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This Article is From Apr 24, 2017

अज़ान और जागरण वाली बहस के बीच लाउडस्पीकर की रणभूमि बना मेरा गांव...

Kranti Sambhav
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 24, 2017 12:10 pm IST
    • Published On अप्रैल 24, 2017 12:10 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 24, 2017 12:10 pm IST
जो तस्वीर मैंने ऊपर लगाई है, उसे देखकर कैसी छवि आपके दिमाग़ में आ रही है...? आम के बग़ीचे के बीच, रखवाले के लिए बना एक मचान. बैकग्राउंड से बहुत दूर गुज़रती दो महिलाएं. ज़्यादा चांस है कि इसे देखकर अंग्रेज़ी में 'टिपिकल विलेज' वाली फ़ील आएगी. सुस्त चाल में चिड़ियों की चहचहाहटयुक्त एक शांत बग़ीचा, जो दोपहर को अलसा कर काटने का न्योता दे रहा हो. हो सकता है, आपका स्क्रीनप्ले थोड़ा अलग भी हो, कुछ भाव अलग उपजें, लेकिन गांव की इस इमेज के साथ एक शांत, निश्चिंत भाव तो ज़रूर जुड़ा होता है. मैं भी हाल में गांव नहीं जाता, तो शायद गांव को ऐसे ही याद कर रहा होता.

लेकिन, अगर मैं कहूं कि इस तस्वीर में जो दिख रहा है, उसके अलावा इस इमेज में कुछ भी सच नहीं है तो...? अगर मैं कहूं कि मेरे आज के गांव से ज़्यादा शांति दिल्ली में डीडीए पार्क की दुपहरी में या नोएडा की हाउसिंग सोसाइटी में मिलेगी तो...? अगर मैं कहूं कि जब यह तस्वीर खींच रहा था, तब मेरा मन एकदम विचलित था, और चारों ओर का शोर मुझे बेचैन बना रहा था तो...? मैं अतिशयोक्ति नहीं कर रहा, न ही मैं शहरी बाबू हूं, न ही मैं आध्यात्मिक अशांति की बात कर रहा हूं. मेरे गांव की शांति भंग हो चुकी है और इस अशांति के समीकरण में सांप्रदायिक सौहार्द वाला वेरिएबल नहीं है. यह डेसिबल लेवल वाला है, और यह भी बता दूं कि ऐसी स्थित केवल मेरे गांव की नहीं, रास्ते में जिन-जिन गांवों से गुज़रा, कमोबेश ऐसी ही हालत दिखी.

इतने सालों के बाद जाने पर, अपनी क़िस्मत को कोसती टूटी-फूटी सड़कें भी वैसी ही मिलीं, सड़क किनारे आम के बग़ीचे भी वही मिले, फूस के घर भी लगभग उसी संख्या में मिले, गांव से ठीक पहले ईंट की भट्टी भी मिली, मंदिर भी मिले, दयनीय से खड़े हैंडपंप, जिन्हें हम लोग चापाकल कहते हैं, वे भी मिले, पर गांव के नाम पर जिस शांति की याद आती थी, गाड़ी-ट्रैफिक और दिल्ली वालों के हॉर्न, गुस्से और गालियों से दूर केवल इंसानों की गहमागहमी वाली शांति, वह नहीं मिली. कुल मिलाकर ग्राम्य जीवन का कॉन्सेप्ट औंधे मुंह पड़ा मिला.

दरअसल स्थिति यह थी कि 24 में से 18-20 घंटे चारों ओर से बड़े-बड़े स्पीकरों से वातावरण में शोर ठेला जा रहा है. इतना शोर कि दरवाज़ों-खिड़कियों को बंद कर दीजिए, फिर भी मन बेचैन रहेगा. और जैसी मेरी किस्मत थी, पिछले कुछ सालों से शुरू एक नई तरह की पूजा भी चल रही थी, जिसमें लगातार नौ दिन तक दुर्गा स्थान, यानी मंदिर में चौबीसों घंटे कोई न कोई लाउडस्पीकर पर कीर्तन कर रहा था. पहला दिन तो मेरा भौंचक्का होकर गुज़रा, यह स्वीकार करने में कि मैं गांव में ही हूं. परिवार के लोगों से चिल्ला-चिल्लाकर बात करनी पड़ रही थी. आंगन से बाहर भाइयों से मिले, तो चिल्ला-चिल्लाकर बात करनी पड़ रही थी. यह अभूतपूर्व था. पूरे दिन भोलेनाथ, हनुमान जी और अल्लाह मियां के भक्तों की बातें सुनते रहिए और जब रात हो जाए, तो रामजी से. और फिर यह सोचते-सोचते सोना कि आख़िर सभी धर्मों के भगवानों ने भक्तों को बिना लाउडस्पीकर सुनना बंद कर दिया है क्या...?

