हमारे जीवन में पूर्वग्रहों की खरोंचें कितनी गहरी होती हैं- यह ब्रिटेन के फुटबॉल प्रेमियों ने इस इतवार को दिखाया. यूरो कप जीत न पाने की मायूसी में पहले सड़कों पर हुड़दंग किया और फिर अपनी ही टीम के उन खिलाड़ियों पर नस्ली छींटाकशी की जो पेनल्टी शूट आउट के दौरान गोल करने में नाकाम रहे. बेशक, इसके लिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और इंग्लैंड की फुटबॉल टीम के कप्तान ने भी खेद जताया और ऐसे खेलप्रेमियों को फटकारा भी, लेकिन यह बात बिल्कुल सार्वजनिक थी कि अपने प्राकृतिक आवेग में ब्रिटेन के सभ्य कहे जाने वाले लोग भी अपने बिल्कुल बुनियादी पूर्वग्रहों से मुक्त नहीं हो पाए हैं. इस बात के लिए इंग्लिश फुटबॉल प्रेमियों को धिक्कारना आसान है, लेकिन ज़्यादा ज़रूरी यह समझना है कि इंसान सभ्यता के सफ़र में बहुत आगे निकलने के बाद भी अंततः अपने अवचेतन में बसी बहुत सारी धारणाओं से मुक्त नहीं हो पाया है और ये धारणाएं कभी-कभी किसी बहाने अचानक निकल कर बाहर आ जाती हैं.
जिस समय इंग्लैंड के फुटबॉल प्रेमी अपनी जात दिखा रहे थे (जो दरअसल इंसानी जात ही है और जिससे हम सब बंधे हैं) ठीक उसी समय सर्बिया का एक टेनिस खिलाड़ी खेलों के आसमान का एक अलंघ्य इंद्रधनुष बना रहा था. उसी शाम नोवाक जोकोविच ने विबंलडन जीता था और महानतम टेनिस खिलाड़ियों में अपनी हैसियत कुछ और मज़बूत कर ली थी. फ़ेडरर और नडाल के इस ज़माने में जोकोविच होना आसान काम नहीं है. ये दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेल कर अपनी जगह बनाने जैसा है. जोकोविच यह काम कर पाए तो इसमें उनकी प्रतिभा और उनके अभ्यास के अलावा संभवतः उन हालात का भी हाथ रहा होगा जिनमें वे पले और जिनसे उबरने में टेनिस ने उनकी मदद की. दरअसल जोकोविच का बचपन गृह युद्ध से क्षत-विक्षत तत्कालीन युगोस्लाविया की सड़कों पर बीता. बेलग्रेड में उन्होंने आसमान से गिरते बम देखे, अपने सामने होते धमाके देखे और इंसानी क्रूरता के वे सारे चरम देखे जो किसी को तोड़ने के लिए काफ़ी होते. नाटो की सीरियल बमबारी के बीच दहशत में डूबे अपने परिवार को संकट में पड़ते देखा और अंततः इन सबको झेलते हुए बचे रहे. इस छोटे से जोकोविच को सबसे ज़्यादा राहत टेनिस कोर्ट दिया करते जो बीते हुए युगोस्लाविया की समृद्ध और मज़बूत खेल परंपरा का हिस्सा थे. शायद तनाव को झेलने के इसी अभ्यास ने जोकोविच के टेनिस के तमाम तनावों से बाहर निकलना सिखाया. खेल ने उन्हें इस दुष्चक्र से बाहर निकाला और दुनिया का चमकता हुआ सितारा बनाया.
तो दो उदाहरण हमारे सामने हैं- टेनिस ने युद्ध और नफ़रत की मारी हुई दुनिया से जोकोविच को बाहर आने का रास्ता दिया तो यूरो कप के फुटबॉल फ़ाइनल ने इंग्लैंड के खेल प्रेमियों के भीतर छुपी हुई नफ़रत को नए सिरे से सुलगा दिया. लेकिन यह टेनिस और फुटबॉल का अंतर नहीं है- यह अंतर उस मानसिकता का है जिसके साथ खेलों को लिया जाता है. खेल युद्ध नहीं हैं. उल्टे वे हमारी प्रतिस्पर्धात्मकता में हमारे भीतर की युद्धपिपासा को शांत करते हैं. हार-जीत को हम खेल के मैदान में निबटा कर आगे बढ़ जाते हैं. खेल भावना यही है. लेकिन संकट तब होता है जब हम खेलों को बिल्कुल युद्ध में बदल डालते हैं. अभी-अभी कोरोना से उबरे इंग्लैंड और इटली दो ज़ख़्मी राष्ट्र हैं जिन्हें यह तसल्ली होनी चाहिए थी कि उन्होंने खेलों का एक शिखर छूकर अपने लोगों को उल्लास का एक अवसर दिया. इटली ने यह उल्लास जिया भी होगा. लेकिन इंग्लैंड के फुटबॉल प्रेमियों ने इस खेल में भी अपने हिस्से की जंग खोज ली.
