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This Article is From Aug 16, 2017

क्या केवल सुपरबाइक पर चर्चा से देश के बाकी हिमांशु बंसल बच पाएंगे...?

Kranti Sambhav
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 16, 2017 15:50 pm IST
    • Published On अगस्त 16, 2017 15:47 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 16, 2017 15:50 pm IST

एक और दुखद हादसा. एक और दर्दनाक मौत. एक बार फिर चर्चा सुपरबाइक्स की. सुपरबाइक्स की ख़ामियों की, ख़तरों की और नौजवानों पर रफ़्तार के जुनून की. दिल्ली में बेनेली 600i मोटरसाइकिल चलाते एक नौजवान की मौत के बाद चर्चा फिर वहीं घूमकर आ गई है. हर बार इस तरह की चर्चा जहां से शुरू होती है, वहीं घूमकर आ जाती है. फिर आ गई है. सुपरबाइक की चर्चा होने लगी है. उनके ख़तरों की फ़ेहरिस्त बनने लगी है. और मैं फिर सोच में पड़ा हुआ हूं. वैसे तो बेनेली 600i को तो सुपरबाइक कहना भी ठीक नहीं लग रहा. वह तो मझोली ताक़त वाली बाइक है. पर सवाल वह बिल्कुल नहीं है. सवाल यह है कि क्या सुपरबाइक्स पर चर्चा कर देश के बाकी परिवारों को उजड़ने से बचाया जा सकता है. क्या राइडर अगर किसी और सवारी पर होता और घटनाएं इसी तरह से घटित होतीं तो क्या स्थिति बदल जाती...? क्या जिन देशों में सुपरबाइक बनती हैं, सबसे ज़्यादा बिकती हैं और सड़कों पर चलती हैं, वहां पर तो हर दूसरा इंसान मरता होगा...? नहीं. फिर सच्चाई क्या है...? सच्चाई यह है कि जिस देश में सौ सीसी की मोटरसाइकिलों और स्कूटरों से सड़कें अटी पड़ी हैं, वहां हर रोज़ लगभग 30 टू-व्हीलर सवारों की मौत होती है. 2016 का औसत28 टू-व्हीलर सवार की रोज़ाना मौत. सवाल यह है कि कब तक ट्रेंडिंग टॉपिक पर चिंता ज़ाहिर करते रहेंगे...?

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क्या चर्चा होनी चाहिए...?
यह आम मनोविज्ञान है कि मौत से ज़्यादा हमारा ध्यान मौत के तरीक़ों पर जाता है. नाटकीय मौत नाटकीय हेडलाइन बनाती हैं. सुपरबाइक और सुपरकार से मौत, हेडलाइन को सेंसेशनल बनाते हैं. मुझे हेडलाइन के नाटकीय होने से आपत्ति नहीं, पर चर्चा को अंधे मोड़ की तरफ़ धकेलने से आपत्ति है. आम लोगों की चर्चा का अब पहले से ज़्यादा परिपक्व होना ज़रूरी है. सुपरबाइक और सुपरकार के ट्रैप से बाहर निकलकर इस तरह की चर्चा के बाक़ी आयामों को देखने की ज़रूरत है. तब भी चर्चा करने की ज़रूरत है, जब घटना में कोई सुपरबाइक शामिल न हो. चर्चा तो यह होनी चाहिए कि दिल्ली में पिछले साल सड़क हादसों में लगभग पौने छह सौ से ज़्यादा मौतें हुई थीं, जिनमें दो तिहाई से ज़्यादा मौतें ट्रैफ़िक नियमों की अनदेखी की वजह से हुईं. बाइकर सुरक्षा के गियर नहीं पहनते हैं. प्रकृति के नियम के हिसाब से ही दोपहिया गाड़ियों के गिरने की आशंका हमेशा ज़्यादा होती है. देश में मौत के आंकड़े देखें, तो भी मरने वालों में सबसे बड़ी तादाद पैदल और दोपहिया चालकों की ही होती है. ऐसे में इस दर्दनाक आंकड़े को कम करने के लिए केवल सवारी को कोस कर कुछ हासिल नहीं होगा. देश में रोड सेफ़्टी का मुद्दा मॉल की दुकानों में चैरिटी के लिए डाले गए डिब्बे की तरह है, जिसमें लोग तभी पैसे डालते हैं, जब खुदरा रखने के लिए पॉकेट नहीं मिल रहा होता. जान लगातार जा रही है, चर्चा रुक-रुककर हो रही है.

