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This Article is From Dec 02, 2016

भोपाल गैस त्रासदी : हज़ारों कत्‍ल, कोई गुनहगार नहीं, आरोपी वही, जो ज़िंदा रहे...

Sachin Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 02, 2016 16:00 pm IST
    • Published On दिसंबर 02, 2016 14:03 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 02, 2016 16:00 pm IST
शायद आपने सुना होगा कि 20 नवंबर, 2016 को भोपाल की अदालत ने मध्य प्रदेश सरकार के दो पूर्व अधिकारियों – स्वराज पुरी और मोती सिंह - पर मामला दर्ज करने का आदेश दिया है. बात यह है कि इन दोनों अधिकारियों (तत्कालीन भोपाल पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी और भोपाल कलेक्टर मोती सिंह) ने यूनियन कार्बाइड के अध्यक्ष वॉरेन एंडरसन को भोपाल से भाग निकलने देने में मदद की. यह 32 साल बाद पता चला.
 

शायद आपको याद होगा कि अब से 32 साल पहले भोपाल में एक विशाल रासायनिक कारखाने यूनियन कार्बाइड से ज़हरीली गैस रिसी थी, जिसने तब हज़ारों लोगों की जान ली थी और आज भी ले रही है.
 

मेरे लिए निजी तौर पर वह त्रासदी पेशेवर महत्व का विषय नहीं है. वह मेरे निजी जीवन में घटी हुई घटना है. एक ऐसी घटना, जब वह घटी, तो घर से भागते समय किसी ने नहीं देखा कि उसे घर के सामान का क्या होगा, घर का दरवाज़ा बंद भी है या नहीं...? लोग बच्चों को उठा-उठाकर भाग रहे थे. जितना भाग रहे थे, उतना मर रहे थे, क्योंकि भागने से सांस फूल रही थी और ज़्यादा गैस फेफड़ों में जा रही थी. हज़ारों लोग अगले दिन बस एक संख्या बनकर रह गए.
 

32 साल बाद भी हमारी अदालत में इस घटना का केस चल रहा है. 30,000 लोग मर चुके हैं, पर आज तक किसी की जिम्मेदारी तय नहीं हो पाई है. हमारी अपनी सरकार भोपाल के लोगों से आरोपी सरीखा व्यवहार करती है. सभ्य समाज की सरकार होती तो शायद घाव पर मरहम लगाने का काम करती. नेता केवल मैयत में जाकर अपने काम को पूरा हुआ नहीं मान लेते.

...और तो और, यूनियन कार्बाइड में भरा हुआ कचरा रिस-रिसकर भूजल में समाहित हो गया और 240 फुट गहराई तक के पानी की हर बूंद को ज़हरीला बना दिया. फिर भी ज़हरीला कचरा वहीं का वहीं है. इस त्रासदी से पीड़ित लोगों के लिए अस्पताल बना, लेकिन उसे बंद किए जाने का षड्यंत्र जारी है. अब सरकार इस त्रासदी का स्मारक बनाने की तैयारी में है. मेरा मध्य प्रदेश सरकार और भारत की सरकार से आग्रह है कि वह भारत की आर्थिक विकास दर में त्रासदियों के योगदान को ज़रूर जोड़ें. शायद तभी आपको पता चलेगा कि हम आगे गए या पीछे...!
 

यूनियन कार्बाइड को डाऊ कैमिकल्स नामक बड़ी कंपनी ने खरीद लिया. तब सवाल यह था कि क्या भोपाल गैस त्रासदी में डाऊ की जवाबदेही बनती है. वर्ष 2006 में जाने-माने वकील और वर्तमान वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कंपनी को सलाह दी कि भोपाल गैस त्रासदी के लिए उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है. इसके बाद दूसरे बड़े वकील और कांग्रेस के बड़े नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने भी डाऊ को यही सलाह दी. आखिर किस पर विश्वास किया जाए...?

