15 अप्रैल 1917 के दिन गांधी मोतिहारी पहुंचे थे. मोतिहारी आने से पहले न तो ज़िले का नाम ठीक से जानते थे न वहां पहुंचने का रास्ता मालूम था. न उन्होंने कभी नील का पौधा देखा था. 18 अप्रैल को जब गांधी मोतिहारी कोर्ट की तरफ जा रहे थे, ये बताने कि वे ज़िला छोड़ने की आज्ञा का पालन नहीं करेंगे, किसानों की व्यथा सुनेंगे तो उस वक्त उनके साथ दो हज़ार किसान चल रहे थे. दो दिन के भीतर दो हज़ार लोगों की भीड़ बिना व्हाट्सऐप के, ईमेल के और न्यूज़ चैनल की मदद के, आप उस वक्त की कल्पना करेंगे तो यकीन नहीं होगा. गांधी को न तो भोजपुरी आती थी न ही ठीक ठीक हिन्दी. हम इस साल और इस महीने चंपारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष मना रहे हैं. गांधी के हर कार्यक्रम, किताब और यात्राओं की शताब्दी, अर्धशताब्दी मन रही है, मनाई जा चुकी है. शायद हम ठीक ठीक नहीं जानते कि गांधी को क्यों याद करते हैं और गांधी होने का मतलब क्या है.
गांधी होने का एक ही मतलब है. बिना हिंसा का सहारा लिये, बिना किसी से मदद की उम्मीद किये, अपने वक्त की सबसे ताकतवर संस्था और व्यक्ति के सामने तन कर खड़े हो जाना गांधी होना है. जो सत्ता में रहकर दूसरों को डराता है, जो सत्ता से डरता है ये दोनों गांधी का दुरुपयोग ही कर सकते हैं, उपयोग नहीं. जबकि इन्हीं दोनों को सबसे अधिक गांधी की ज़रूरत है.
गांधी ने चंपारण पहुंच कर बग़ैर किसी हिंसा के उस वक्त के सबसे शोषित किसानों को ब्रिटिश हुकूमत के आगे खड़ा होना सिखा दिया. उनके आने के पहले तक किसान नील के गोरे व्यापारियों से लोहा रहे थे मगर उसमें हिंसा थी. गांधी जब तक रहे एक भी हिंसा नहीं हुई. कहीं भी भगदड़ नहीं मची. अहिंसा का अनुशासन कायम हो गया. जेल का भय समाप्त हो गया. गांधी ने लाखों किसानों के मन से जेल का भय समाप्त कर दिया.
चंपारण के सौ साल की कमाई यही है कि आज का किसान फिर से डरा हुआ है. भयभीत है और बैंक के लोन के आगे कमज़ोर हो चुका है. किसानों की आत्महत्या की ख़बरें अब न तो किसी संपादक को विचलित करती हैं न अब कोई पीर मोहम्मद मुनिश है जो नौकरी ख़तरे में डालकर कानपुर से निकलने वाले प्रताप अख़बार के लिए चंपारण में किसानों के शोषण की कहानी भेज रहा था. न ही कोई गणेश शंकर विद्यार्थी है जो चंपारण की कहानी छाप कर, वहां के किसानों के लिए पर्चा छापकर कहानी मंगाने का जोखिम उठा सकता है. आज की पत्रकारिता चंपारण सत्याग्रह पर कैसे बात करेगी. क्या वो कर सकती है. आज के किसानों को गांधी का इंतज़ार नहीं है. उन्हें फांसी का इंतज़ार रहता है.
निर्वस्त्र होकर किसानों को प्रदर्शन करना पड़ा उस जगह जहां आज़ाद भारत के सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री का कार्यालय है. पुलिस इन्हें ज्ञापन दिलवाने के लिए कार्यालय ले गई थी. वहां से लौटते हुए इन किसानों ने अपने कपड़े उतार दिये. यकीन से कह सकता हूं कि न दिल्ली को फर्क पड़ा न हिन्दुस्तान को. ये किसान तीन हफ्तों से दिल्ली में हैं. सूखे से पीड़ित हैं और राहत की मांग कर रहे हैं. कभी ये चूहा मुंह में दबा लेते हैं तो कभी सांप. किसानों को सरकार का ध्यान खींचने के लिए कितना कुछ करना पड़ता है. सरकार ने तमिलनाडु को 2014 करोड़ रुपये की मदद राशि भी देने का ऐलान किया है. इन किसानों का कहना है कि ये राशि बाल्टी में एक बूंद है. तमिलनाडु सरकार कें से 39,000 करोड़ की मदद मांग रही है.
