यह ख़बर 29 मार्च, 2014 को प्रकाशित हुई थी

चुनाव डायरी : अपनों से ही जूझता बीजेपी नेतृत्व

नई दिल्ली:

क्या यह ऐसी पार्टी है जो वाकई 10 साल बाद सत्ता के नजदीक पहुंचती दिखाई दे रही है? बीजेपी में पिछले तीन हफ्तों में मचा घमासान तो कम से कम इस बात का सबूत नहीं देता।

टिकटों को लेकर मारा-मारी, विरोध, खींचतान, पार्टी नेताओं के पुतले जलाना, नए नेताओं और गठबंधनों को लेकर विरोध को सार्वजनिक करना। एक-दूसरे के खिलाफ बयान देना। उप प्रधानमंत्री पद के लिए दो-दो दावेदारों के नाम आगे करना। या फिर यह सब घमासान सिर्फ इसलिए हो रहा है, क्योंकि बीजेपी सत्ता के नजदीक पहुंचती दिख रही है और हर शख्स सत्ता की बंदरबाट में अपना हिस्सा चाहता है?

बीजेपी में इस वक्त 'फ्री फॉर ऑल' क्यों है? ऐसा क्यों लग रहा है कि केंद्रीय नेतृत्व कमजोर पड़ रहा है? क्यों पार्टी के नेता आगे निकलने के चक्कर में एक-दूसरे के पैरों पर अपने पैर रख रहे हैं? अगर सरकार बनने से पहले ही आपसी लड़ाई का ये हाल है, तो सरकार बनने पर क्या होगा? क्या मंत्री बनने और मंत्रालयों के बंटवारे के लिए पार्टी के नेता एक-दूसरे के 'सिर कलम' नहीं कर देंगे?

दरअसल, इसके लिए बीजेपी के बुनियादी चरित्र को समझना होगा। कैडर आधारित राजनीतिक दल चाहे वे लेफ्ट पार्टियां हों या फिर बीजेपी, सामूहिक नेतृत्व के सिद्धांत पर आगे बढ़ती हैं। पहले जनसंघ और अब बीजेपी, कभी भी एक व्यक्ति का निर्विवाद रूप से नेतृत्व न तो रहा है और न ही रह सकता है।

बीजेपी की डोर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हाथों में है। यह जरूर है कि बतौर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी सरकार और पार्टी में नंबर एक के स्थान पर रहे। मगर संतुलन बनाए रखने के लिए लालकृष्ण आडवाणी को नंबर दो की जगह दी गई। इसी तरह अब जबकि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया है, पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह जोड़ी के रूप में उनके साथ दिखाई देते हैं।

लेकिन मोदी सर्वशक्तिशाली न हो जाएं, इसके लिए लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज जैसे नेताओं की नाराजगी को पार्टी नजरअंदाज कर देती है, ताकि आडवाणी-सुषमा की जोड़ी मोदी के बराबर संतुलन बनाकर रख सके। लेकिन बीजेपी में क्या दूसरे नेताओं को भी वही स्थान या ताकत हासिल है, जो आडवाणी और सुषमा को है? क्या पार्टी के दूसरे नेता भी अपनी नाराजगी सार्वजनिक कर अनुशासन की लक्ष्मण रेखा पार न करने के आरोप से बच सकते हैं? शायद ऐसा नहीं है।

जेडीयू से बीजेपी में आए साबिर अली का पार्टी के उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी ने सार्वजनिक रूप से ट्विटर पर विरोध किया। तर्क दिया जा सकता है कि श्रीरामुलु को बीजेपी में शामिल करने का विरोध सुषमा स्वराज ने भी ट्विटर पर दिया था, इसलिए नकवी ने क्या गलत किया। लेकिन नकवी ने दाऊद इब्राहीम का नाम बीजेपी से जोड़कर चुनाव के वक्त पार्टी का जबर्दस्त नुकसान कर डाला। शायद इसीलिए बीजेपी का एक धड़ा साबिर अली के साथ उनके खिलाफ भी कार्रवाई के पक्ष में है। यह जरूर है कि साबिर अली ने खुद ही अपनी सदस्यता को होल्ड पर रखने की बात कहकर पार्टी को राहत दे दी है।

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13 सितंबर, 2013 को नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया था। तब राजनीतिक जानकारों ने संभावना व्यक्त की थी कि 13 सितंबर के पहले की बीजेपी और 13 सितंबर के बाद की बीजेपी में जमीन-आसमान का फर्क होगा, क्योंकि नेतृत्व का मसला हल होने के बाद से अंदरूनी विरोध, आपसी लड़ाई-झगड़े अब सार्वजनिक नहीं होंगे, पार्टी के नेताओं के काम करने के तरीके में बदलाव आएगा, सब एकजुट होकर 10 साल से सत्ता का वनवास झेल रही पार्टी को सरकार में लाने के लिए काम करेंगे। लेकिन पिछले तीन हफ्तों के कलह ने पार्टी को सत्ता की दौड़ में पीछे धकेल दिया है। कमजोर दिखता नेतृत्व, जिसे पार्टी के भीतर से ही चुनौती मिल रही हो, क्या बीजेपी के मिशन 272 को पूरा कर पाएगा?