मुझे आज भी वह अंधेरी सुबह याद आ गई. 2 और 3 दिसंबर, 1984 की दरम्यानी रात, भोपाल के घोड़ा नक्कास में निवास करते हुए जब हमने भी ज़हर-भरी हवा को लीला था. उस वक्त मैं 11 साल का था. जिस कुम्हार गली में हम रहते थे, उसमे रोने-चीखने की आवाज़ें आ रही थीं और तभी किसी ने घर का मुख्य दरवाज़ा खोल दिया. ऐसा लगा, किसी ने मिर्ची का पाउडर आंखों में भर दिया हो. रात 1 बजे जब हम एक दोपहिया वाहन पर चार-चार लोग अपने घरों से निकले, तब हमने छोटे तालाब में लोगों को गैस की जलन से बचने के लिए कूदते देखा.
 

मंडीदीप तक पहुंचते-पहुंचते हमने सड़क पर लोगों को कटे पेड़ों की तरह गिरते और दम तोड़ते देखा. लोग अपने सिरों पर सामान रखकर भाग रहे थे, वज़न लेकर चलने के कारण उनकी सांस और तेज़ चल रही थी; यानी वे और ज़्यादा ज़हर अपने फेफड़ों में भर रहे थे. लोगों को सामान लेकर इसलिए भागना पड़ा, क्योंकि यह अफवाह भी उड़ा दी गई थी कि भोपाल के किसी कारखाने में आग लग गई है और अब पूरा शहर जल जाएगा. वे अपना थोड़ा-बहुत सामान बचाना चाहते थे. ज़िन्दगी का मोल मौत को सामने देखकर पता चलता है.

हम रात को ढाई बजे मंडीदीप पहुंचे और सुबह 6 बजे वापस आए. जब हम मंडीदीप पहुंच रहे थे, हमने देखा कि लोग वहां तक पैदल पहुंच रहे हैं. वापस आने पर अपने मोहल्ले में हमने उस सुबह नौ लाशें देखीं. उनमें से तीन बच्चे थे. इसके बाद अपने पिता के साथ मैं हमीदिया अस्पताल गया. हम यह जानना चाहते थे कि आखिर हुआ क्या था...? भोपाल का सबसे बड़ा अस्पताल तब तक लाशों से पट चुका था. लाशों के अंतिम संस्कार के लिए ट्रक लग चुके थे. आनन-फानन पोस्टमार्टम हो रहे थे.
 

उस वक्त एक ईमानदार फॉरेंसिक विशेषज्ञ थे - डाक्टर हीरेश चंद्र. उन्होंने इतने पोस्टमार्टम किए कि लोगों के शरीर से निकालने वाली गैस ने उन्हें बहुत ज़्यादा पीड़ित बना दिया. कहते हैं, यदि लोगों को पता होता कि कपड़ा गीला करके मुंह ढंके रहने से इस गैस का प्रभाव बहुत कम हो जाता है, तो इस तकनीक से कई लोगों की जान बच सकती थी; लेकिन यह बताया ही नहीं गया था कि इस कारखाने में कौन-सी ज़हरीली गैस का उपयोग होता है और इसका रिसाव होने पर बचाव के लिए कौन से कदम उठाने चाहिए...!

अगले दिन सुबह भोपाल शहर का एक समूह गुस्से में यूनियन कार्बाइड की तरफ बढ़ा. वह उसमें आग लगाना चाहता था. तभी एहतियात के तौर पर यह अफवाह उड़ा दी गई कि गैस फिर रिस गई है, और लोग उल्टे पांव वापस भागे. और इसके बाद शुरू हुई ऐसी प्रक्रिया, जिसमें हमें अपनी व्यवस्था ने सबसे ज़्यादा नाउम्मीद किया. लोगों को उस दिन भी न तो इलाज़ मिला था, न आज मिल पा रहा है. मुआवज़ा देने की प्रक्रिया भी शुरू हुई; वह अपने आप में इतनी भ्रष्ट और अपमानजनक थी, मानो माना जा रहा हो कि लोग मुआवज़ा लेकर मुफ्त की लूट कर रहे हों.
 