1917 में गांधी जब चंपारण पहुंचे तो वहां के किसान भी वस्त्रहीन थे. एक बार गांधी ने कस्तूरबा से किसी महिला की तरफ इशारा कर कहा कि उनसे पूछिये कि उनकी साड़ी इतनी मैली क्यों है. महिला ने बा को बताया कि मेरे पास एक ही साड़ी है. नहाने के लिए कोई दूसरी साड़ी नहीं है. दो साड़ी होकर तो मैली साड़ी साफ कर सकेगी. चंपारण के किसान राज कुमार शुक्ल, शेख ग़ुलाम और शीतल राय के नेतृत्व में लड़ाई लड़ रहे थे मगर उन्हें किसी ऐसे का इंतज़ार था जो उनकी लड़ाई को बड़ा कर दे. आज किसानों की हर लड़ाई छोटी कर दी जाती है. इसलिए चंपारण सत्याग्रह मोतिहारी में नहीं तमिलनाडु, महाराष्ट्र और पंजाब में किसानों के बीच मनाया जाना चाहिए था. पर ख़ैर.
18 अप्रैल से 16 जुलाई के बीच गांधी के नेतृत्व में चंपारण के 10,000 किसानों के बयान लिये गए. भारत के इतिहास की ये पहली जनसुनवाई होगी. 2015 में भारत के 12,615 किसानों ने आत्महत्या कर ली, उनकी कोई सुनवाई नहीं हो पाती है. चंपारण के किसान गुलाम बना लिये गए थे. 400 गोरे किसान थे मगर 19 लाख किसानों को गुलाम बना लिया था. मुनाफा कमाने के लिए किसानों से उनकी अपनी ज़मीन पर भी नील उगाकर देने के लिए कहा गया. वो अपनी मर्जी से कुछ उगा नहीं सकते थे. उन पर जिस तरह के टैक्स लादे गए वो सुनकर भी आप विचलित नहीं होंगे. फर्क नहीं पड़ता है के इस ज़माने में बता देना चाहिए कि चंपारण के किसानों को गोली मार दी जाती थी. बरछी से बदन में छेद कर दिया था. घर तोड़ दिये जाते थे ताकि उस ज़मीन पर नील की खेती हो सके.
पईन टैक्स लगा, किसान अपनी ज़मीन की सिंचाई करे न करें, टैक्स देना पड़ता था. प्रत्येक रुपये पर एक आना का लगान तय था. हल रखने के लिए भी बेंटमाफी टैक्स देना पड़ता था. जब कोई किसान मर जाता था तब उसकी संतान से मां बाप के नाम पर टैक्स लिया जाता था जिसे बपही पुतही टैक्स कहते थे. किसान अपनी बेटी की शादी के लिए जो मड़वा बनवाता था उस पर भी सवा रुपये का टैक्स लगता था. होली और रामनवमी का त्योहार मनाने के लिए भी उसे टैक्स देना होता था. किसानों से ऐसे ऐसे टैक्स लिये जा रहे थे जिसकी आप कल्पना नहीं करते, आज भी आप ऐसे ऐसे टैक्स देते चलते हैं, आपको पता भी नहीं चलता है. गुलामी थी चंपारण में. वहां के किसानों को दास बना लिया गया था. शोषण का इतना भयंकर असर हुआ कि आज भी कई घरों में जश्न नहीं मनता है. खुशी मनाते भी हैं तो संभल संभल कर. हम चंपारण सत्याग्रह के नाम पर न तो गांधी को जानते हैं और न ही वहां और कहीं के किसानों को जानते हैं.
फरीदपुर के मजिट्रेट ई डब्ल्यू एच टावर ने कहा था कि नील का एक भी बक्सा इंग्लैंड नहीं पहुंचता है जो आदमी के ख़ून से सना हुआ नहीं है. उस समय की पत्रकारिता भी आज के समय की पत्रकारिता से मिलती है. बहुत लोग सरकार की खुशामद कर रहे थे, नील का कारोबार करने वाली कंपनियों का साथ दे रहे थे, आज का मीडिया हर कंपनी का साथी है. फिर भी कुछ पत्रकार थे जो चंपारण की गाथा लोगों तक पहुंचा रहे थे. कुछ अखबार तब भी थी.
