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This Article is From Mar 20, 2018

ईवीएम पर बहस समय की बर्बादी क्यों है?

Manish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 20, 2018 14:52 pm IST
    • Published On मार्च 20, 2018 14:51 pm IST
    • Last Updated On मार्च 20, 2018 14:52 pm IST
इन दिनों पूरे देश में एक बार फिर से EVM पर बहस शुरू हो गई है. खासकर कांग्रेस महाधिवेशन के बाद जिसमें फिर से बैलेट पेपर के माध्यम से चुनाव कराने की मांग की गई है. कई क्षेत्रिय दलों ने यह मांग पहले से कर रखी है. लेकिन अगर आप मुझसे पूछेंगे तो मेरे हिसाब से ये बहस बेमानी है. क्योंकि बिहार, जहां बैलेट और बुलेट का संघर्ष जगव्यापी रहा है, वहां ईवीएम से गरीब और वंचित समाज के लोग ज्यादा निर्भिक होकर मतदान करते हैं. बिहार हो या उतर प्रदेश या कोई अन्य राज्य, अभी चुनाव में जीत-हार आपके सामाजिक समीकरण , चुनाव अभियान के नेतृत्व और आपके संगठन की शक्ति तय करते हैं. लेकिन पिछले क़रीब तीन दशक के बिहार चुनाव परिणामों पर नजर दौड़ाएंगे तो यह दूध का दूध और पानी का पानी साबित हो जाएगा. 

1989  लोकसभा चुनाव
मेरे जीवन का ये पहला चुनाव था, जब मैं इंटर का छात्र था और हमारे कॉलेज के एक प्रफ़ेसर और अब स्वर्गीय शैलेंद्र नाथ श्रीवास्तव भाजपा के उम्मीदवार थे. यह चुनाव वी पी सिंह का चुनाव था और इस चुनाव का नारा होता था 'राजा नहीं फक़ीर है, देश की तक़दीर है.' लेकिन उस समय कांग्रेस पार्टी का बिहार में सूर्यास्त नहीं हुआ था और उनके बूथ मैनेजर कहिये या गुंडे, सुबह दस बजे तक बूथ में बलपूर्वक घूस कर पुरुष हो या महिला सबको धमका कर बूथ में बैलेट छीन कर ठप्पा मारने का काम करते थे. लेकिन गुंडागर्दी के बावजूद कांग्रेस विरोधी लहर होने के कारण पटना सीट से डॉक्टर श्रीवास्तव की जीत हुई और उन्होंने डॉक्टर सी पी ठाकुर को पराजित किया. मुझे अभी भी याद है कि मतगणना करीब तीन दिन चले थे, लेकिन बूथ लूटने वाले विरोधी डॉक्टर ठाकुर को जीत नहीं दिला सके. उस ज़माने में पटना का पूरा डॉक्टर समुदाय कांग्रेस समर्थक होता था और एंबुलेंसों में नर्सों को ढोकर बोगस वोटिंग कराया जाता था.

1990 बिहार विधानसभा चुनाव 
उस समय पूरे देश में कांग्रेस के तख़्तापलट का दौर चल रहा था और उस समय की जनता दल बिना किसी मुख्यमंत्री पद के चेहरा के चुनाव मैदान में थी लेकिन सीटों के ऊपर उनका वामपंथी और भाजपा के साथ तालमेल था. मतदान केंद्र पर तमाम हंगामे के बावजूद कांग्रेस चुनाव हारी. पटना शहर में पटना सेंट्रल की सीट पर जनता दल के उम्मीदवार राजीव रंजन और भाजपा के सुशील मोदी के बीच मुक़ाबला था. तत्कालीन प्रधानमंत्री वी पी सिंह से लेकर उनके घोर विरोधी चंद्रशेखर और यहां तक कि शत्रुघन सिन्हा ने सुशील मोदी के ख़िलाफ़ प्रचार किया, लेकिन सुशील मोदी अपनी छवि और संगठन की शक्ति के आधार पर जीते. उसी चुनाव में पटना पश्चिम सीट से भी जनता दल के अधिकृत प्रत्याशी रामकृपाल यादव, निर्दलीय उम्मीदवार रामानन्द यादव से हारे. इसके पीछे कारण था जनता का विश्वास.

