कश्मीर की हालत को लेकर देश में भारी चिंता है. फारुख अब्दुल्ला के अनुसार जो पत्थर फेंक रहे हैं वह अपने वतन के लिए लड़ रहे हैं. पी. चिदंबरम का कहना है कि कश्मीर हाथ से फिसल रहा है. उनके अनुसार, कश्मीर ने अच्छा-बुरा समय पहले भी देखा है पर यह सबसे खराब समय लगता है. दूसरी तरफ, सुरक्षा बलों पर लगातार हमले हो रहे हैं. दोनों गठबंधन साथियों के बीच अविश्वास ने हालात और जटिल बना दिए हैं. राजनीतिक वर्ग लापता है. अब पीडीपी के नेता अब्दुल गनी डार की मिलिटैंटस द्वारा हत्या के बाद यह वर्ग और भी कम हिम्मत दिखाएगा.
जब से आतंकी बुरहानी वानी को मारा गया है हालात गंभीर बने हुए हैं. सोशल मीडिया का खूब गलत इस्तेमाल कर सुरक्षा बलों का काम मुश्किल किया जा रहा है. अनुमान है कि 200 के करीब व्हाट्सएप ग्रुप पत्थरबाजों को उकसा रहे हैं. जब भी कहीं मुठभेड़ चल रही होती है, व्हाट्सएप के द्वारा युवकों को वहां बुला लिया जाता है और वह मिलिटैंटस का कवच बनने की कोशिश करते हैं.
देशविरोधी ताकतें चाहती हैं कि टकराव बढ़े, युवक घायल हों, कुछ मारे जाएं ताकि हालत और बिगड़ें. अफवाह फैलाना ही एक उद्योग बन चुका है. जहां 20 युवक घायल होंगे वहां 200 बताया जाएगा, लेकिन ऐसा कश्मीर में पहली बार नहीं हुआ. 1990 के शुरू में भी एक स्थानीय मस्जिद से घोषणा की गई थी कि सुरक्षा बलों ने श्रीनगर के मुख्य वाटर स्टेशन में जहर मिला दिया है.
श्रीनगर के उपचुनाव में मामूली मतदान ने बता दिया कि वहां लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास खो रहे हैं पर दिलचस्प है कि रोज सरकार को लताड़ने वाले फारुख साहिब इतने कम समर्थन के बल पर सांसद जरूर बन बैठे हैं. उन्हें तो इस्तीफा दे देना चाहिए था कि मैं इतने कम समर्थन पर सांसद नहीं रह सकता. पर कौन इस्तीफा देता है?
हालत गंभीर है पर यह सबसे बुरा वक्त नहीं. हमारे बुद्धिजीवी शुतुरमुर्ग की तरह हकीकत से आंखें चुराते हैं. इतिहासकार रामचन्द्र गुहा का कहना है कि कश्मीर में अंधेरा गहरा रहा है. यशवंत सिन्हा का कहना है कि वहां विश्वास पूरी तरह से खत्म हो चुका है, ‘‘क्योंकि भारत ने कश्मीरियों को साथ रखने के लिए पर्याप्त कुछ नहीं किया.’’
ऐसे खुले बयान पर मुझे बहुत आपत्ति है. ठीक है कि हमने कुछ गलतियां की हैं, लेकिन कश्मीरी नेतृत्व भी बेकसूर नहीं. उन्होंने ही ऐसे हालात बना दिए कि स्थिति बेकाबू नजर आती है. आजादी के बाद से ही वह उस दिशा में चल रहे हैं जो कश्मीर को देश से अलग करती है. अगर विश्वास की बहाली होनी है तो यह एकतरफा नहीं, दो तरफा होनी चाहिए.
आज फिर कहा जा रहा है कि बातचीत करो, बातचीत करो जैसा ‘रॉ’ के पूर्व प्रमुख एएस दुल्लत भी कह रहे हैं. लेकिन किससे? कौन है, जिससे सार्थक बातचीत हो सकती है? याद करिए जब संसद का प्रतिनिधिमंडल श्रीनगर गया था तो सईद अली शाह गिलानी ने सीताराम येचुरी तथा डी राजा जैसे ‘सेक्युलर’ नेताओं के मुंह पर अपना दरवाजा बंद कर दिया था.
