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This Article is From Feb 20, 2016

'आरक्षण', कहीं वायरल न हो जाए ये ‘अपंगता’...

Anita Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 21, 2016 10:38 am IST
    • Published On फ़रवरी 20, 2016 15:34 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 21, 2016 10:38 am IST
जानते हैं जब भी किसी को बताती हूं कि मैं हरियाणा से हूं, तो लोग बिना मेरी अनुमति के ही समझ लेते हैं कि मैं जाट हूं... हालांकि मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता फिर भी लोगों को टोक देती हूं ‘मैं जाट नहीं हूं’... एक बार किसी ने मुझे कहा था, ‘’अच्छा मैंने तो बस वहां के जाटों के बारे में सुना है...’’ 

अब जरा सोचिए जो समुदाय किसी राज्य  की पहचान बन गया हो, वो आरक्षण की मांग करे, तो कैसा लगेगा... 

आरक्षण- बिना व्याकरण लगाए अगर अक्षरश: संधि-विच्छेद करूं तो इसका मतलब लगता है ‘आ मेरा रक्षण कर...’ मतलब मैं कमजोर हूं, निर्बल, अपना रक्षण करने में अक्षम, तू ही कुछ कर और मेरा रक्षण कर। लेकिन इस शब्द् का अक्षरश: अर्थ निकालना निरर्थक सा है... 

जाट आरक्षण आंदोलन, एक लम्बें समय से चल रही कवायद है, जिसमें लाखों की संख्या में लोग हिस्सा ले रहे हैं, बूढ़े से बूढ़ा काका और बच्चे से लेकर जवान भी... समझ नहीं आता, जिस बूढ़े काका को रिटायर हुए सालों हो गए और जिस बच्चे ने अभी आठवीं के पेपर दिए हैं उन्हें आरक्षण से क्या लेना-देना। क्या काका को फिर से नौकरी पाने की उम्मीद है, पर उस नाबालिग का क्या... क्या उसने अभी से ये मान लिया है कि 'सामन्य कोटे' में खुद को साबित करने की उसमें न तो ताकत है और न ही वो इतनी मेहनत कर सकता है, क्यों न कुछ दिन स्कूल के आरामदायक काम को छोड़ कर आंदोलन में खूब पसीना बहाया जाए, जी-तोड़ मेहनत की जाए और भविष्य संवार लिया जाए। ताकि आने वाली पीढ़ी को वह सीना ठोक कर बता सके कि कितनी मेहनत से उसने यह मुकाम पाया है... 

गांधी के इस देश ने स्‍वराज के लिए महीनों शांतिपूर्वक भूख हड़ताल की... लेकिन आज वही देश आरक्षण के लिए अपने जवान बच्‍चों को हिंसक होने का सबक सिखा रहा है। सरकारी समान को नुकसान पहुंचाकर क्‍या वह उस राज्‍य का ही नुकसान नहीं कर रहा है, जिसने उसे शिक्षा दी, जीवन दिया और एक पहचान दी... आखिर कैसे कोई इतना स्‍वार्थी हो सकता है भला... इस आंदोलन में न जाने किसने क्‍या खोया होगा, जिसकी भरपाई शायद आरक्षण के लिए अड़ी ये भीड़ न कर पाए... 

मैंने देखा 'मेरे देस' का जवान खून भी स्कूल और पढ़ाई छोड़ कर आरक्षण का स्वाद लेने में ही जुटा है। आखिर क्यों हमारे देश के मां-बाप अपने बच्चों को आरक्षण का मोहताज बनाना चाहते हैं? क्या हम अपनी परवरिश, अपने संस्कारों और हर हालात में हिम्मत से लड़ने और जीतने की परम्पराओं और संस्कारों से ऊब चुके हैं? हम आने वाली पीढ़ी को क्या देना चाहते हैं... आरक्षण के नाम पर भेदभाव की एक और नई नीति या राह... 

समझ नहीं आ रहा, हम क्या सिखा रहे हैं अपने होनहारों को... आखिर क्यों ‘मेरा देस’ जवान और हष्ट-पुष्ट बच्चों को ‘अपाहिज’ बनाने पर तुला है... एक सवाल मैं उस हर काका से, चाचा से और ताऊ से पूछना चाहती हूं कि आखिर क्यों न उन्हें मेहनत करने दें, लड़ने दें जीवन की जटिलताओं से... 

क्‍या ये ठीक ऐसा नहीं है कि सामाजिक तौर पर न सही, लेकिन अंदरूनी तौर पर की गई आत्‍महत्‍या... आत्‍म-हत्‍या यानी आत्‍मा की हत्‍या और जिजीविषा की हत्‍या... क्‍या इसे स्‍वीकार्यता मिलनी चाहिए? ये एक बड़ा सवाल है।
                
शुक्र  मनाइए कि जनरल कैटगरी किसी एक वर्ग की नहीं होती, इसमें बहुत से वर्ग शामिल हैं। वर्ना वो दिन भी देखने मिल जाता, जब जनरल कैटगरी भी अपने लिए आरक्षण मांग बैठती। क्योंकि शायद मेरे मेहनतकश देश से अब मेहनत नहीं होती... वह सहारा बनना नहीं, सहारा पाना चाहता है...

इस लेख में मैंने 'लोगों' शब्‍द की जगह 'हम' का इस्‍तेमाल किया है। इस‍की वजह बस यही है कि मैं खुद को उस भीड़ का हिस्‍सा मानती हूं, जो इस समय आंदोलन कर रही है। क्‍योंकि वह भीड़ जाट, ब्राम्‍हण या कुछ और होने से पहले हिंदुस्‍तानी है। ठीक वैसे ही जैसे आप, मैं और 'हम'...

अनिता शर्मा एनडीटीवी में चीफ सब एडिटर हैं। 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।
 

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