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This Article is From Nov 17, 2016

नोटबंदी : ये पब्लिक है, सब जानती है

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 17, 2016 13:25 pm IST
    • Published On नवंबर 17, 2016 13:24 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 17, 2016 13:25 pm IST
राजनीति जनता में भ्रम पैदा कर उस भ्रम से अपने पक्ष को मजबूत करने का काम ठीक उसी प्रकार से करती है जैसे कि एक वकील एक जज के साथ करता है. लेकिन यह तभी तक चलता है, जब तक भ्रम में सही और गलत दोनों के पुट का आभास बना रहे. आपातकाल की अनिवार्यता के भ्रम को अभी तक जनता के गले नहीं उतारा जा सका है इसलिए 40 साल बाद भी जब राजनीतिक दल उसकी आलोचना करते हैं, तो चुप्पी साधना ही एकमात्र उपाय दिखता है.

'हमें कुछ न कुछ आलोचना तो करनी ही है'
नोटबंदी के मामले में भी तो कहीं ऐसा ही फिर से तो नहीं हो रहा है? यह इस बार सत्ता पक्ष की ओर से नहीं, बल्कि कुछ अपवादों को छोड़कर सम्पूर्ण विपक्ष की ओर से है. कांग्रेस के एक वरिष्ठ प्रवक्ता से एक न्यूज़ चैनल पर कालेधन पर हुई बहस के बाद मैंने पूछा कि ‘मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि इतने स्पष्ट और जरूरी कदम पर विपक्ष जनता के मनोभाव को भांपने में इतनी बड़ी गलती कैसे कर रही है?’इस पर उनका छोटा सा ही सही लेकिन ईमानदारी से भरा जवाब था कि ‘आखिर हमें कुछ न कुछ तो आलोचना करनी ही है.’

अपनी ही विश्‍वसनीयता के प्रति भ्रम पैदा कर रहा विपक्ष
लेकिन सवाल यह है कि यह आलोचना किस कीमत पर की जा रही है? कही ऐसा तो नहीं कि विपक्ष जनता के मन में इस कदम के प्रति भ्रम पैदा करने की बजाय अपनी ही विश्‍वसनीयता के प्रति भ्रम पैदा कर रहा है? ऐसा ही हो रहा है, क्योंकि वे जिस तथ्य को लेकर आलोचना कर रहे है, और एकजुट होकर कर रहे हैं, उसका सीधा-सीधा और सम्पूर्ण संबंध जनता से ही है. संकट होने के बावजूद उतना नहीं है, जितने का डंका पीटा जा रहा है. और जितनी कुछ तकलीफें हो भी रही हैं, उनके लिए वह सहर्ष तैयार है. जब मैंने ऐसे कुछ लोगों से जानना चाहा तो उनका दो टूक उत्तर था, ‘परेशानी हमें नहीं, उन्हें हो रही है.’ इशारा बिल्कुल साफ था.

27 साल पहले भी फूटा था भ्रष्‍टाचार-काले धन के खिलाफ आक्रोश
एक सफल राजनीति लोगों की सोच को भांपने और उसका सही उपयोग करने की मांग करती है. भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ जनता के मन का असंतोष, आक्रोश के रूप में पहली बार आज से 27 साल पहले तब बुरी तरह से फूट पड़ा था, जब उसने 1989 के चुनाव में अपने प्रिय- युवा प्रधानमंत्री की पार्टी के खिलाफ मतदान किया था. उस समय विश्‍वनाथ प्रताप सिंह ने चुनाव में लगभग वही भूमिका निभाई थी जो भूमिका सन् 2014 में नरेन्द्र मोदी ने निभाई -कालेधन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक निर्णायक जंग. जनता ने उन्हें सिर-माथे पर बैठाया, और एक लंबी तैयारी के साथ अपने कार्यकाल का आधा समय पूरा करने के बाद आठ नवंबर की रात 8:00  बजे उस जंग का अचानक ऐलान कर दिया.

जनता मन ही मन फैसले भी कर रही है
लोग आश्‍चर्यजनक खुशी और उत्साह से भर उठे, बावजूद इसके कि उन्हें इसकी परेशानी का एहसास ही था. अगले दिन बैंक बंद थे लेकिन लोगों के दिल और  दिमाग नहीं. पूरा देश प्रधानमंत्री के इस साहसिक कदम की प्रशंसा करने में जुट गया, सिवाय कुछ उन राजनीतिक दलों के, जिनको इससे राजनीतिक और आर्थिक दोनों झटके लगे थे. इस घोषणा की सीधे-सीधे आलोचना करना मुश्किल था तो इस धर्मसंकट को साधा गया ‘जनता को हो रही असुविधा के नाम पर.’ और जनता है कि ‘वह सब जानती है.’ वह जानती है कि असुविधा किसको-किसको हो रही है. वह मुस्करा रही है और मन ही मन फैसले भी कर रही है. वह खुश भी है कि मुखौटे उतर रहे हैं.

लोग तय करेंगे कौन सही है, कौन गलत
जो राजनैतिक दल अपने लोगों को और समकालीन राजनीति को समझते हैं, वे इसका स्वागत भी कर रहे हैं, भले ही ऐसे समझदारों की संख्या उंगलियों पर गिने जाने लायक ही क्यों न हो. भविष्य में जनता बताएगी कि कौन सही था और कौन गलत. लेकिन राजनीति के इस मूलभूत सिद्धांत के सही होने से तो इंकार नहीं ही किया जा सकता कि ‘अपने लोगों को जानें.’‘नो योर कस्टमर.’

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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