यह 18 फरवरी 2015 की बात है। जम्मू-कश्मीर में तब तक मुख्यमंत्री या नई सरकार का गठन नहीं हुआ था। हालांकि राज्य में दिसंबर के तीसरे सप्ताह में चुनाव खत्म हो गए थे, लेकिन बीजेपी और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी ) के बीच वैचारिक अंतर कम करने के मसले पर बातचीत का दौर करीब दो माह से जारी था। लेकिन देश के सबसे अधिक मुश्किल भरे और संवेदनशील राज्य में सरकार गठन पर चल रही अटकलों के बावजूद एक शख्स पूरी तरह बेफिक्र था।
मैं उस सुबह मुफ्ती मोहम्मद सईद से मुंबई के एक गेस्ट हाउस में मिली थी। वे नीले रंग के चेक वाले पायजामे और सफेद पट्टेदार टी-शर्ट में सुकून से बैठे थे। ऐसे समय जब सियासी गतिविधियां चरम पर हैं, तब इस शहर की यात्रा का उद्देश्य पूछने पर वे मुस्कुरा दिए। उन्होंने मुझे बताया कि अपने पुराने साथियों के साथ ब्रिज की कुछ बाजी में हाथ आजमाने आए हैं। महबूबा मुफ्ती से पहले देश की खबरों की सुर्खियों में आई बेटी रुबैया उनके साथ थीं।
वर्ष 1989 में जब मुफ्ती साहब केंद्रीय गृह मंत्री थे, वे यह पद संभालने वाले पहले मुस्लिम थे, रुबैया का जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के आतंकियों ने अपहरण कर लिया था। रुबैया उस समय केवल 23 साल की थीं। उसकी रिहाई के बदले पांच आतंकवादियों को रिहा करने का फैसला निश्चित रूप से उनकी राजनीतिक विरासत के सबसे मुश्किल क्षणों में रहा होगा। हालांकि इस अपहरण के बाद भी उन्होंने अपने राजनीतिक रुख को नरम ही बनाए रखा। मुफ्ती को उनके दक्षिणपंथी आलोचक उनकी पार्टी के 'स्वशासन' के नारे के कारण सीमा के अंदर के अलगावादी (बार्डरलाइन सेपरेटिस्ट) के तौर पर देख रहे थे। ये आलोचक इस बात को नहीं समझते थे कि उनका जीवन कश्मीर घाटी में शांति की खोज को समर्पित था। मुख्यमंत्री के तौर पर पहले कार्यकाल के दौरान 'हीलिंग टच' का उनका वादा इस विश्वास पर आधारित था कि उग्रवाद और अलगाव की भावना का सैन्य समाधान नहीं हो सकता। वे मेल-मिलाप कराने वाले और सहमति बनाने वाले ऐसे व्यक्ति थे जिसने राज्य की तकदीर बदलने का सपना देखा था।
उस दिन, रुबैया कुछ हद तक किसी की न सुनने के मूड में थीं। यहां तक कि उसने बहुत अधिक बोलने पर और किसी और को इसका मौका नहीं देने पर अपने पिता को टोक दिया। मुफ्ती इसे उम्मीद का क्षण मानते हुए उतावले थे। उन्होंने अपनी सीट पर लगभग पालथी मारते हुए मुझसे कहा, 'मुझे उम्मीद है कि प्रधानमंत्री समझ गए हैं कि यह एक ऐतिहासिक अवसर है और फिर नहीं आएगा।' वे बोले जा रहे थे, एकाएक वे रुके और बोले, 'मेरी बेटियां कहती हैं मुझे किसी समय चुप भी रहना चाहिए। मैं बड़बड़ा रहा हूं। क्या मैं आपको बोर कर रहा हूं?' पुरानी शैली के राजनेता मुफ्ती टीवी के शोर, कैमरे की घुसपैठ और सोशल मीडिया के 'अपरिपक्व' निर्णयों से भी खुद को असहज महसूस करने लगते थे। इस बातचीत की तरह ही हमारी ज्यादातर बातचीत आमने-सामने और अनौपचारिक रहीं।
मुंबई में उस दिन वे मुझसे राज्य में 'नार्थ और साउथ पोल को एक साथ' आते हुए देखने के बारे में जानना चाहते थे। उनका आशय स्पष्ट था। निश्चित रूप से। उनकी पार्टी और बीजेपी, करीब दो दशक तक एक-दूसरे के विरोधी खेमे में रहीं। एक तरह से वे बीजेपी से हाथ मिलकार अपने सियासी करियर के लिहाज से भी जोखिम मोल ले रहे थे। लेकिन मुफ्ती यह बात समझते थे कि यदि ऐसा नहीं किया और ऐसी लगभग असंभव सी साझेदारी नहीं की गई तो राज्य का जम्मू बनाम कश्मीर में ध्रुवीकरण हो जाएगा। पीडीपी ने कश्मीर घाटी में वर्चस्व स्थापित किया था। कोई भी ऐसा गठबंधन, जिसमें बीजेपी को सरकार से बाहर रखा जाता, जम्मू के लोगों के घाव भरने के बजाय उनमें पूरी तरह से 'अलगाव' की भावना पैदा करने का जोखिम साबित होता। राज्य के हित को प्राथमिकता देते हुए और ऐसा कदम उठाते हुए, जो चुनावी लिहाज से उनके लिए उलटा भी पड़ सकता था, उन्होंने अच्छे शासक होने का कौशल दिखाया।