कश्मीर में साजिश गहरी है. न ही यह सबसे बुरा वक्त है, जैसे चिदंबरम कह रहे हैं. सबसे बुरा वक्त 1992 के शुरुआती दिनों में था, जब रातोंरात कश्मीरी पंडितों को हत्याएं, लूटपाट और बलात्कार की घटनाओं के बाद वहां से निकाल दिया गया था. मस्जिदों से घोषणा की गई कि निकल जाओ वरना....! और यह सुपरपॉवर बनने की आकांक्षा पाले हुए देश कश्मीर में नस्लीय सफाई के इस घिनौने प्रयास को बर्दाश्त कर गया? आज तक गिलानी या मीरवाइज जैसे लोगों ने इस शर्मनाक घटना की निंदा नहीं की. उलटा, जब भी कभी कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास का प्रयास किया जाता है तो गिलानी साहिब अपनी बीमारी भूलकर इसके खिलाफ डट जाते हैं.
कश्मीरी पंडितों को वहां से क्यों निकाला गया? इसलिए कि वहां मुस्लिम बहुसंख्या वाला प्रदेश क्षेत्र कायम करना था. आज जो हम देख रहे हैं वह उसकी प्रक्रिया की पराकाष्ठा है. बुरहान वानी के उत्तराधिकारी हिजबुल मुजाहिद्दीन के कमांडर जाकिर रशीद भट्ट का कहना है कि 'जब हम पत्थर उठाएं तो हमारा इरादा कश्मीर के लिए लडऩे का नहीं होना चाहिए. एकमात्र उद्देश्य इस्लाम की सर्वोच्चता तथा शरिया कायम करना होना चाहिए'. यही कारण है कि वहां न केवल पाकिस्तान बल्कि आईएस के झंडे लहराए जाते हैं. कश्मीर अंतरराष्ट्रीय जेहाद का हिस्सा बनता जा रहा है. अब वहां विकास की कोई बात नहीं करता. वैसे भी कश्मीर वादी में प्रति व्यक्ति आय बाकी जम्मू-कश्मीर से दोगुनी है. कोई कश्मीरी नहीं, जिसके पास छत नहीं. टैक्स वह देते नहीं. ऊपर से पहले गालियां निकालते थे, अब पत्थर फेंक रहे हैं.
30 राष्ट्रीय राइफल्स के मेजर सतीश दहिया इसलिए मारे गए, क्योंकि मुठभेड़ में घायल होने के बाद उग्र भीड़ ने सेना की गाड़ी को रोक लिया और जब तक वह अस्पताल पहुंचे उनकी मौत हो चुकी थी. ऐसे लोग बेकसूर नहीं, वह हत्या में शामिल हैं. एक पत्थरबाज को सेना की गाड़ी के आगे बांधकर ले जाने से वहां बहुत बवाल मचा है, लेकिन कश्मीर वह भी जगह है, जहां सुरक्षा बलों की गाडि़य़ों पर पत्थराव होता है और अगर वह पैदल चल रहे हैं तो उन्हें अपमानित किया जाता है. उनकी कर्तव्य की भावना तथा भारी उत्तेजना में संयम रखना दुनिया में एक मिसाल है.
हमारी कमजोरी रही है कि हम साजिश को रोक नहीं सके. कुछ लोग देश में हिन्दुत्व की लहर को इसके लिए जिम्मेवार बता रहे हैं. पीडीपी-भाजपा गठबंधन को इसके लिए जिम्मेवार ठहरा रहे हैं, क्योंकि अब जम्मू भी अपना अधिकार मांग रहा है, लेकिन कश्मीर में साजिश की नींव तो बहुत पहले 1990 की शुरूआत में पड़ी थी. तब नरेंद्र मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री बनने में अभी दस साल थे. योगी आदित्यनाथ 18 साल के थे. आज जो उदारवादी कश्मीर की स्थिति पर धड़ाधड़ बयान दे रहे हैं वह जान-बूझकर उस शर्मनाक घटनाक्रम का जिक्र नहीं करते जो 1990 की शुरू में घटा था. कश्मीर से विस्थापित नई दिल्ली में कार्यरत एक कश्मीरी पंडित महिला डॉक्टर ने अपनी त्रासदी सुनाते वक्त मुझसे पूछा था, 'आपने एयरलिफ्ट देखी है? हमारा भी वही हाल हुआ था.' जो आज सरकार को कोस रहे हैं उन्हें यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए. तब उन्हें समझ आएगा कि कश्मीर की त्रासदी की शुरुआत कहां से हुई थी. क्याा हुआ या, और क्यों हुआ था.
चंद्रमोहन वरिष्ठ पत्रकार, ब्लॉगर और कॉलम लेखक हैं...
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