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This Article is From Jun 10, 2016

आत्मकथाओं का सैलाब : बायोपिक फिल्मों से झांकता हमारा ही चेहरा

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 10, 2016 13:33 pm IST
    • Published On जून 10, 2016 13:27 pm IST
    • Last Updated On जून 10, 2016 13:33 pm IST
  • क्या सचमुच अब तक की भाववादी भारतीय चेतना यथार्थवादी हो गई है, या हो रही है...?
  • क्या भारत अपने लोगों के बीच से अपने सच्चे नायकों की तलाश में लग गया है...?
  • क्या आत्मकथाओं की घोर उपेक्षा करती चली आ रही हमारी वृत्ति अब आत्मप्रशंसाओं एवं जीवनियों के मोह की ओर बढ़ रही है...?

आप सोच रहे होंगे कि इस प्रकार के कुछ 'ऊलजलूल-से' लगने वाले इन प्रश्नों को अभी उठाए जाने का क्या कोई संदर्भ है...? जी हां, है... वह संदर्भ है - दो-तीन साल पहले भारत में बायोपिक फिल्मों के बनने की शुरुआत होना। संदर्भ यह भी है कि ऐसी फिल्मों की लम्बी सूची 'पानसिंह तोमर', 'भाग मिल्खा भाग' तथा 'मैरी कॉम' से होते हुए हाल ही में 'अजहर' तक पहुंच गई है। इनके अलावा सचिन तेंदुलकर, महेंद्र सिंह धोनी, संजय दत्त आदि 'फिल्म इन मेकिंग' हैं... वैसे, कुछ अन्य नामों की भी चर्चा है।

इसी के साथ-साथ देश में घटी कुछ बहुचर्चित घटनाओं पर भी कमोबेश रियलिस्टिक फिल्में बनाने की कोशिश की गई, जिनमें जेसिकालाल हत्याकांड, फुटपाथ पर सोए लोगों को कार से कुचलने तथा माता-पिता द्वारा अपनी ही बेटी की हत्या एवं अभी-अभी रिलीज़ हुई पाकिस्तानी जेल में कैद भारतीय 'सरबजीत' पर बनी फिल्में शामिल हैं।

मेरे ही द्वारा उठाए गए ऊपर के तीन प्रश्नों में से पहले का उत्तर है, हां... चाहे इसे समय की गति की स्वाभाविक देन कह लें, अथवा विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी की भूमिका, भारतीय चेतना बदल रही है। इस बदलाव का प्रमाण फिल्मों से बहुत पहले कला (विशेषकर चित्रकला) तथा साहित्य में मिलने लगा था। वह साहित्य से उतरते-उतरते धीरे-धीरे अब फिल्मों तक पहुंच चुका है। यह बात अलग है कि फिल्मों की व्यावसायिक मांगें उस सच्ची कहानी को भावनाओं की चाशनी में लपेटने की तथाकथित मजबूरी के कारण सही रास्ते से भटक जाती हैं, फिर भी शुरुआत तो हो ही चुकी है। 'सरबजीत' जैसे अंत वाली फिल्मों को स्वीकारना भारतीय चेतना की मजबूत होती पाचन शक्ति का उदाहरण है।

जहां तक 'सच्चे नायकों की तलाश' का सवाल है, इसे अर्द्धसत्य ही कहा जाएगा। फिल्मों को अपने नायक के रूप में सच्चे नायक नहीं, बहुरुपिये, बहुरंगी एवं विवादास्पद नायकों की तलाश ज्यादा रहती है। ये उस तरह के नायक होते हैं, जिन्हें पहले ही फिल्मों की कहानियों में खलनायक की तरह पेश किया जाता था; जैसे वीरप्पन... लेकिन यह आधा सच है... जो शेष आधा सच है, उसकी सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उसे कितना सच रहने दिया जाता है...? उदाहरण के तौर पर कुछ ही दिनों पहले अजहरुद्दीन पर फिल्म आई 'अजहर', जिसमें शुरुआत में ही 'डिस्क्लेमर' के अन्तर्गत गड़बड़झाला कर दिया गया। तब दर्शक के सामने सबसे बड़ा संकट यह आया कि वह उसमें से किसे 'सत्य' समझे, किसे 'सत्य का आभास' माने और किसे पूरी तरह 'अफसाना'। वह भी तब किया गया, जब फिल्म के पात्र जीवित हैं। मैरी कॉम और मिल्खा सिंह भी हमारे बीच हैं। वहां इस तरह दर्शकों को बरगलाया नहीं गया।

यहां प्रश्न यह है कि यदि आप इस तरह का 'मिश्रित' तरीका लेकर चलना चाह रहे हैं, तो कोई कहानी ही क्यों नहीं चुन लेते। या फिर कम से कम यह तो कर ही सकते हैं कि अपने लिए एक ऐसा 'सत्य नायक' चुन लीजिए, जो काफी पहले हमारे बीच से जा चुका हो। जीवंत इतिहास को इस तरह भ्रमित करने से फिल्मकारों को बचना ही चाहिए। ऐसा इसलिए भी कि अब फिल्मों को भी काफी-कुछ सीमा तक अपने समय के समाज तथा इतिहास के एक स्रोत के रूप में देखा जाने लगा है।

तीसरे प्रश्न का उत्तर भी है, हां... पूंजीपतियों के पास मौजूद अकूत सम्पत्ति अब उनमें 'अमरता का बोध' पैदा कराने लगी है। यह वृत्ति उनमें भी आ रही है, जो स्वयं को समाज का एक अतिरिक्त 'विशिष्ट व्यक्ति' समझने लगे हैं। ज़ाहिर है, इससे साहित्य में आत्मकथाओं का एक प्रकार से सैलाब आ गया है। सिनेमा में इसकी शुरुआत हो चुकी है फिल्म 'गुरु' से... देखें, यह आगे कहां तक जाती है।

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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