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This Article is From Sep 03, 2015

सुशील महापात्रा की कलम से : पीएम का वादा और सीएम का दावा, इन मज़दूरों के आगे सब है फेल

Reported by Sushil Kumar Mohapatra, Edited by Swati Arjun
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 03, 2015 21:19 pm IST
    • Published On सितंबर 03, 2015 15:10 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 03, 2015 21:19 pm IST
मैं जानता हूं कि ये तस्वीर देखकर आप के मन में कोई सवाल खड़ा नहीं होगा।  बिना सोचे आपका यही जवाब होगा की यह किसी बाज़ार की तस्वीर है जहाँ लोग खरीददारी करने आए हैं। आपकी  जगह पर मैं होता तो शायद मेरा भी यही जवाब होता क्योंकि मेरा यह लेख पढ़ने वाले पाठक आप और इसे लिखने वाला मैं खुद दोनों ही लोगों की असली समस्या से दूर रहते हैं। चलिए बता देता हूं, यह तस्वीर गुड़गांव के शक्ति पार्क इलाके की है और तस्वीर में दिखाई दे रहे लोग, यह सब मजदूर हैं जो काम खत्म करने के बाद अपने किराए के घरों की तरफ लौट रहे हैं।
 

बुधवार को जब श्रमिकों की स्ट्राइक चल रही थी, तब हमारी प्राइम टाइम की टीम ने सोचा की प्राइम टाइम श्रमिकों की समस्या के ऊपर किया जाये। हमारे साथी रवीश कुमार और मंजुनाथ के साथ हम लोग गुडगांव की तरफ निकल गए।  मन में कई सवाल खड़े हो रहे थे क्या ऐसी कोई जगह हमको मिलेगी जहां हम अपने प्रोग्राम के ज़रिये श्रमिकों की असली समस्या दिखा पाएंगे? यह भी सवाल उठ रहा था कि, क्या सच में श्रमिकों की यह स्ट्राइक जायज़ है या कुछ राजनेता इस आंदोलन का फायदा उठाना चाहते हैं? मन में इन्हीं सवालों के साथ हम गुड़गांव पहुंच गए और हमारे एक साथी ने हमें शक्तिपार्क तक पहुंचा दिया। जिस तरह की जगह को हम ढूंढ रहे थे वैसी जगह हमें मिल गई लेकिन यहां की स्थिती देखते ही मन में यह भी सवाल भी खड़ा हुआ की शूट किया जाये या नहीं? शक्ति पार्क की इस जगह पर 10 हज़ार से ज्यादा श्रमिक रहते है जो बिहार और उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। मीडिया का कैमरा देखते ही लोग जमा हो गए अपनी समस्या को बयां करने के लिए। ऐसा लग रहा था की कई दिनों से यह लोग मीडिया का इंतज़ार कर रहे थे, लेकिन आप भी जानते हैं कि आजकल मीडिया के पास कितना काम है, हम मीडिया वाले भला ऐसी खबरें कब दिखाते हैं।  राजनेताओं की राजनीति, राधे मां का डांस और आसाराम से लेकर इन्द्राणी मुख़र्जी की ख़बर ही हर समय मीडिया में छाई रहती हैं।

