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This Article is From Sep 28, 2019

BLOG: जलवायु परिवर्तन के प्रति कार्यवाही ना करने पर अमेरिका और स्वीडन पर मुकदमा क्यों नहीं?

Suranya Aiyar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 28, 2019 14:36 pm IST
    • Published On सितंबर 28, 2019 14:36 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 28, 2019 14:36 pm IST

स्वीडन की सोलह वर्षीय ग्रेटा थूनबर्ग और उसकी उम्र के कुछ और युवाओं ने तुर्की, अर्जेंटीना, ब्राजील, जर्मनी और फ़्रांस के ख़िलाफ़ तो जलवायु परिवर्तन के प्रति कार्यवाही न करने के विषय में मुक़दमा दर्ज किया है, लेकिन अमेरिका के ख़िलाफ़ नहीं, जिसका प्रति व्यक्ति हानिकारक गैस उत्सर्जन दुनिया में अधिकतम है. ये किशोर उस स्वीडन पर भी मुक़दमा नहीं कर रहे हैं जिसका प्रति व्यक्ति गैस उत्सर्जन ब्राज़ील के प्रति व्यक्ति गैस उत्सर्जन का दो-गुना है.

विभिन्न देशों का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन विश्व की जलवायु में उसके प्रदूषण योगदान को दिखाता है. अमेरिका इस सूची में सबसे ऊपर है. वहां प्रति व्यक्ति उत्सर्जन तक़रीबन सभी विकसित देशों से, जिनमें जर्मनी और फ़्रांस भी शामिल है, दो-गुने से अधिक है. दुनिया के हर विकसित देश का गैस उत्सर्जन एशिया के विकासशील देशों की तुलना में (चीन को छोड़कर) तीन-गुना अधिक है. अफ़्रीकी विकासशील देशों के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन की दर तो विश्व के बाक़ी अन्य देशों के सामने कुछ भी नहीं है. अगर आप तुलना करें, मसलन एक न्यू योर्कर की ब्राज़ील या तुर्की के किसी गांव में रहने वाली महिला से, तो प्रति व्यक्ति गैस उत्सर्जन का अंतर इन देशों के राष्ट्रीय औसत के अंतर से कहीं अधिक होगा. कहते हैं कि अगर हर कोई स्वीडन वालों की तरह रहने लगे तो हमें उत्सर्जन की समस्या से निपटने के लिए 7 पृथ्वी की ज़रुरत होगी.

इस संदर्भ में, किसी विकासशील देश को निशाना बनाने का कोई तुक नहीं बनता. इसी कारण ही तो वर्षो से विकासशील देश और विकसित देशों में उनके सहानुभूतिशील साथी ने ग़रीबी और प्रति व्यक्ति उत्सर्जन को जलवायु संबंधित बहसों के केंद्र में रखने की लड़ाई लड़ी है. अगर आप प्रति व्यक्ति उत्सर्जन को नहीं देखते हैं तो आप उत्सर्जन के असली कारण को छुपाते हैं जो कि जीवनशैली (तकनीकी भाषा में “उपभोग”) और उत्पादन के पर्यावरणीय रूप से हानिकारक (“अरक्षणीय”) तरीक़े हैं.

अगर आप प्रति व्यक्ति उत्सर्जन की अनदेखी करते हैं तो आप 1970 के पहले का वह नस्लवाद और सुजननवाद वापस ले आते हैं जो विकासशील देशों की जनसंख्या और उनकी सामाजिक-आर्थिक आकांक्षाओं को जलवायु के बिगड़ने का कारण ठहराता है.

जलवायु, विकास और जनसंख्या पर होने वाली हर बातचीत अपने में नस्लवाद और सुजननवाद का बीज रखती है. पृथ्वी के सीमित संसाधनों के हिसाब से जनसंख्या कितनी होनी चाहिए; या देशों के बीच औद्योगी उत्पादन का विभाजन कैसे करना चाहिए, राष्ट्रीय या वैश्विक स्तर पर यह सवाल करना हमें उस ख़तरनाक जगह के करीब ले जाता है जहां हम लोगों के बीच अनैतिक भेदभाव अथवा उनपर अलोकतांत्रिक पाबंदियां लगाने के बारे में सोचने लगते हैं. नाज़ी यातना शिविरों से लेकर एबोरिजिनल बच्चों को जबरन गोद लिया जाना और आपात-काल के समय भारत के नसबंदी शिविर, इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा हुआ है जहां राज्य द्वारा प्रायोजित भयानक कार्यक्रमों को जनता के स्वास्थ्य, बच्चों के बेहतर भविष्य और जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर उचित ठहराया गया है. इसका यह मतलब नहीं है कि हमें पर्यावरण पर बात नहीं करनी चाहिए, लेकिन हमें पता होना चाहिए कि विचारों के जिस परिवार से पर्यावरण की बात आती है उसमें एक जीन पागलपन का भी है और हमें उन विचारों के प्रति चौकन्ना रहना चाहिए जिनमें इस जीन के होने की संभावना हो.

