देह पर किसका कंट्रोल है. जिस तरह से शोभा यात्रा में निकले युवा गालियां देते हुए बता रहे हैं कि देश पर कितना कंट्रोल है, उसी तरह पत्नी भी देह पर अपना कंट्रोल पाने की लड़ाई लड़ रही है. यहीं पर देह में देश और देश में देह दिखने लगता है. नियंत्रण की यह लड़ाई भावनाओं को लेकर भी. हमें सोशल मीडिया पर औरतों का एक ऐसा समूह मिला जिनकी पहचान उजागर नहीं करूंगा लेकिन उनकी बातों के कुछ नमूने रखूंगा ताकि आप अंदाज़ा कर सकें कि घर घर में क्या हो रहा है. एक महिला ने अपने घर के बारे में लिखा है कि 

जब मेरी मां ज़िंदा थी तब यह मेरा घर था. मैं मां और भाइयों के साथ रहती थी लेकिन उनकी मौत के बाद संपत्ति का बंटवारा हो गया. छोटे भाई के हिस्से घर आया और अब मैं उस घर में मेहमान की तरह जाती है. मैं वहां रुक सकती हूं लेकिन…एक लेकिन तो लगा ही रहता है.

 "मेरे मां बाप के दोनों बेटों ने उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया है, पिता के आईसीयू में भर्ती होने पर भी नहीं आए. मैं ही उनकी देखभाल करती हूं, मगर आज भी मेरे मां बाप को बेटों से ही प्यार है, मेरे किए काम की कद्र नहीं है. संपत्ति में अपनी दोनों बेटियों को पांच रुपया भी नहीं दिया. कहते हैं बेटों का ही हक होता है. अगर मैं और मेरी बहन अपने हक की बात करें तो कहते हैं बेटियां पराई हो जाने के बाद हक नहीं मांग सकती. मगर फिर भी मैं ही उनकी सेवा करती हूं."

“कितना याद आता है मुझे मेरा वो घर ,जिसे कभी कितनी शिद्द्त से सजाती थी . आज वहां का एक तिनका भी अपना महसूस नहीं होता. सोचा था माँ पापा के जाने के बाद हमसब भाई बहन मिलकर वहां जाया करेंगे लेकिन कब सब कुछ एकदम कैसे बदल गया पता ही नहीं चला . भाई ही हर निर्णय लेने लगा जब कि हम दोनों बहने बड़ी हैं, हमने भी कुछ सलाह के तौर बोला  तो ऐसा लगा जैसे एकदम गलत किया हो. जैसे कोई अलिखित कानून हो कि मां पापा के बाद भाई ही निर्णय लेने का अधिकारी होते हैं. उसका ये व्यवहार हमारी संवेदनों तक को भी हिला गया लगा जैसे वो जगह हमारी कभी थी ही नहीं.”

ऐसा नहीं है कि यह समाज केवल धर्म के आधार पर नफरत करने में लगा है, उसके पास नफरत करने के और भी मामले हैं. इन किस्सों से गुज़र कर यही लगता है कि समाज में कितना अविश्वास है. जब परिवार में ही विश्वास नहीं है तो दो धर्मों के बीच कैसे होगा. जैसे झगड़े और तनाव के बाद भी परिवार चलता रहता है उसी तरह देश भी चलता रहता है. जो जहां है वही हताशा में मन मार कर जी रहा है. जीवन को उल्लास की जगह बोझ बना बैठा है. इस नज़र से देखिए तो पता चलेगा कि इस जगत में ख़ुश कौन हैं, जो ग़ैरों पर हिंसा कर रहा है वही अपनों पर भी कर रहा है. सीतापुर में महिलाओं का सड़कों पर उतरना आसान नहीं रहा होगा, बजरंग मुनि को गिरफ्तार किया है तो अब उनके समर्थकों के लिए भी सड़क पर उतरना आसान हो गया है. सीतापुर की औरतों की लड़ाई दोहरी हो गई है. घर की हिंसा के साथ साथ धर्म के नाम पर हिंसा का भी विरोध करना पड़ रहा है.

कोशिश तो यही थी कि चराचर जगत की दैनिक समस्याओं से दूर होकर स्वामी सीरीज़ में न्यूज़ आध्यात्मिकता की बात करूं लेकिन सन्यासी का टकराव संसार से हो ही जाता है. अब अमरीका को कहने की क्या ज़रूरत थी कि भारत में मानवाधिकार के जो उल्लंघन हो रहे हैं उस पर नज़र रख रहा है. भारत ने भी कह दिया कि अमरीका में जो उल्लंघन हो रहा है उस पर भारत भी नज़र रख रहा है. क्या इसके बाद अमरीका में हो रहे उल्लंघनों को छोड़ कर NRI अंकिल इंडिया आ जाएंगे? आ सकते हैं, स्वामी सीरीज़ में न्यूज़ आध्यात्मिकता के प्रसार के लिए कई लोगों की मदद चाहिए.युवाओं को समझना होगा कि जब तक वे किसी शोभा यात्रा में तलवार लेकर नहीं नाचेंगे उनका कवरेज नहीं होगा, बेरोज़गारी मन का भ्रम है. अगर समय पर परीक्षा नहीं होती है तो यह उत्सव मनाने की बात है. पिछले साल दिल्ली में नफरती भाषण दिए गए. कुछ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी. दिल्ली पुलिस ने कहा है कि जांच बंद कर दी गई है क्योंकि हेट स्पीच नज़र नहीं आई. 
 

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