मैदान ही में नहीं होता युद्ध, जगहें बदलती रहतीं
कभी -कभी उफ तक नहीं होती वहां, जहां घमासान जारी रहता!
-चन्द्रकान्त देवताले
सरदार सरोवर बांध को लेकर नर्मदा बचाओ आंदोलन (नबआ) की याचिका पर अंततः सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ ही गया. तीन दशक की कानूनी लड़ाई के बाद आए फैसले ने प्रसिद्ध चिंतक व पत्रकार प्रभाष जोशी के इस कथन की याद दिला दी कि 'फैसला हुआ है न्याय नहीं.’ इस बार हम शायद दो कदम आगे बढ़े हैं क्योंकि इस फैसले ने 'नबआ' की नैतिकता को ठोस आधार प्रदान कर दिया है. सरकारें, नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण, नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण व तमाम अन्य सरकारी विभाग के जीरो बेलेंस यानी कि कोई भी व्यक्ति पुनर्वास हेतु शेष नहीं रहा है, के दावे की धज्जियां उड़ा दी हैं. दूसरे अर्थों में कहें तो 'नबआ' ने लड़ाई जीत ली है, परंतु युद्ध जीतना अभी शेष है. वैसे सुप्रीम कोर्ट का नवीनतम फैसला उत्तर कम दे रहा है, प्रश्न अधिक खड़े कर रहा है. अतएव इस निर्णय का विश्लेषण न केवल कानूनी पक्ष से बल्कि सामाजिक पक्ष के आधार पर करना जरूरी हो गया है.
यह कहा जा सकता है कि किसी निर्णय पर पहुंचना, अनिर्णय से बेहतर होता है परंतु यह हमेशा लाभदायक हो ऐसा जरूरी नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कुछ को 60 लाख रु. और कुछ को 15 लाख रु. मुआवजे देने की बात कही है जबकि पिछली सुनवाई के दौरान उन्होंने दोनों पक्षों को आदेशित किया था कि एक समिति, जो इस मामले की विस्तृत जांच कर रिपोर्ट देगी, के लिए अपनी पसंद के नाम 8 फरवरी की सुनवाई में दें. दोपहर को एक समाचार एजेंसी ने एक तीन सदस्यीय न्यायाधीशों की समिति के नाम भी सार्वजनिक कर दिए थे. परंतु बाद में न्यायालय ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया. अखबारों में छपी रपट के अनुसार न्यायालय ने कहा कि, 'जमीन के बदले जमीन देना संभव नहीं था क्योंकि सरकारों के पास इतनी जमीन नहीं है.’ यहां पूरे सम्मान के साथ यह उल्लेख करना जरूरी है कि अकेले मध्यप्रदेश में उद्योगों को देने के लिए जितना लैंड बैंक है, उससे कम में सभी डूब प्रभावितों को जमीन के बदले जमीन आसानी से मिल सकती थी. बहरहाल इसके अलावा यह प्रश्न भी उठता है कि पुनर्वास नीति की दुहाई देकर पूरा बांध बना लेने के बाद क्या सरकार अपने द्वारा किए गए वायदे से स्वयं को अलग कर सकती है.
इसी के साथ इस निर्णय से एक अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है वह है, 'व्यावहारिकता बनाम वैधानिकता’ का. मेधा पाटकर के नेतृत्व में पिछले तीन दशकों से नर्मदा बचाओ आंदोलन और नर्मदा घाटी के निवासियों का जीवन कानूनी तौर पर अपना अधिकार पाने के संघर्ष को समर्पित रहा है. अनेक बार यह बात न्यायालय ने भी स्वीकार की है कि नकद मुआवजा एक अर्थ में मुआवजा है ही नहीं. यदि व्यावहारिकता के आधार पर निर्णय लेना होता तो थोड़े कम ज्यादा में बहुत पहले यह मामला समाप्त हो सकता था परंतु वास्तविक मुद्दा तो यही था कि सरकारों ने जो वादे किए हैं उन्हें पूरा करने से वह पीछे कैसे हट सकती है. हाल ही में तमिलनाडु में जल्लीकट्टू को लेकर उठे विवाद के पीछे भी यही तर्क था कि ठोस कानून-नियम, कायदे व निर्णय के बाद इस प्रथा को पुर्नजन्म क्यों दिया जा रहा है? अरुंधति राय ने सरदार सरोवर बांध से संबंधित अपने निबंध में लिखा भी है, 'राज्य कभी नहीं थकता है. कभी बुढ़ाता नहीं, उसे आराम नहीं चाहिए. यह एक अंतहीन दौड़ दौड़ता रहता है. मगर लड़ते हुए लोग थक जाते हैं. वे बीमार पड़ जाते हैं. यहां तक कि जवान भी उम्र के पहले बूढ़े हो जाते हैं. यदि नकद मुआवजा ही स्वीकारना होता तो न्यायालय की शरण में जाने की आवश्यकता ही क्या थी. यदि दुनिया में व्यावहारिकता ही सर्वोपरि होती तो सैद्धान्तिकता की आवश्यकता ही क्या थी ? इस निर्णय से अभी तक यह भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि इस आयोग द्वारा दोषी ठहराए गए अधिकारी व दलालों पर भी होने वाली आपराधिक कार्यवाही का क्या भविष्य हैं?