ऐसा नहीं है कि खेल हमेशा पूर्वग्रहमुक्त रहे हैं. टीमों की प्रतिस्पर्धा पहले भी मुल्कों की प्रतिस्पर्धा में बदलती रही है. भारत-पाकिस्तान के मुक़ाबले खेल से ज़्यादा युद्ध में बदलते रहे हैं. इंग्लैंड-ऑस्ट्रेलिया के बीच क्रिकेट सीरीज़ भी अतिरिक्त उन्माद पैदा करती रही है. खेलों के बीच दर्शकों का हुड़दंग भी नया नहीं है. 1996 के क्रिकेट विश्व कप के सेमीफ़ाइनल मुक़ाबले में श्रीलंका के विरुद्ध भारत को हारता देख कोलकाता के दर्शकों ने इतना हंगामा किया कि मैच पूरा नहीं हो सका. उस मैच में क्रीज़ पर खड़े और रोते हुए विनोद कांबली की छवि भारतीय क्रिकेट न भूलने वाली छवियों में एक है.
लेकिन खेलों ने मुल्कों को जोड़ा भी है. कई कैरेबियाई देशों ने वेस्ट इंडीज़ जैसा एक देश बना डाला जिसका कोई राजनीतिक अस्तित्व नहीं है, लेकिन जो एक दौर में तमाम क्रिकेट प्रेमियों का मक्का हुआ करता था. वेस्ट इंडियन क्रिकेट किसी मिथक की तरह क्रिकेट प्रेमियों के जेहन में अब भी छाया हुआ है और उसके महान खिलाड़ियों की परंपरा अब भी जादुई स्मृति जगाती है. बल्कि खेलों का अपना राष्ट्रवाद है जो राजनीतिक राष्ट्रवाद से कतई अलग है. फुटबॉल के नज़रिए से देखें तो ब्राजील और अर्जेंटिना दुनिया के सबसे बड़े और ताकतवर देश लगते हैं जबकि अमेरिका-चीन पिद्दी नज़र आते हैं. क्रिकेट में एक दौर में भारत-पाकिस्तान और श्रीलंका टक्कर के देश लगते थे, जबकि आकार-प्रकार में भारत काफ़ी आगे है. यह खेलों की ही ताकत है कि 1971 में सुनील गावस्कर से पराजित हुआ वेस्ट इंडीज़ उनके नाम पर कैलिप्सो रचता है और बरसों बाद सुनील गावस्कर को बेटा होता है तो वे उसका नाम एक वेस्ट इंडियन खिलाड़ी रोहन कन्हाई के नाम पर रोहन गावसकर रखते हैं. स्विट्ज़रलैंड में पैदा हुई एक बच्ची का नाम एक चेक अमेरिकन खिलाड़ी मार्टिना नवरातिलोवा के नाम पर मार्टिना रखा जाता है- आगे चल कर वह मार्टिना हिंगिस बनती है.
इत्तिफ़ाक़ से आज ही भारत के प्रधानमंत्री ने टोक्यो ओलंपिक में जा रहे खिलाड़ियों से मुलाकात की, उनका हौसला बढ़ाया और उनको शुभकामनाएं दीं. जाहिर है, खेलों से हासिल उपलब्धियां भी राष्ट्रों को बड़ा करती हैं. आधुनिक ओलंपिक खेल सवा सौ साल से चल रहा वह सिलसिला हैं जिन्हें दो-दो विश्वयुद्धों से झुलसी हुई दुनिया भी हमेशा के लिए ख़त्म नहीं कर सकी. बेशक, पहले विश्वयुद्ध के दौरान एक और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान दो ओलंपिक नहीं हो सके, लेकिन युद्धों के ख़त्म होने के फौरन बाद टूटे हुए मुल्कों को जोड़ने का काम इन्हीं खेलों ने किया. वे भी ओजोन परत हैं जिनकी वजह से धरती का तापमान जीने लायक बना रहा है.
इन सारे खेलों और खिलाड़ियों की याद का एक मक़सद है. दुनिया को युद्ध में नहीं खेलों में होना चाहिए. खेलों की मार्फ़त अपने भीतर के पूर्वग्रहों को खरोंच कर फेंकना चाहिए, न कि उन्हें नए सिरे से उभरने का अवसर देना चाहिए. आज की दुनिया में बेशक बाज़ार ने इन खेलों को एक नशे में बदलने की कोशिश की है, लेकिन इसके बावजूद उनका बुनियादी चरित्र जोड़ने का है- याद दिलाने का है कि मैच छोटे-छोटे पासों या लंबी-लंबी साझेदारियों से जीते जाते हैं, वे बहुत संतुलित स्ट्रोक्स और बहुत फुर्तीले बचाव से क़ाबू में किए जाते हैं. असंतुलन और हड़बड़ी आपको जीतने लायक ही नहीं, जीने लायक भी नहीं रहने देते. यह खेलों का ही नहीं, जीवन का भी सबक है. काश कि हम सीख पाएं. आखिर एक इंग्लिश फुटबॉल प्रेमी हमारे भीतर भी रहता है- बल्कि वह बाहर ही रहता है- पूरी बेशर्मी से अपने धार्मिक और जातिगत पूर्वग्रहों को गर्व के साथ दुहराता हुआ- बिना यह समझे कि इससे उसकी अपनी राष्ट्रीयता लांछित होती है, उसकी अपनी मनुष्यता आहत होती है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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