जब 2005 में पत्रकारिता पढ़ने और करने के लिए दिल्ली आया था, गांव के अंधेरे से दूर यहां की जगमगाती दिल्ली लुभाती रही. रात में भी उजाले का एहसास कराती रही. वही दिल्ली अब दिन के उजाले में भी डरा रही है.
पत्रकारिता पेशा है. रोज़ी-रोटी का ज़रिया भी है और कंधे पर सच पहुंचाने की ज़िम्मेदारी भी. लेकिन इससे अलग एक और दुनिया भी तो है. परिवार भी है. पत्नी और बच्चे भी. मां-बाप. भाई-बहन भी. रिपोर्टर तो बस रिपोर्ट करता है और करना भी चाहिए, लेकिन अभी जो हालात हैं, रोक-टोक उस रिपोर्टिंग पर भी है.
सोमवार दोपहर लगभग 12 बजे मौजपुर चौक के सामने देखते ही देखते दोनों तरफ के लोग उबाल में आ गए और पत्थरबाज़ी शुरू. दो-तरफ़ा. पुलिस थी, पर मूक बनी रही. हालात बिगड़ने से पहले संभल सकते थे. इसके गवाह मैं और अंग्रेज़ी से मेरी सहयोगी सुकीर्ति भी रहीं. तस्वीर उतार रहे हमारे कैमरापर्सन सुशील राठी को फौरन कैमरा बंद करने की धमकी मिली. मौके को उन्होंने-हमने भांपा, और कैमरा बंद कर दिया.
यह वाकया सिर्फ एक तरफ का नहीं था. सड़कों पर आंसू गैस के गोले और पत्थरबाज़ी के सच से दो-चार होते हुए तंग गलियों के बीच से जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के पास जा पहुंचे. लेकिन वहां भी साफ कहा गया - कैमरा नहीं चले... ख्याल रहे, इस बीच में ख़बरें आती रहीं. जाफराबाद और मौजपुर के बीच दिल्ली धधक रही है, सुलग रही है.
दोपहर से शाम और फिर देर रात. आलम बदस्तूर जारी रहा. उत्तर-पूर्वी दिल्ली के खजूरी चौक से करावल नगर पुश्ते वाली सड़क पर जगह-जगह लोगों का जमावड़ा. कुछ नशे में धुत भी. बीच सड़क पर फुंकी पड़ी गाड़ियां, और हाथ में लाठी-डंडे लिए भीड़ खौफ का एहसास करवाती रहीं. यह वाकया सोमवार रात करीब 10:30 बजे का है.
सड़कों पर मौजूद भीड़ जगह-जगह रोकती रही, नाम पूछती रही, पुलिस सरीखे अधिकार से I-Card मांगती रही. उस वजह को नाम और पहचान के ज़रिये ढूंढने की कोशिश, जिसमें अगर हम फिट न हुए, तो शरीर से अनफिट ज़रूर कर दिए जाएं.
खजूरी चौक से करावल नगर टोल टैक्स के करीब तीन किलोमीटर की ही दूरी में कम से कम दर्जन-भर जगहों पर इंट्रोडक्शन का यह सिलसिला चला. एक जगह इंट्रो में गड़बड़ लगी, भीड़ को शक हुआ. ड्राइवर को नुकसान पहुंचाने की कोशिश के बीच. भीड़ के कुछ समझदार लोगों ने पहचाना. मुसीबत से निकलवाने की कोशिश ही कर रहे थे कि हमारी गाड़ी को नुकसान पहुंचाया गया. एक डंडे में पिछली सीट का शीशा चकनाचूर हो गया.
आलम देखिए. तीन किलोमीटर के इस दायरे में एक भी, एक भी पुलिसवाला नहीं. जबकि कहने को दिल्ली पुलिस की छावनी इसी सड़क पर है, लेकिन पुलिस नदारद. खाकी का खौफ तो अब भी है, पर सड़क पर खाकी हो तो...
कल की भीड़ न सुनने को राज़ी थी, न समझने को. दिल्ली दिलवालों की होती थी, अब क्या हो गया है...? चकाचौंध वाली दिल्ली किस अंधेरे की तरफ बढ़ रही है...? बीते दो दिन से दिल्ली लुभा नहीं रही, डरा रही है...
परिमल कुमार NDTV इंडिया में विशेष संवाददाता (स्पेशल कॉरेस्पॉन्डेन्ट) हैं...
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