नर्मदा घाटी में नर्मदा नदी अत्यंत गहरी है अतएव वहां लहरें भी उठती कम ही दिखती हैं. ठीक वैसा ही वहां के निवासियों की स्थिति है. वे अत्यंत शांतिप्रिय व कानून का पूर्ण अनुपालन करने वाले समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं. परंतु इस निर्णय को लेकर उनके मन में शंका पैदा होना वाजिब है. भोपाल गैस कांड के बाद मध्यप्रदेश का यह दूसरा सबसे महत्वपूर्ण निर्णय है और दोनों ही अपने आप में तमाम प्रश्नों का जन्म दे रहे हैं. अतएव प्रथम दृष्टया यह प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पुनर्विचार याचिका प्रस्तुत करते हुए अनुरोध किया जाना चाहिए कि यदि संभव हो तो इस निर्णय को संविधान पीठ के समक्ष रखा जाए. गौरतलब है कि नए भूमि अधिग्रहण कानून के अन्तर्गत मुआवजे के निर्धारण की प्रक्रिया की निगरानी भी आवश्यक है. साथ ही इस निर्णय में भूमिहीनों के लिए किसी भी तरह के प्रावधान का कोई जिक्र तक नहीं है. वे विस्थापन की सबसे ज्यादा पीड़ा झेलते हैं. वैसे भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में स्पष्ट उल्लेख है, 'राज्य, भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा. इस परिप्रेक्ष्य में इस तथ्य पर ध्यान देना होगा कि सरकार ने न्यायालय में अभी भी प्रभावितों की संख्या अनिश्चित (टेंटेटिव) ही बताई है. अतएव सर्वप्रथम तो निश्चित संख्या पर दोनों पक्षों की सहमति बनना और उस पर न्यायालय की मोहर लगवाना भी आवश्यक है.
गौरतलब है नर्मदा बचाओ आंदोलन के तीन दशक के अहिंसक संघर्ष की परिणति और भी बेहतर निर्णय के साथ हो पाना अपेक्षित है. सुप्रीम कोर्ट भी घाटी के लोगों की अधीरता का ध्यान में रखते हुए इस निर्णय पर पहुंचा है. न्यायालय की मंशा संदेह से परे है. परंतु, सरदार सरोवर बांध प्रभावितों व नर्मदा बचाओ आंदोलन का संघर्ष कुछ अन्य व्यापक विषयों पर भी निर्णय चाहता था. यदि सरकारें अपने वायदे पूरे न कर मामलों को अंतहीन दौड़ का स्वरूप दे दें तो क्या यह निर्णय उनको सही राह पर लाने का पैमाना बन पाएगा? यह तय है कि निर्णय से पूरी तरह संतुष्ट करवाना न्यायालयों का काम नहीं है परंतु आम जनता का भी यह नैतिक दायित्व है कि वह ऐसे महत्वपूर्ण मसलों पर अपनी राय अवश्य दे. भारतीय आजादी को महात्मा गांधी राजनीतिक आजादी तक समेटते हुए कहते थे कि अभी हमें पूर्ण सामाजिक आजादी की ओर तक पहुंचने में और अधिक प्रयत्नशील होना होगा. सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय उस ओर उठा हुआ कदम प्रतीत होता है. मुख्य न्यायाधीश ने मेधा पाटकर से कहा, 'आप 38 साल से मुआवजे की लड़ाई लड़ रही हैं. हमने एक ही बार में आपकी मांग पूरी कर दी.’इससे साफ जाहिर हो गया कि विकास के मार्ग में अड़ंगा नबआ नहीं सरकारें स्वयं लगा रहीं थीं. नर्मदा घाटी के साहसी व धैर्यवान निवासियों को इस कानूनी लड़ाई में छोटी जीत की बधाई और युद्ध में विजय हेतु शुभकामनाएं.
शंकर गुहा नियोगी ने कहा है...
शहीदों के खून से सींचे हुए/कुर्बानी के रास्ते पर/बढ़ते चलो कदम-कदम/इस आखिरी युद्ध में/ सुनिश्चित है हमारी विजय...
( चिन्मय मिश्र सर्वोदय प्रेस सर्विस के संपादक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं )
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This Article is From Feb 10, 2017
नर्मदा घाटी: लड़ाई तो जीती मगर युद्ध जारी है..
Chinmay Mishra
- ब्लॉग,
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Updated:फ़रवरी 10, 2017 15:59 pm IST
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Published On फ़रवरी 10, 2017 15:50 pm IST
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Last Updated On फ़रवरी 10, 2017 15:59 pm IST
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