सरकार यह मानने को तैयार नहीं थी कि कारखाने और सरकार के इस गठजोड़ ने लोगों को ज़िन्दगी भर के लिए बीमार बना दिया है. लोग साधारण बीमारी का ही इलाज़ नहीं करवा पाते हैं, इन नई बीमारियों का इलाज़ कैसे करवाएंगे...? इनका खर्च कितना होगा...? एक तरह से यह मान लिया गया था लोग तो मरते ही रहते हैं; इसमें नया क्या है, और यदि मरने वाले गरीब और झुग्गी वाले हैं, तो चिंता की कोई बात ही नहीं है. यह त्रासदी भोपाल की राजनीति की नई बिसात बिछा गई. भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस, दोनों ने इस त्रासदी से फायदे का खेल खेला है. यह एक बहुत सटीक उदाहरण है त्रासदी से पैदा हुई लाशों की राजनीति का; 32 साल में न लोगों को इलाज़ मिल पाया, न सही मुआवज़ा, न इस ज़हर से मुक्त पीने का पानी, और तो और, यूनियन कार्बाइड का ज़हर-भरा 1,000 टन कचरा आज भी वहीं भरा हुआ है, और आज भी लोगों को मारने का काम कर रहा है. यह ज़हर हवा में मिल रहा है और रिस-रिसकर ज़मीन के भीतर पानी में जा रहा है.
 

आज भी स्थिति नहीं बदली है. जरा ध्यान से देखिए कि औद्योगिकीकरण और विकास परियोजनाओं की स्थापना से पहले तय मानदंडों के मुताबिक़ पर्यावरण, सामाजिक और स्वास्थ्य प्रभावों का गहन अध्ययन किया जाना अनिवार्य होता है; लेकिन सरकारें और निजी क्षेत्र ये अध्ययन नहीं करते. उन्हें पता है कि इन अध्ययनों के बाद ऐसी परियोजनाएं लग ही नहीं पाएंगी. आज भी बांधों से लेकर जेनेटिकली संशोधित बीजों को प्रोत्साहित किया जा रहा है, लेकिन अध्ययन नहीं होते या निष्कर्ष गोपनीय रखे जाते हैं. मैंने भोपाल गैस त्रासदी देखी और भोगी है; इसीलिए मैं आर्थिक विकास दर की सच्चाई जानता हूं.

मुआवज़े की बेहद अपमानजनक व्यवस्थाएं बनाई गईं. गैस प्रभावितों को तीन साल तक हर माह 200 रुपये मुआवज़े के रूप में दिए जाने की प्रक्रिया तय की गई. हम हर माह एक तय तारीख को मुआवज़ा केन्द्रों पर लाइन बनाकर खडे होते. 200 रुपये लेने के लिए बच्चे, बुज़ुर्ग, काम वाले और बिना काम वाले पूरा दिन अपनी बारी आने का इंतज़ार करते. 7,200 रुपये के लिए हमें 36 दिन लाइन में खड़े रहने का दंड दिया गया... दंड उस अपराध के लिए, जो हमने नहीं किया था. दुनिया में ऐसी कोई दूसरी मिसाल बताइए, जहां आठ लाख लोग 32 साल से अपने गैस पीड़ित होने के दस्तावेज़ संभालकर रखे हुए हैं; क्योंकि अभी तक उन्हें अंतिम मुआवज़ा नहीं मिला है. हमारे लिए एक अस्पताल बना था. उम्मीद थी की वहां से कम से कम इलाज़ तो मिलेगा ही; उस अस्पताल को भी सरकार बंद करने पर आमादा है. उसका निजीकरण किया जाना है, ताकि कोई निजी कंपनी धंधा कर सके.
 

