यूं तो पिछले पांच साल से (सन् 2013 में आई फिल्म 'लंचबॉक्स' से), लेकिन विशेषकर पिछले दो साल से हिन्दी सिनेमा के चरित्र में एक जबर्दस्त किस्म का 'यू टर्न' दिखाई दे रहा है. यदि मैं कहूं कि यह 'यू टर्न' कथानक के स्तर पर है, तो बात अधूरी रहेगी, साथ ही अविश्वसनीय भी, क्योंकि सिनेमा में सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति राज कपूर तथा विमल रॉय की फिल्मों में छठे दशक की ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों से ही मिलने लगी थी. यहां 'यू टर्न' से मेरा आशय तीन मुख्य तथ्यों से है. पहला यह कि इन फिल्मों में अब तक हाशिये पर पड़े जीवन के तत्वों को बड़ी सूक्ष्मता एवं गहराई के साथ पकड़ा गया है. छोटे-से कैनवास को विराटता प्रदान की गई है. दूसरे यह कि इन्हें जबर्दस्त कमर्शियल सफलता भी मिली है, यानी, इन फिल्मों को समीक्षकों के साथ-साथ बड़ी संख्या में दर्शकों ने भी जमकर सराहा. तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इन फिल्मों में निहित राजनीति के अर्थों को कभी-कभी प्रच्छन्न, लेकिन अधिकांशतः प्रत्यक्ष रूप से महसूस किया जा सकता है.
इस लिहाज़ से कुछ ही दिनों में आई इन तीन फिल्मों - 'स्त्री', 'सुई-धागा' और 'मंटो' को लेकर विचार किया जाना चाहिए. हालांकि इसमें दो साल पहले की फिल्म 'अलीगढ़' (2016) तथा एक साल पहले की दो फिल्मों 'टॉयलेट - एक प्रेमकथा' तथा 'न्यूटन' (2017) को भी शामिल करना बेहतर होगा. 'टॉयलेट - एक प्रेमकथा', जो मुख्यतः 'स्वच्छ भारत अभियान' से प्रभावित थी, के ही वर्ष 2018 के संस्करण के रूप में 'पैडमेन' को लिया जा सकता है.
'स्त्री', 'सुई-धागा' और 'मंटो', इन तीनों फिल्मों में एक बात जो एक-सी है, वह है - नारी की शक्ति और उसके अधिकारों की स्वीकृति. 'स्त्री' भले ही एक कॉमेडी थ्रिलर है, लेकिन उसमें स्त्री के सम्मान और शक्ति को लेकर समाज की जितनी महीन एवं गहरी परतें मिलती हैं, वह अद्भुत है. यही कारण है कि भूत-प्रेत जैसी अत्यंत अविश्वसनीय कथा होने के बावजूद उसने जबर्दस्त कलेक्शन किए.
फिल्म 'सुई-धागा' में हमें नारी की उद्यमिता की क्षमता तथा उसके जुझारूपन का स्पष्ट अनुभव होता है. इसे सीधे तौर पर 'मेक इन इंडिया', 'मुद्रा योजना' तथा 'कौशल प्रशिक्षण' की सरकारी नीतियों से जोड़कर देखा जाना चाहिए. यहां इस बात पर भी ध्यान जाना स्वाभाविक है कि 'सुई-धागा' के नायक वरुण धवन भारत सरकार की 'कौशल विकास योजना' के विज्ञानकर्ता भी हैं. यहां हमें ग्रामीण भारत की तकनीकी, जिसे शिक्षित वर्ग के बीच 'जुगाड़ टैक्नोलॉजी' कहा जाता है, की जीत के भी जयघोष सुनाई पड़ते हैं. यह जयघोष कहीं न कहीं नगरीय क्षमता पर ग्रामीण क्षमता का, मशीनी रचनात्मकता पर मानवीय स्पर्श का तथा बड़े राष्ट्रीय ब्रांडों पर स्थानीय निर्मिति का भी जयघोष है. इस प्रकार यह अप्रत्यक्ष रूप से मल्टीनेशनल के विरुद्ध स्वदेशी को प्रोत्साहित करता मालूम पड़ता है, और इस जयघोष की पताका मुख्यतः एक नारी के हाथ में है.
'तीन तलाक', निकाह हलाला तथा #MeToo जैसे विमर्शों के दौर में इस तरह की फिल्मों की प्रासंगिकता को समझा जाना चाहिए. फिल्म 'मंटो' में भी मुख्यतः 'नारी की निरीहता' व्यक्त हुई है. हालांकि इसका मुख्य स्वर एक रचनाकार के असहमत होने के अधिकार का स्वर है, जिसकी राजनीतिक व्यवस्था की पृष्ठभूमि में जमकर चर्चा हो रही है.
कुल मिलाकर यह कि फिल्मों की कथाओं में आए इस बदलाव का स्वागत है, और विश्वास है कि इसे आगे और अधिक धार मिलेगी.
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Oct 23, 2018
फिल्मों में झलकते राजनीतिक आशय
Dr Vijay Agrawal
- ब्लॉग,
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Updated:अक्टूबर 23, 2018 13:59 pm IST
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Published On अक्टूबर 23, 2018 13:59 pm IST
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Last Updated On अक्टूबर 23, 2018 13:59 pm IST
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