कानपुर के प्रताप अख़बार की कॉपी तो चंपारण के हर घर में होनी चाहिए थी. नागपुर से निकलने वाले हितवाद में भी चंपारण के शोषण की कहानी छपा करती थी. बिहार से दैनिक बिहारी निकलता था जिसके संपादक महेश्वर प्रसाद ने कितना जोखिम लिया. हरवंश सहाय और पीर मोहम्मद मुनिश ने नाम बदल कर प्रताप में लिखा. प्रताप ने तो चंपारण के लोगों से अपील करने के लिए एक पर्चा छापा जिसका नाम था प्रार्थना. अपील की गई थी कि अपनी कहानी बतायें, उसका प्रमाण दें. कई और अखबार हैं जिनका नाम लेना संभव नहीं है. आज का नेता किसी से मुलाकात भी करता है तो उसकी तस्वीर ट्वीट कर देता है ताकि वो काम करता हुए दिखे. गांधी ने जब चंपारण के किसानों की व्यथा सुननी शुरू कि अखबारों के संपादकों को पत्र लिखा कि वे अपने संवाददाता न भेजें. जो भी सूचना होगी वे स्वयं दे देंगे. गांधी ने लिखा कि चंपारण में स्थिति इतनी नाज़ुक थी कि किंचित उत्साहपूर्ण आलोचना या अतिरंजित ख़बरों से सहज ही काम में भारी नुकसान पहुंच सकता है.
आज की पत्रकारिता खुलेआम सांप्रदायिकता फैला रही है, आप समझते हैं कि वे किसी मज़हब के साथ इंसाफ कर रहे हैं. अखबार तब भी सांप्रदायिकता फैला रहे थे. वर्ना भगत सिंह को कहना न पड़ता. फिर भी गांधी ने बिना प्रचार के यह सब किया और इसका इतना प्रचार हो गया कि यह आज भी कम्युनिकेशन के लिहाज़ से एक दिलचस्प गाथा है. हमारे परिचित अरविंद मोहन ने तदभव पत्रिका में चंपारण सत्याग्रह के वक्त कम्युनिकेशन और गांधी को लेकर अच्छा लेख लिखा है, आप पढ़ सकते हैं. अप्रैल से नवंबर तक आते आते चंपारण के किसानों को शोषण से मुक्ति मिल चुकी थी. लेकिन गांधी के साथ चंपारण गए नेताओं को भी तरह तरह के डर से मुक्ति मिल गई थी.
मज़हरूल हक ने अपने घर सिकंदर मंज़िल से ऐशो आराम के हर सामान को बेच दिया. राजेंद्र प्रसाद, ब्रज किशोर प्रसाद, सच्चिदानंद सिन्हा ये सब जो बड़े नाम हैं उस वक्त अपने सामंती साज़ सामनों के साथ गांधी की मदद करने गए थे. चंपारण में रहते रहते वे भी गांधी की तरह हो गए. अपना काम करने लगे. कपड़े तक धोने लगे. चंपारण सत्याग्रह की कहानी सिर्फ सौ साल पूरे होने की कहानी नहीं है. आचार्य जी बी कृपलानी, अनुग्रह बाबू को कैसे भूला जा सकता है. गांधी को चंपारण बुलाने वाले राजकुमार शुक्ल आज़ाद भारत का सूरज नहीं देख सके, गांधी आज़ाद भारत में साढ़े पांच महीने ही ज़िंदा रह सके. मार दिए गए. आज उन्हें मारने वाले की कुछ लोग जयंती मनाते हैं. हम चंपारण सत्याग्रह के नाम पर मज़ाक कर रहे हैं. मना नहीं रहे हैं. इसके ज़रिये सरकारें अपने कार्यक्रमों का प्रचार कर रही हैं मगर चंपारण का किसान गायब है. भारत का किसान आत्महत्या कर रहा है या दिल्ली में निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन कर रहा है.
फिर भी बात होती रहनी चाहिए. मारने वालों की भी और मार दिये जाने वाले की भी. चंपारण सत्याग्रह का सौ साल हमारी संभावनाओं का सौ साल है या उन्हीं आशंकाओं की वापसी का साल है.
This Article is From Apr 11, 2017
प्राइम टाइम इंट्रो : चंपारण सत्याग्रह के 100 साल बाद भी क्या हम गांधी को जानते हैं?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:अप्रैल 11, 2017 21:45 pm IST
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Published On अप्रैल 11, 2017 21:45 pm IST
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Last Updated On अप्रैल 11, 2017 21:45 pm IST
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