जलवायु पर होने वाली बहसों के अनुभवियों को इस रास्ते का ख़ूब पता है. पिछले 50 वर्षों में दुनियाभर में लोगों ने बहुत लम्बी मेहनत के बाद वह ढांचा विकसित किया है जिसमें इन मुद्दों पर नस्लवाद, सुजननवाद और राज्य की दमनकारी कार्यवाहियों में फंसे बगैर बात की जा सके. यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र के सदस्य राज्य इस बात पर हमेशा ज़ोर देते हैं कि जलवायु, विकास और जनसंख्या को अलग-अलग नहीं, बल्कि ग़रीबी, व्यक्तिगत स्वस्थ्य, आर्थिक विकास और नागरिक स्वतंत्रता की विस्तृत चाहरदीवारी में देखा जायेगा. 70 के दशक से संयुक्त राष्ट्र में इसी दृष्टिकोण पर सहमति है. इस विषय में और जानकारी के इच्छुक 1974 में संयुक्त राष्ट्र बुखारेस्ट सम्मेलन, 1994 में काहिरा सम्मेलन की कार्यवाही की योजना और 2000 संयुक्त राष्‍ट्र मिलेनियम डवलपमेंट गोल (एमडीजी/सहस्रा‍ब्‍दी लक्ष्य) का अध्ययन कर सकते हैं. ये महज ऐतिहासिक सिद्धांत नहीं है, हाल ही में इन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ के 2015 के सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी/सस्टेनेबल डवलपमेंट गोल) में इन्हें फिर से दोहराया गया है. सबसे महत्वपूर्ण बात, इन सभी समझौतों में स्पष्ट और सहमत सिद्धांत है कि जलवायु क्षरण की रोकथाम की शुरुआत विकसित देशों द्वारा होगी. विकासशील देशों को स्वच्छ तकनीकियों और पर्यावरण समाधानों को प्रदान किये जाने का ज़िम्मा भी विकसित देशों ने लिया है.

ये सिद्धांत 1992  के यूएन फ्रेमवर्क कन्‍वेंशन ऑन क्‍लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) तथा 2016 के पेरिस समझौता में भी दर्ज हैं. जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले “आम सहमति” की बात करते हैं. यह है पर्यावरण पर दुनिया की आम सहमति. यह पर्यावरण और प्रगति की दोहरी समस्या पर सम्पूर्ण और निष्पक्ष प्रतिक्रिया पर सहमति है. यह एक अच्छी सहमति है; शायद इस सीमित और असमान पृथ्वी के लिए एकमात्र सम्भावित सहमति.  

फिर भी ऐसा लग रहा है कि ग्रेटा थूनबर्ग, और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण, उनके पीछे खड़े लोग, जलवायु के लिए हुई इस सहमति को दरकिनार करने की कोशिश में हैं. शायद यही वजह है कि इन्होंने विकासशील और प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में कहीं बौने ठहरने वाले अर्जेंटीना, तुर्की और ब्राज़ील जैसे देशों के खिलाफ़ वैश्विक जलवायु की सुरक्षा के विषय में मुक़दमा दायर किया है.

अमेरिका ने जलवायु परिवर्तन पर्यावरणवाद को अमेरिकी विचारधारा के विरुद्ध बताते हुए ख़ारिज कर दिया है. लेकिन अमेरिका पर मुक़दमा न किये जाने का बहाना यह दिया जा रहा है कि वह बाल अधिकारों के लिए संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (युएनसीआरसी) का हिस्सा नहीं है. आख़िर क्यों ऐसी स्थिति में थूनबर्ग के संचालकों ने अमेरिका पर जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के अंतर्गत मुक़दमा नहीं किया, जिसमें अमेरिका भी शामिल है? अमेरिका अब तक केवल पेरिस समझौते से बाहर निकला है, व्यापक जलवायु कन्वेंशन से नहीं.

