गुजरात सरकार ने गुरुवार को राज्य में स्थानीय चुनावों में अनिवार्य मतदान के लिए नियम बना दिए, वोटिंग न करने पर और उसका संतोषपूर्ण खुलासा न कर पाने पर 100 रुपये जुर्माना भी लगा दिया। हालांकि स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य मिलाकर 12 कारणों से वोटिंग न करने पर छूट भी दे दी गई है। लेकिन सवाल यह उठ रहा है कि क्या सरकार ने यह नियम बनाकर अपना 'ईगो' भर पूरा किया है।
गुजरात में मतदान अनिवार्य करने के लिए पहली बार बिल नरेन्द्र मोदी, बतौर मुख्यमंत्री लाए थे। चालाकी यह थी कि इसी बिल में स्थानीय चुनावों में 50 प्रतिशत महिला आरक्षण भी जोड़ दिया गया था। सालों तक यह मामला केन्द्र की यूपीए सरकार द्वारा बनाए गए राज्यपाल और गुजरात के भाजपा के मुख्यमंत्री के बीच संघर्ष का मुद्दा बना रहा।
राज्यपाल कहते रहे कि वोटिंग अनिवार्य कर पाना संभव नहीं है, यह मौलिक अधिकारों का हनन है। उन्होंने कहा कि सरकार महिला आरक्षण और अनिवार्य मतदान के लिए अलग-अलग बिल पारित करे, ताकि महिला आरक्षण लागू किया जा सके। नरेन्द्र मोदी सरकार ने बिना कोई फेरबदल किए बार-बार यही बिल विधानसभा में पारित किया। सरकार ने आरोप लगाया था कि राज्यपाल महिला आरक्षण लागू नहीं होने दे रही हैं।
यह अंतहीन संघर्ष चलता रहा। आखिर संघर्ष खत्म हुआ केन्द्र में भी भाजपा की सरकार आने के बाद। अब राज्यपाल भी उन्हीं के बनाए हुए थे, बिल के मुख्य प्रस्तावक नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बन चुके हैं। ऐसे में बिल तो पास होना ही था, राज्यपाल ने मंजूर भी कर लिया। बिल मंजूर हुए करीब 6 महिने बीत गए हैं। महिला आरक्षण को लेकर नियम तुरंत बना दिए गए थे लेकिन वोटिंग अनिवार्य करने के लिए नियम बनाने को लेकर जद्दोजहद अब तक जारी थी। डर भी था कि कहीं जुर्माना ज्यादा रख दिया तो लोग नाराज न हो जाएं और भाजपा को इसका खामियाजा न भुगतना पड़ जाए।
अब बीच का रास्ता निकाला गया है। जुर्माना भी 100 रुपये, यानि नाम भर के लिए ही रखा गया है। वोटिंग न करने के लिए आम तौर पर मिडल क्लास और समृद्ध तबके को कोसा जाता है। इस वर्ग को 100 रुपये जुर्माना देने में कभी हर्ज नहीं हो सकता। सवाल आता है गरीबों का। ज्यादातर गरीब अपने घर-बार से दूर काम की तलाश में गए होते हैं। ज्यादातर आदिवासी मजदूरी के लिये शहरों में जाते हैं। सिर्फ मानसून में खेती करने के लिए ही घर जाते हैं। ऐसे में अगर वोटिंग करनी है तो उन्हें 500 से 1000 रुपये खर्च कर और मजदूरी का खामियाजा भुगतकर जाना होगा। क्या यह उनके हित में होगा। शहरों में जो गरीब काम करते हैं वे अगर एक दिन काम पर नहीं जाएंगे तो उन्हें उनकी दिहाड़ी, जो 100 रुपये से लेकर 500 रुपये तक हो सकती है, से हाथ धोना पड़ेगा। ऐसे में उन्हें तो दोनों तरफ से मरना है। या तो सरकार पैसा लेगी या मालिक पैसा काट लेगा।
जब कुछ लोगों से मेरी बात हुई तो उन्होंने कहा कि हम टू-व्हीलर पर चलते हैं तो हेलमेट पहनना जरा भी अच्छा नहीं लगता। इस कारण ट्रैफिक पुलिस को 50 - 100 रुपया जुर्माना तो हर महिने दे देते हैं। यह तो 5 साल में एक बार ही देने की बात है। यानि सिर्फ 100 रुपया जुर्माना बेमानी है।
इससे भी अहम बात यह है कि क्या मुझे वोट देने के लिए सरकार जबरदस्ती कर सकती है? क्या हम सरकार पर जबरदस्ती कर सकते हैं कि ऐसी व्यवस्था बने कि हमें अच्छा लगे, ऐसे लोगों को ही राजनैतिक पार्टियां उमीदवार के तौर पर खड़ा करें? क्या वोट देना या न देना मेरा निजी अधिकार नहीं है? क्या सरकार मुझ पर जबरदस्ती करके मेरी आजादी छीन नहीं रही है?
महत्वपूर्ण यह है कि जो कोंग्रेस यहां पर इसे मौलिक अधिकारों का हनन बता रही है, उन्हीं की सरकार ने कर्नाटक में ग्राम पंचायतों में वोटिंग अनिवार्य करने का बिल विधानसभा में पारित कर दिया है। देखना है कि इस मुद्दे पर आगे राजनीति कैसी चलती है।
This Article is From Aug 07, 2015
क्या जुर्माने का डर पैदा करके वोट डलवाना ठीक है?
Rajeev Pathak
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Updated:अगस्त 07, 2015 19:33 pm IST
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Published On अगस्त 07, 2015 19:24 pm IST
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Last Updated On अगस्त 07, 2015 19:33 pm IST
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