अभी सोनू निगम के ट्वीट पर इतना बवाल हुआ, तो अजीब-सी बहस देखने को मिलने लगी. मुझे पता नहीं कि उनकी मंशा क्या थी...? उनका सिर मूंडने वाले को 10 लाख रुपये का इनाम घोषित करने वाले की क्या मंशा थी...? जिस माहौल में हम जी रहे हैं, वहां जीवन की हर क्रिया एक पब्लिसिटी स्टंट लगती है, पर वह मेरी सोच की तात्कालिक सीमा हो सकती है. पर सोनू निगम के बाल मुंडाने से ज़्यादा आश्चर्य मुझे उनकी निंदा और उनका समर्थन करने वालों के तर्कों को लेकर हुआ. आलोचना करने वाले लाउडस्पीकरों की प्रशंसा में ऐसे जुट गए, जैसे भगवान दिल में नहीं, लाउडस्पीकरों में बसते हैं, सुबह अज़ान की आवाज़ और मंदिर की घंटियों की टंकार को मिलाकर एक ऐसा तर्क तैयार कर रहे थे कि आश्चर्य हो रहा था.

एक पक्ष का कहना था कि वह झूठ बोल रहे हैं, उनके घर पर कोई आवाज़ आती नहीं. एक ने बताना शुरू कर दिया कि कैसे लाउडस्पीकरों की आवाज़ जीवनचर्या को अनुशासित करती है, वगैरह. फिर सोनू निगम ने अपने ट्विटर पर अपना ऑडियो-वीडियो डालकर गुड मॉर्निंग किया. वहीं सोनू निगम की प्रशंसा करने वाले ऐसे पताका लेकर निकल गए, जैसे चौबीसों घंटे लाउडस्पीकर से केवल अज़ान की ही आवाज़ आती है. रात-रातभर के भगवती जागरण को भूल जाते हैं. जगरातों को भूल जाते हैं. सड़कों पर टेंट-कनात लगाकर पूरी कॉलोनी को जगाकर रखने वाली डीजे भक्ति भूल जाते हैं. लाउडस्पीकर पर दिनभर गाना बजाकर दुर्गा पूजा और ट्रकों पर डीजे चढ़ाए कांवड़ियों को भूल जाते हैं. पता नहीं, धर्म का मामला आते ही ऐसे तर्कों को भेड़ियाघसान क्यों हो जाता है...? क्यों ऐसा होता है कि या तो सब चुप रहेंगे या फिर उठेंगे तो लाठी-भाला लेकर ही. और सरकारें-प्रशासन कहां रेत में सिर छिपाए रहते हैं? क्यों नहीं सीधे-सीधे लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल बैन करते हैं? हिन्दू-मुस्लिम सबके लाउडस्पीकरों को. कहते हैं, भगवान से बात करनी है, तो सीधे बात कीजिए...?

अब हर इंसान अलग-अलग होता है, जीवनशैली, जीवनचर्या और स्थिति होती है, संस्कार में धार्मिकता का डोज़ भी अलग-अलग होता है, नौकरी नाइट शिफ़्ट वाली भी होती है, लोग बीमार भी होते हैं, परीक्षा की तैयारी में रातभर जागने वाले छात्र होते हैं, सब के लिए सुबह-शाम लाउडस्पीकर की आवाज़ कैसे स्वास्थ्यप्रद हो सकती है. या फिर कोई नास्तिक ही क्यों न हों या फिर आलसी. क्यों नहीं उनका भी लिहाज़ कर लिया जाए...?

सोनू निगम के घर जाकर वहां डेसिबल लेवल चेक करके सच का सामना कराने से, या सोनू निगम द्वारा सुबह-सुबह अज़ान की आवाज़ के साथ ट्वीट करने जैसे बहस से मामला सलटेगा नहीं. लोगों से होना भी मुश्किल है, जो धार्मिक-संकीर्णता से धर्म-भीरुता के मकड़जाल में फंसे हुए हैं. मुंबई के मोहम्मद अली जैसे हिम्मती लोग कम होते हैं, जो सालों से लाउडस्पीकर हटाने में लगे हों. जैसे गांव की चर्चा में मैंने महसूस किया कि भगवान के काम में सवाल उठाने में हिचक या मन में खटका आम भाव है. पॉलिटिकल पार्टियों के लिए भी ये सिर्फ राजनैतिक मुद्दे हैं, इसीलिए रात 10 बजे के बाद गोवा में पार्टियों को बैन करना आसान होता है. धार्मिक मामले को सलटाने का उनका तरीका एक ही हो सकता है कि अज़ान की आवाज़ और हनुमान चालीसा के पाठ को आपस में भिड़ाएं.

स्थिति केवल मेरे गांव की ही ऐसी नहीं है. देश के कई हिस्सों की यह सच्चाई है. शोर सबसे शुरुआती हिंसा है, जिसके असल हिंसा में तब्दील होने में वक़्त नहीं लगता है. सोशल मीडिया से लेकर ट्रैफिक हर तरफ बढ़ता शोर हिंसा के पिनकोड में ही आते हैं. हिन्दू-मुस्लिम कर इसे जस्टीफाई करने की नहीं, इस हिंसा से सबको बचाने की ज़रूरत है. धरती वालों को भी और ऊपर वालों को भी, बिना इस बहस में पड़े कि किस धर्म का डेसिबल लेवल कितना है.

क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...

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