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This Article is From Dec 28, 2017

इतिहास के पंजों में फंसी कलाओं की गर्दन

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 28, 2017 15:51 pm IST
    • Published On दिसंबर 28, 2017 15:39 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 28, 2017 15:51 pm IST
'पद्मावती' फिल्म के बारे में अब केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने एक नया फैसला लिया है. बोर्ड ने इतिहासकारों की एक छः सदस्यीय समिति गठित की है, जो इस फिल्म के ऐतिहासिक तथ्यों की सत्यता का परीक्षण करेगी. समिति का गठन इसलिए किया गया है, क्योंकि फिल्मकार ने इसमें अंशतः ऐतिहासिक तथ्यों के होने की बात कही है.

बोर्ड का यह निर्णय बुद्धिजीवियों, फिल्मकारों, कलाकारों और यहां तक कि स्वयं इतिहासकारों के दिमाग में अनेक तरह के प्रश्नों एवं आशंकाओं को जन्म देने वाला बन गया है. इन बहुत से प्रश्नों में जो पहला और सीधा-सरल-सा प्रश्न है, वह यह कि क्या ऐसा इससे पहले की इतिहास पर आधारित फिल्मों के लिए भी किया गया था? और क्या अब ऐसा आगे की सभी ऐसी फिल्मों के साथ किया जाएगा? यदि उत्तर है-नहीं, जो कि होना चाहिए, तो फिर 'पद्मावती' के साथ ही ऐसा क्यों? इसका उत्तर जगजाहिर है. जनविरोध के कारण. यानी कि अब इतिहास पर आधारित फिल्मों को स्वयं को तीन कसौटियों पर खरा सिद्ध करना होगा-प्रमाणन बोर्ड, इतिहास समिति तथा जनास्था. इस पर भी तुर्रा यह है कि समिति में मेवाड़ राजपरिवार के सदस्य को भी रखा गया है.

बोर्ड का यह निर्णय बेहद हास्यास्पद इसलिए भी है कि यह फिल्म एनसीईआरटी की इतिहास की पुस्तक के विकल्प के रूप में नहीं बनाई गई है. यह कोई बौद्धिक विमर्श अथवा ऐतिहासिक शोध भी नहीं है. यह इतिहास की रंगत को लिये हुए एक कलात्मक रचना है. कला में उतरने के बाद जब वर्तमान का यथार्थ ही यथार्थ नहीं रह जाता, तो भला अतीत का यथार्थ अपने स्वरूप की रक्षा कैसे कर सकता है?

कला की बात तो छोड़िये. क्या इतिहास भी अपने आप में अपने वक्त के सही बिम्ब को प्रस्तुत करता है? यदि ऐसा होता, तो आज वक्त के एक ही टुकड़े के इतने सारे रंग देखने को नहीं मिलते. इटली के प्रख्यात विचारक क्रोचे ने जब कहा था कि ''समस्त इतिहास समकालीन इतिहास है,'' तो उनका तात्पर्य यही था कि प्रत्येक वर्तमान अपने अतीत पर अपने ढंग से विचार करता है. इसके फलस्वरूप इतिहास एकरंगी न होकर बहुरंगी होता जाता है.

इसी बिन्दु पर आकर इतिहास और कलायें एक दूसरे में गलबाही डाले हुए दिखाई पड़ती हैं. ऐसा इसलिए, क्योंकि इतिहास की व्याख्या की प्रक्रिया में अनुमानों (कल्पना) का उपयोग आवश्यक हो जाता है. फिर चाहे उसके पक्ष में कितने भी दस्तावेजी साक्ष्य क्यों न मौजूद हों. सच तो यही है कि स्वयं इतिहास के अंतिम सत्य के रूप में कुछ भी स्थापित नहीं हो सकता, सिवाय तिथियों और नामों जैसे सामान्य ब्योरों के.

'पद्मावती' की ऐतिहासिकता के बारे में निर्णय करना तो और भी अधिक कठिन, लगभग असंभव सा है. जब घटनाओं पर आधारित तथ्यों की सत्यता का ही सही-सही पता नहीं लगाया जा सकता, तो भला उसकी सत्यचता की परीक्षा कैसे की जा सकती है, जो मूलतः लोकाख्यान पर आधारित है. जायसी की 'पद्मावती' का आधार इतिहास नहीं, बल्कि यह लोकाख्यान ही था. कार्लमार्क्स और एंजेल्स ने ऐसे अनेक लोकगीतों एवं लोककथाओं की ओर संकेत किया है, जिनमें समाज का मर्म परिलक्षित हुआ है. इस प्रकार लोकाख्यान समाज की भावनाओं का तो प्रतिबिम्बित कर सकते हैं, लेकिन ऐतिहासिक सत्यता का नहीं. खासकर वहाँ तो बिल्कुल भी नहीं, जहाँ उस समय तक इतिहास लेखन की अच्छी खासी परम्परा स्थापित हो चुकी हो.

कुल-मिलाकर बोर्ड का यह निर्णय भविष्य की कलाओं के लिए बहुत खतरनाक एवं दमघोंटू है. और कोई आश्चर्य नहीं कि इसके बाद से इतिहास एवं कलाओं के बीच के संबंध हमेशा-हमेशा के लिए टूट ही जायें. वह क्षण अत्यंत दुखदाई होगा एवं रचनात्मकता की दृष्टि से अत्यंत शापित भी.


डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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