मैं आज तक यह समझ नहीं पाया हूं कि दुनिया में जब इस तरह की घटनाएं होती हैं, तो उन पर खूब शोध होता है और बचाव के रास्ते खोजे जाते हैं. भारत की सरकारें और वैज्ञानिक निष्पक्ष और ईमानदार शोध से क्यों बचती रहे...? क्यों अब तक नहीं बताया गया कि इस दुर्घटना का वास्तव में मतलब क्या था...? हमारी राजनीति भी इस षड्यंत्र का हिस्सा बन गई और राजनीतिक दलों ने भी मांग नहीं की कि दुर्घटना के घावों को मिटाने के ईमानदार सामाजिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक प्रयास किये जाएं. इसके ठीक विपरीत उसने डाऊ कैमिकल्स द्वारा प्रायोजित ओलिम्पिक खेलों में भाग लेना स्वीकार किया. इसका मतलब है कि उसके लिए लोगों के जीवन से ज़्यादा कूटनीति और पूंजीवादी विकास दर महत्वपूर्ण है. उसने बार-बार सिद्ध किया है कि वह भोपाल के लोगों के बजाय वॉरेन एंडरसन की ज़्यादा बड़ी हितैषी है.

यह एक बड़ा कारण है कि मैं आज सरकारों द्वारा विकास के नाम पर किए जाने वाले निवेश को शंका की दृष्टि से देखता हूं. मुझे लगता है कि हमारी सरकार ज़हर का एक और नया कारखाना लगा रही है. वह कारखाना न केवल ज़मीन, पानी और जंगल जैसे संसाधन लूटेगा; बल्कि हवा के झोंके में मिलकर लाशों के ढेर लगा देगा. इसीलिए मुझे लगता है कि योजना आयोग की वृद्धि दर गरीबों से बलिदान मांगती है. यह वृद्धि दर जितनी बढ़ेगी, उतनी ज़्यादा लाशें बिछेंगी. मेरे लिए अपना अनुभव ही मापदंड है यह तय करने का कि निजी क्षेत्र संवैधानिक रूप से जवाबदेह नहीं होता है. वह अपराध करता है, लोगों के हक़ छीनता है, संसाधनों पर कब्ज़ा करता है, लाशें भी बिछा देता है, लेकिन फिर भी उसकी कोई जवाबदेही तय नहीं होती. यह जानते हुए कि कोई इसे अवमानना मान लेगा; मैं कहना चाहता हूं कि हमारी न्यायपालिका ने भी हमें निराश किया है. न तो उसने सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित की, न दोषी कंपनी की. न्यायपालिका भोपाल के खिलाफ ही खड़ी हुई. यह जवाब कौन देगा कि भोपाल में बिछ चुकी 30,000 लाशों का जिम्मेदार कौन है...? किस पर हत्या का मुकदमा चलना चाहिए; यह अब तक तय नहीं है.
 
यह घटना स्मृतिपटल से तभी मिट सकती है, जब इससे सबक लेकर हम यह तय कर लेंगे कि इस तरह के औद्योगिकीकरण की नीति को खत्म किया जाना चाहिए. हम ऐसे कोई विकास ढांचे खड़े नहीं करेंगे, जो मानव सभ्यता और पर्यावरण के अस्तित्व को दांव पर लगाते हों. क्या हम ऐसा कर पाएंगे...?

हमारा संविधान कहता है कि हर व्यक्ति को शोषण से मुक्त होने का मौलिक अधिकार है. हर व्यक्ति को न्याय पाने का भी मौलिक अधिकार है; लेकिन यह संभव कैसे होगा...? स्वतंत्र भारत का तंत्र तीन स्तंभों पर खड़ा होता है – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका; भोपाल गैस त्रासदी इन तीनों स्तंभों के कमज़ोर होने का साक्षात प्रमाण है.

सचिन जैन शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं...

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