यहां ग्रेटा थूनबर्ग को बढ़ावा देने वालों का असली मकसद और समझ शक के घेरे में आ जाती है. यह बात सही है कि कार्बन फुटप्रिंट और जलवायु परिवर्तन ने विश्व का ध्यान आकर्षित किया है, लेकिन उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन दोनों ही कारण नहीं हैं बल्कि सिर्फ़ (ऐसा दावा किया गया है) पर्यावरणीय रूप से अरक्षणीय उत्पादन और खपत के परिणाम हैं. लेकिन सतत् उपभोग और उत्पादन को संयुक्त राष्ट्र की जलवायु चर्चाओं से बाहर किया गया है. इसे “सतत् उपभोग और उत्पादन के कार्यक्रमों का फ़्रेमवर्क” में रख दिया गया है जो जलवायु चर्चाओं की तुलना में कम प्रभावशाली व नज़र में कम आता है. पेरिस समझौता एक भव्य दृष्टि की उद्घोषणा करता है: वैश्विक औसत तापमान को औद्योगीकरण से पूर्व के औसत तापमान से अधिकतम 2 डिग्री सेल्सियस अधिक तक लाया जायेगा. लेकिन उसके पास इस तक पहुंचने के लिए किये जाने वाले विशेष कामों की कोई सूची नहीं है. पेरिस समझौता मूलतः सरकारों से स्वैच्छिक रूप से उत्सर्जन घटाने की मात्रा की घोषणा की मांग करने तक सीमित है. किसी जलवायु समझौते में उपभोग और उत्पादन पर निश्चित कार्यवाही का न होना हवाबाज़ी भर है.

दूसरी तरफ, सतत् उपभोग और उत्पादन के फ्रेमवर्क ने बस सतत् स्वरूप प्राप्ति के सूचकांकों से कागज़ काले किये हैं. आसान भाषा में कहा जाए तो देशों ने उत्पादनों के उपभोग और उत्पादन के सतत् होने (या नहीं होने) का पैमाना तक तय नहीं किया है, जबकि वह कार्बन फुटप्रिंट को घटाने की बड़ी बातें कर रहे हैं. आख़िर उत्सर्जन को कम करने की बात यह देश तब तक कैसे कह सकते हैं जब तक कि उन्हें यह ही पता न हो कि उनके द्वारा किये जाने वाले किन कारणों से वातावरण में कितनी कार्बन डाइऑक्साइड घुल रही है. सतत् उपभोग और उत्पादन के फ्रेमवर्क में हुई बहसों से अभी तक सिर्फ़ पर्यावरण-पर्यटन और पर्यावरण अनुकूल भवन निर्माण जैसे नाम-भर के हलके प्रस्ताव बाहर आये हैं.

इससे नज़र आता है कि विकसित देश वातावरण की सुरक्षा के प्रति कितने गंभीर हैं. पर्यावरण का मुद्दा उठाने वालों को तुर्की, ब्राजील और अर्जेंटीना जैसे विकासशील देशों पर मुक़दमा करने के बजाय अपना ध्यान यहां लगाना चाहिए. इन देशों का न सिर्फ़ प्रति व्यक्ति उत्सर्जन कम है बल्कि इन्होंने अपने विकास-चक्र में, किसी भी विकसित देश की तुलना में बहुत पहले पर्यावरण के अनुकूल व्यवहार के सिद्धांत पर सहमति दी है. संयुक्त राष्ट्र की ग्रीनहाउस उत्सर्जन सूची के अनुसार, तुर्की किसी भी विकसित देश की तुलना में ग्रीनहाउस उत्सर्जन में सबसे अधिक कमी लाने वाला देश है.

गंभीर पर्यावरणविदों का ध्यान प्रति व्यक्ति कार्बन फुटप्रिंट पर और सतत् उपभोग और उत्पादन पर होने वाली बहसों से कुछ ठोस परिणाम निकालने पर होना चाहिए. स्वीडन के किसी नागरिक द्वारा जलवायु मुद्दे पर तुर्की, ब्राज़ील और अर्जेंटीना जैसे देश पर मुक़दमा किया जाना इस तथ्य की घोर और अभिमान भरी अवहेलना है कि विकसित देशों द्वारा होने वाली प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन की मात्रा विकासशील देशों से कहीं बहुत अधिक है. संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौता का इस प्रकार एक सुविधा संपन्न जीवन जी रहे स्वीडन के युवा द्वारा दुरुपयोग किया जाना इसे और भी दुखद बनाता है. यह समझौता ग़रीब और कमज़ोर बच्चों को खाने, पहनने और आश्रय में मदद देने के लिए हुआ था. संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौता आर्थिक विकास की “परीकथाओं” से नहीं, बल्कि उन बच्चों की समस्याओं से जूझता है जो युद्ध और अकाल की तबाही झेल रहे हैं, जिन्हें भयानक ग़रीबी के कारण वेश्यावृत्ति या कठोरतम श्रम में धकेल दिया गया हो. मैं पूरी तरह उन युवाओं के साथ हूं जो अमूमन अमीर देशों के किशोरों से अधिक गंभीर व जिम्मेदार नज़र आते हैं. लेकिन बड़े मुद्दे बड़े ध्यान की मांग करते हैं. क्या ग्रेटा थूनबर्ग बड़ों की बातचीत के लिए तैयार हैं?

सुरन्या अय्यर एक वकील हैं.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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