अब इस तस्वीर को देखिये यह तस्वीर शक्ति पार्क के एक मकान की है, जहां ये श्रमिक किराये के मकान में रहते हैं। इस मकान को देखते ही आप समझ गए होंगे की जो मकान बाहर से ऐसी दिखाई दे रही है उसकी हालत अंदर से कैसी होगी। इस बिल्डिंग के अंदर कई छोटे-छोटे कमरे बने हुए हैं, एक कमरे में ज्य़ादा से ज्य़ादा तीन मजदूर रह सकते है। तीन से ज्यादा रहेंगे तो अलग से  पैसा देना पड़ेगा।  यहां एक कमरे का किराया 2500 के करीब है और बिजली बिल अलग से देना पड़ता है। इस मकान का मालिक यहां नहीं रहता है। वो सिर्फ किराया लेने के लिए महीने में एक बार यहां आता है। यहां रह रहे लोगों को यह भी पता नहीं की इस मकान का मालिक कहां रहता है और अगर वे अपनी समस्या को लेकर मकान मालिक के पास जाएं तो कहां जाएं?  कुछ मकान मालिकों ने पूरे मकान की ज़िम्मेदारी किसी और आदमी को ठेके में दे दिया है और वह आदमी मकान के नीचे किराने की दुकान खोल कर बैठा हुआ है और उस किराने के दुकानदार को मकान मालिक की तरफ से निर्देश दिया गया है कि जो कोई भी उस मकान में रहेगा उसे उसी दुकान से सामान खरीदना पड़ेगा नहीं तो वो कमरा खाली कर दे। किराने की दुकान चलाने वाले ये दुकानदार या ठेकेदार हर सामान का ज़्यादा पैसा लेते हैं। यहां रह रहे मज़दूरों का कहना है कि उन्हें जो चावल मॉल या किसी अन्य दुकान में 23 रुपये किलो मिलता है वहीं चावल उन्हें इस दुकान 32 रुपये में खरीदना पड़ता है और चावल की क्वलिटी काफी खराब होती है। इससे आप समझ गए होंगे कि यहां रहने वाले मज़दूर अपने पैसे से अपनी पसंद की दुकान से सामान भी नहीं खरीद सकते हैं। 

अब यह तस्वीर देखते ही आप को लगेगा कि ये कोई कूड़ेदान की तस्वीर है जो कूड़ेदान सरकार की तरफ से बनाया गया है, जी नहीं यह तो इस मकान की नीचे की तस्वीर है जो बयां करती है कि स्वच्छ भारत अभियान कितना सफल हुआ है। मजदूर ने बताया है कि यहां पर वह साफ-सफाई के लिए पैसा तो देते है लेकिन कोई साफ़ करने नहीं आता है मकान मालिक पैसा तो लेता है लेकिन मकान के आसपास किसी तरह की सफाई नहीं कराता है, लोग बीमार होते हैं लेकिन आसपास कोई अच्छा अस्पताल नहीं होने की वजह से इलाज भी नहीं हो पाता है। कई बार ठीक होने के लिए लोगअपना काम छोड़ कर दूसरी जगह चले जाते हैं। अब जब हम नीचे उतर रहे थे तभी बिहार के मधुबनी ज़िले के रहने वाले मोहम्मद मंज़ूर से बात हुई,  'मंज़ूर साहब इस जगह पर 10 साल से रह रहे हैं, वे जब मधुबनी से गुडगांव की तरह निकले थे तब एक सपना था की एक अच्छी जगह काम करेंगे और अच्छा वेतन पाएंगे। फिर पूरे परिवार को लेकर गुडगांव आ जायेंगे और अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाएंगे, लेकिन मोहम्मद मंजूर जी का यह सपना अभी तक पूरा नहीं  हो पाया है। मोहम्मद मंजूर ने बताया की यहां पर २९० रु रोज़ के हिसाब से पगार मिलता है, इतनी कमाई में जब वह अपना गुज़ारा नहीं कर सकते तो बच्चों को यहां कैसे लाएंगे। कई बार कंपनी से वेतन बढ़ाने के लिए कहा है लेकिन उनपर कोई असर नहीं पड़ा।  यहां यह कहानी सिर्फ एक श्रमिक की नहीं है, 'हर श्रमिक की ऐसी ही कहानी है। लोग अपने सपने लेकर मेट्रो शहरों में रहने आते हैं लेकिन उनका सपना कभी पूरा नहीं होता, न ही उनकी बात कोई सुनता है। नीतीश कुमार जब भी प्रेस कॉफ्रेंस करते हैं तो बिहार के विकास की बात करते हैं और  प्रधानमंत्री भी बिहार को लेकर काफी चिंतित नज़र आते है, लेकिन असलियत क्या है वह आपके सामने है। अगर बिहार में ऐसा विकास हुआ होता तो शायद यह लोग बिहार छोड़ कर एनसीआर की तरफ नहीं भागते। 

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