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This Article is From Feb 25, 2015

केदारनाथ से नहीं सीखा सबक

Sushil Bahuguna
  • Blogs,
  • Updated:
    फ़रवरी 25, 2015 15:55 pm IST
    • Published On फ़रवरी 25, 2015 12:25 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 25, 2015 15:55 pm IST

ऐसा पहली बार है कि भारी बर्फ़बारी के बीच सर्दियों के मौसम में भी केदारनाथ में इतनी हलचल है। कोशिश है 2013 की उस त्रासदी के बाद केदारनाथ को फिर से उसका वैभव लौटाने की, इन कठिन हालात में भी क़रीब तीन सौ लोग वहां दिन रात काम में जुटे हैं।

नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के प्रिंसिपल कर्नल अजय कोठियाल के नेतृत्व में केदारनाथ में एक नई शुरुआत हुई है कुछ नया करने की, ऐसा करने की जो कुदरत के नियमों के अनुकूल हो। उस ऊंचे पर्वतीय इलाके में ये टीम अपनी ओर से जितने प्रयास कर सकती है निश्चित ही करेगी, लेकिन सवाल ये है कि क्या नीचे घाटियों में बैठे हाकिमों ने अब भी कोई सबक लिया है?

क्या केदारनाथ की उस आपदा ने उन्हें प्रकृति के प्रति कुछ उदार, कुछ संवेदनशील बनाया है? कहीं दिल्ली, देहरादून में बैठे ये हाकिम देश-दुनिया में अपनी छवि चमकाने की ख़ातिर उस इलाके को जल्दी से जल्दी लाखों बूटों के नीचे फिर रौंदे जाने के लिए तैयार तो नहीं करवा रहे?

अभी तक की क़वायद से इस बात का डर बना हुआ है। सरकार की जल्दबाज़ी जितनी जल्दी हो सके उस इलाके को अधिक से अधिक लोगों के लिए खोलने की लगती है। ये देखे-समझे बगैर कि केदारनाथ में अब भी सब कुछ सामान्य नहीं है। क़रीब डेढ़ साल बाद भी वहां मलबे के नीचे जाने कितने सवाल अपने जवाबों का इंतज़ार कर रहे हैं।

अगले कुछ महीनों में सरकार को इन जवाबों के लिए भी तैयार रहना होगा। घाटी के एक बड़े इलाके में धरती की सतह दस से पंद्रह फुट ऊंची हो गई है। ये नई परत बिलकुल ठोस नहीं है। हमारे झूठ की तरह ही वो अंधाधुंध नए निर्माण का बोझ भी नहीं उठा सकती।

उसी ठोस मलबे में अब आधे गड़े, आधे खड़े पचासों मकान जैसे किसी झाड़ झंखाड़ से घाटी की ख़ूबसूरती पर बदनुमा दाग़ से दिखते हैं, उनका क्या होगा? क्या सरकार पूर्व में हुए उस सारे अतिक्रमण और अवैध निर्माण को हटवा पाएगी या फिर यहां भी वोट बैंक की राजनीति उसे कुदरत की ज़रूरत के ख़िलाफ़ जाने पर मजबूर कर देगी, क्या केदारनाथ में मंदिर के अलावा न्यूनतम निर्माण ही होगा या एक बार फिर उस घाटी में सरकारी, निजी गैस्ट हाउस मौज मस्ती के लिए आने वालों को न्योता देते खुलने लगेंगे, क्या एक बार फिर वहां की हवा में डीज़ल और कैरोसीन की महक तैरती मिलेगी, अभी कुछ भी बहुत साफ़ नहीं है।

राज्य सरकार पर्यावरण से जुड़े नियमों को सख़्त किए बगैर ऐसे ही कई और नाज़ुक हिमालयी इलाकों को बारहों महीने खोलने को बेचैन दिख रही है। पर्यटन के नाम पर बेचैन दिख रही है, विकास के नाम पर बेचैन दिख रही है, धर्म के नाम पर बेचैन दिख रही है। सरकार की ये बेचैनी चिंता बढ़ाती है। चिंता इसलिए बढ़ाती है क्योंकि हिमालय में अभी ना जाने कितने और केदार हमें सबक सिखाने को तैयार बैठे हैं।

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