1991 लोकसभा चुनाव
यह एक ऐसा चुनाव था जब कांग्रेस की सता में वापसी तय मानी जा रही थी और अब लालू यादव बिहार के मुख्य मंत्री थे. इन चुनावों में ख़ासकर बिहार में बूथ कैप्चरिंग की कवरेज के  लिये देश-विदेश से पत्रकार आते थे. लेकिन जनता जब साथ हो तब बूथ कैप्चरिंग कर चुनाव आप नहीं जीत सकते. इस चुनाव के परिणाम ने ठीक ऐसा ही साबित किया.  लालू यादव अब बिहार के ग़रीबों, दलितों और मुसलमानों के नेता थे. उनके पास वोट की जितनी बड़ी कटोरी थी, वो किसी को भी चुनाव जीता या विरोधियों को धूल चटा सकती थी. इस चुनाव में कांग्रेस के कई महारथी थे. जैसे डॉक्टर जगन्नाथ मिश्रा, कॉम्युनिस्ट पार्टी के भोगेंद्र झा से चुनाव हारे,  मुज़फ़्फ़रपुर से रघुनाथ पांडेय जॉर्ज फर्नांडिस से. मतदान के दिन जॉर्ज साहब को तेज़ बुखार थी और वो मुजफ्फरपुर में जिनके घर रुके थे उनके घर से निकले भी नहीं थे. लेकिन लालू यादव ने बेगुसराय के अलावा सभी सीटें जीत ली. 

1995 बिहार विधानसभा चुनाव
यह चुनाव कई मायनों में बिहार के राजनीतिक इतिहास के लिए मील का पत्थर साबित हुआ. केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और चुनाव आयोग में टी एन शेषन थे. शेषन साहेब का डर और ख़ौफ़ दोनों था लेकिन इस चुनाव में हर मतदान केंद्र पर अर्ध सैनिक बल के जवानो को तैनात किया गया, जिसके कारण गरीबों ने बहुत बड़ी संख्या में मतदान में भाग लिया. लालू विरोधी दल दो फांक में बंटे थे और उनका मुस्लिम-यादव, दलित-अति पिछड़ा वोट बैंक के बदौलत पूर्ण बहुमत के साथ सता में वापस आये. लेकिन बैलेट लूट-पाट की घटना में काफ़ी कमी आयी. इस चुनाव के कवरेज के लिए न्यूज़ एजेन्सी AP ने उस ज़माने में कोसवो से कैमरामैन बुलाया था.

1996 लोकसभा चुनाव 
इस चुनाव में नीतीश कुमार की समता पार्टी और भाजपा साथ आ गई थी और लालू जिनका इससे पूर्व कभी लोक सभा चुनाव में एकाधिकार था, अछी ख़ासी सीटें हार गये. 
लेकिन इन चुनावों में बूथ कैप्चरिंग की घटना बदस्तूर जारी रही और प्रशासन का दुरुपयोग भी. लेकिन नये सामाजिक या राजनीतिक समीकरण के सामने ये सब बहुत कुछ परिणाम पर असर नहीं डाल पाये.

1999 लोकसभा चुनाव
इस चुनाव में रामविलास पासवान और शरद यादव हिस्सा ले चुके थे और भाजपा और जनता दल यूनाइटेड के सामने लालू यादव मधेपुरा से चुनाव हार गये. वोटिंग के बाद शरद यादव धांधली की शिकायत करते हुए धरना पर बैठे थे और उन्हें ख़ुद अपनी जीत का अंदाज़ा नहीं था लेकिन उस चुनाव में लालू यादव 54 में मात्र सात सीटों पर चुनाव जीत पाये थे और इसके बाद लगा कि विधानसभा चुनाव में उनकी सरकार की विदाई तय है. 

2000 बिहार विधानसभा चुनाव
इस चुनाव के ठीक कुछ दिन पहले जनता दल दो भाग में बंट गई. नीतीश ने अनपी पुरानी पार्टी समता पार्टी को पुनर्जीवित किया, वहीं शरद यादव और राम विलास जदयू हो गये और आनंद मोहन सिंह की बिहार पीपुल्स पार्टी अलग थी. यानी इस चुनाव में बीजेपी और ये सभी पार्टियों ने अकेले-अकेले चुनाव लड़ा. इन सबके बीच टिकट के बंटवारे को लेकर इतनी उठापटक हुई कि इसका फायदा लालू को मिल गया. ध्यान देने वाली बात है कि ये बिहार का अंतिम बैलेटे पेपर का चुनाव था. लालू यादव कांग्रेस के साथ मिलकर राबड़ी देवी को मुख्य मंत्री बनाने में कामयाब रहे. हालांकि, ऐसा कहा जाता है कि मतगणना के दौरान लालू ने अपनी सरकार का फायदा उठाया. कई सीटों पर उनके ऊपर आरोप लगे कि उन्होंने अपने प्रभाव का फायदा उठाकर जीत-हार के अंतर को प्रभावित किया. (2000 के बाद की कहानी अगले अंक में)

मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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