आजकल तो लोग ही आराम से 82-83 साल तक जी लेते हैं, सो, ऐसे में यदि किसी दर्शन से जन्मी राजनैतिक व्यवस्था की उम्र भी लगभग इतनी ही हो, तो अफसोस की बात तो है ही... और सोचने की बात भी... 100 साल पहले 7 नवंबर को लेनिन के नेतृत्व में जो ऐतिहासिक और चामत्कारिक घटना रूस में घटी, उसने पूरी दुनिया को जोश से भर दिया था. लोगों को यकीन नहीं हो रहा था कि एक राजा (ज़ार) की सत्ता को श्रमिकवर्ग यूं हटा सकता है. लोगों ने इसका खुले दिल से, दोनों बांहें फैलाकर जय-जयकार के साथ स्वागत किया था. इसका शताब्दी दिवस जितनी खामोशी और ठंडेपन के साथ बीत गया, उस पर यकीन नहीं होता. आखिर इतनी भी बेरुखी क्यों...?
निःसंदेह कार्ल मार्क्स के सिद्धांत पर बनी इस साम्यवादी राजनैतिक व्यवस्था ने दुनिया को तेजी से पसरते हुए पूंजीवाद का एक विकल्प सुझाकर लोगों को मानवीय गरिमा के प्रति आश्वस्त किया था, लेकिन दुर्भाग्य से अपने जन्म के साथ ही वह इसी गरिमा के विरुद्ध खड़ा हो गया. एक क्रांति ने शीघ्र ही स्वयं को एक प्रतिक्रांति में परिवर्तित कर लिया. इस क्रांति के नेतृत्वकर्ता व्लादिमिर लेनिन ने अपनी पुस्तक 'राज्य और क्रांति' में यह आश्वासन दिया था कि कम्युनिस्टों की सत्ता आने के बाद वह पहले दिन से ही दमन और हिंसा को त्याग देगी. ऐसा इसलिए, क्योंकि इसकी ज़रूरत तो पूंजीवादी व्यवस्था को पड़ती है, साम्यवादी व्यवस्था को नहीं.
लेकिन, हुआ इसके ठीक विपरीत. सत्ता में आते ही लेनिन ने हिंसा, दमन और क्रूरता का सहारा लेना शुरू कर दिया, क्योंकि इसके बिना उसकी पार्टी सत्ता में बनी नहीं रह सकती थी. बाद में यही हिंसा साम्यवादी व्यवस्था के अस्तित्व के आधार के रूप में स्वीकार कर ली गई. प्रशासन के रूप में इसका यह नतीजा सामने आया कि जो लोग सत्ता पर काबिज थे, वही लोग सत्ता में बने रहने लगे. यानी, राजतंत्र में जहां सत्ता हमेशा एक राजा के हाथ में रहती है, वहीं साम्यवाद में वह 'कुछ राजाओं' के हाथ में बंटकर रह गई.
...और ऐसा केवल रूस में नहीं हुआ, बल्कि क्यूबा, पूर्वी यूरोप के पोलैण्ड, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, युगोस्लाविया तथा एशिया के चीन और वियतनाम आदि देशों में भी हुआ. चीन का ताजा उदाहरण हमारे सामने है. यानी साम्यवादी व्यवस्था के नाम पर एक अलग तरह की तानाशाही पनपी, और इस व्यवस्था ने कार्ल मार्क्स के वर्ग चरित्र के सिद्धांत को अपने आचरण के द्वारा सिद्ध करके दिखा दिया कि 'सत्ताधारी वर्ग का अपना एक अलग चरित्र होता है और वह चरित्र है - शोषक का...'
हिंसा और दमन का दामन थामने के अतिरिक्त साम्यवादी व्यवस्था की एक अन्य बड़ी कमज़ोरी यह रही कि उसने मानवीय भावनाओं को बिल्कुल ही दरकिनार कर दिया. यह व्यवस्था उनकी निजी इच्छाओं, नैसर्गिक प्रवृत्तियों तथा भावनात्मक आवश्यकताओं को समझने में असफल रही. बल्कि इसने इन्हें कुचलने की हरसंभव कोशिश की. ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक था कि लोगों को जैसे ही अवसर मिलेगा, उनके अंदर दबा हुआ असंतोष ज्वालामुखी के विस्फोट के रूप में सामने आएगा, और वही हुआ भी. जिसके परिणामस्वरूप सन् 1990 यह एक विशाल तथा अपने समय में सबसे ज़्यादा ताकतवर होने का दावा करने वाला यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक्स (USSR) नाम का यह बड़ा देश 16 अलग-अलग देशों के रूप में बिखर गया, लोगों ने आज़ादी और राहत की सांस ली.
क्या वर्तमान अपने इस अतीत से कोई सीख लेकर भविष्य को बेहतर बनाने का कोई उपक्रम करेगा...?
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Dec 21, 2017
रूस की क्रांति : एक छोटी-सी ज़िन्दगी की लंबी कहानी
Dr Vijay Agrawal
- ब्लॉग,
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Updated:दिसंबर 21, 2017 16:01 pm IST
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Published On दिसंबर 21, 2017 15:42 pm IST
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Last Updated On दिसंबर 21, 2017 16:01 pm IST
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