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ज़रूरत क्या है...?
सड़कों पर मौतों के लिए कार-बस-ट्रक-बाइक को ज़िम्मेदार ठहराने से कुछ हल नहीं होने वाला है, उनके आसपास के हालात, उनकी सीट पर बैठे लोगों की चर्चा ज़रूरी है. हल तब सामने आएगा, जब हम और सरकारें समझेंगी कि अब न तो देश 1980 में जी रहा है, न गाड़ियां 40 साल पुरानी हैं, न ट्रैफ़िक वैसा है, न जनसंख्या. जब सब कुछ बदल गया है, तो नियम और नियमों को लागू करवाने का हमारा मैकेनिज़्म क्यों इतनी पुराना है...? जब पूरा देश डिजिटाइज़ हो रहा है, जब मैनिफ़ेस्टो में सीसीटीवी का इतना हल्ला हो चुका है, तो फिर क्यों नहीं टेक्नोलॉजी के ज़रिये ट्रैफ़िक नियमों को लागू करवाया जाता...? आख़िर ड्राइवरों और राइडरों में इतनी हिम्मत कहां से आती है कि वे ट्रैफ़िक नियम तोड़ भी दें, तो कोई देखने वाला नहीं है. फिर ज़रूरत है कि देश में लाइसेंसिंग का तरीक़ा बदला जाए, जहां पर तेज़तर्रार, ज़्यादा बड़े इंजन वाली कारों और बाइक्स को चलाने के लिए अलग से लाइसेंस की व्यवस्था हो. ड्राइविंग लाइसेंस हक़ नहीं बनना चाहिए, प्रिविलेज होना चाहिए, विशेषाधिकार होना चाहिए, जो सिर्फ़ उसे मिले, जो ट्रेनिंग पा चुका हो.

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सुपरबाइक खरीदने से पहले सोचिए
इन सबके बाद नौजवानों और उनके अभिभावकों को यह समझने की ज़रूरत है कि सुपरबाइक्स और सुपरकार ऐसी सवारियां हैं, जिनकी ताक़त का अंदाज़ा आम सड़कों पर आम मोटरसाइकिल-कारों को चलाकर नहीं होता. और ये भी किसी हथियार की तरह हैं, जो कब जानलेवा बन जाएं, इसका कोई ठिकाना नहीं. तो केवल पैसा होने से कोई सुपरबाइक चलाने के काबिल हो जाता है, यह ज़रूरी नहीं. इनकी रफ़्तार के लिए ट्रेनिंग चाहिए. इन्हें संभालने के लिए ट्रेनिंग चाहिए. अब तो दिल्ली के पास रेस ट्रैक भी है. अगर लाखों की बाइक्स और कार ख़रीद सकते हैं, तो फिर ट्रेनिंग और तजुर्बे के लिए ट्रैक डे में शामिल होना चाहिए, जो कई रेसिंग संस्था चलाती हैं. साथ में यह भी समझने की ज़रूरत है कि रफ़्तार जितनी बढ़ेगी, ख़तरा उतना ज़्यादा होगा. ख़ासकर कम उम्र के जोश के साथ इस तरह की बाइक्स और कारें, खिलौना बंदूक की शक्ल में असल बंदूक साबित हो सकती हैं.

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ये सभी बातें हिमांशु को वापस नहीं ला सकतीं, हर दिन हिमांशु की ही तरह अलग-अलग वजहों से जान गंवाने वाले दोपहिया सवारों को भी वापस नहीं ला सकतीं, लेकिन हमारे लिए यह चर्चा ज़रूरी है, ताकि आने वाले वक़्त में हम बाक़ी हिमांशुओं को बचा पाएं.
 

क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...

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