उन्होंने इस बात को साफ किया कि एक गर्व भरे कश्मीरी और भारतीय होने के बीच कोई विरोधाभास नहीं है और अनुच्छेद 370 को लेकर कोई समझौता नहीं हो सकता जो भारत संघ में राज्य को विशेष दर्जा प्रदान करता है। मैंने सवाल किया, यदि बीजेपी सहमत नहीं हुई तो ? 'तब वे किसी और के साथ मिलकर सरकार बना सकते हैं। मैं मुख्यमंत्री बनने के लिए उतावला नहीं हूं। ऐसा व्यक्ति जो पूर्व गृह मंत्री रह चुका है, हर कोई जानता है कि मैं विशुद्ध रूप से भारतीय हूं।' अनुच्छेद 370 को लेकर उनकी अपनी राय थी। अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में दोनों पार्टियां इस बात पर सहमत हुईं कि राज्य के विशेष दर्जे को लेकर यथास्थिति बरकरार रखी जाएगी।
मुंबई की मुलाकात के दो सप्ताह बाद, मार्च के पहले सप्ताह तक, वे दूसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बन गए। यह उम्मीद की तलाश में किसी कश्मीरी नेता की ओर से खेला गया सबसे बड़ा राजनीतिक जुआ था। इलाज के लिए दिल्ली ले जाए जाने से कुछ दिन पहले मुझे उनका एक फोन कॉल आया। वे चाहते थे कि मैं उनकी ओर से आयोजित किए जा रहे 'क्रिसमस वीक' के लिए गुलमर्ग आऊं। कश्मीर में पर्यटकों को वापस लाने और इसे अंतरराष्ट्रीय नक्शे में लाने का यह मुफ्ती का सपना था। उन्होंने इस उम्मीद के साथ 'बॉलीवुड' की यात्रा भी की थी। इससे पहले कि वे क्रिसमस वीक की मेजबानी कर पाते, वे काफी बीमार हो गए। उनके सहयोगियों ने मुझे बताया कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सुधार की जमीनी हकीकत का पता लगाने के लिए उन्होंने शून्य डिग्री से नीचे के तापमान में मंदिरों और दरगाहों की यात्रा कर पूरा दिन बिताया। 79 साल की उम्र में भी उनका जज्बा बच्चों की तरह का ही था।
मुफ्ती ने अपना सियासी करियर कांग्रेसी के तौर पर शुरू किया। वे राजीव गांधी की सरकार में कैबिनेट मंत्री और वीपी सिंह की सरकार में गृह मंत्री रहे। बाद में उन्होंने 1999 में अपनी पार्टी पीडीपी का गठन किया। राजनीति में उनके चार बच्चों में से केवल बेटी महबूबा मुफ्ती है, जिनका जम्मू-कश्मीर का पहला महिला मुख्यमंत्री बनना लगभग तय है। कई लिहाज से, महबूबा ने ही पीडीपी को जमीनी स्तर पर तैयार किया है। मैं कई यात्राओं पर उनके साथ रही हूं। पूरी तरह बेखौफ, महबूबा कश्मीर घाटी के सुदूर और खतरनाक हिस्सों में दरवाजे-दरवाजे और गांव-गांव घूमी हैं। आतंकियों की धमकियों का सामना करते हुए उन्होंने आम लोगों खासकर महिलाओं से सीधा संपर्क स्थापित किया है। पूर्व में की गई उनकी यात्रा उन आतंकियों के परिवारों तक जाकर भी रुक जाती थीं, जो मारे जा चुके हैं। वे मुझसे कहती थीं ' वे अब मारे जा चुके हैं तो उनके परिवार इसकी सजा क्यों भुगतें?' ऐसे संकुचित समाज में यह तलाकशुदा, दो बेटियों की अकेली मां, ऐसी पहली महिला है जो एक राजनीतिक पार्टी की प्रमुख है। पूरी ऊर्जा के साथ वह अपनी पार्टी का आधार बढ़ाने में जुटी हुई हैं। अब वे राज्य में फिर इतिहास बनाने के लिए तैयार हैं। लेकिन उन्हें अपने निजी त्रासदी को दरकिनार करते हुए अपने पिता की ओर से छोड़ी गई राजनीतिक विरासत को नए सिरे से संवारना है।
महबूबा बहुत नाजुक समय में राज्य के मुख्यमंत्री का कार्यभार संभालेंगी। कश्मीर घाटी में आतंकवाद फिर जोर पकड़ रहा है। युवा और शिक्षित लोग अब बंदूक उठा रहे हैं। कट्टरवाद वास्तविक चुनौती है। बीफ को लेकर गैरजरूरी विवाद, जिसमें घाटी के एक ट्रक ड्राइवर को अफवाहों के बाद मौत के घाट उतार दिया गया, और राज्य के अपने और राष्ट्रीय ध्वज को लेकर विवाद उनके साथ-साथ चलेंगे। इससे सियासी वातावरण का दोबारा ध्रुवीकरण होने का खतरा पैदा हो गया है।
मार्च में जब मुफ्ती साहब ने जम्मू में मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली थी और प्रधानमंत्री मोदी उनके बगल में बैठे थे। उस समय दोनों के बीच की छोटी टेबल पर जम्मू-कश्मीर और राष्ट्रीय ध्वज लगे हुए थे। मेरे विचार से यह क्षण उम्मीद की बड़ी किरण है। भविष्य के लिहाज से बड़ी संभावना। कश्मीर घाटी के लिए हिंसा और परेशानी से भरे अतीत से उबरने की बड़ी उम्मीद।
मुफ्ती मोहम्मद सईद इस बात पर यकीन करते थे कि राजनीति संभावनाओं का खेल है। जुबानी जुमले, माल्यार्पण और निरर्थक बातों से परे उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि राज्य में शांति प्रक्रिया के लिए माहौल बनाया जाए। पाकिस्तान और नवाज शरीफ के साथ 'पहुंच' बढ़ाने से कहीं पहले, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यदि देश में कहीं संवेदनशीलता से ध्यान देने की जरूरत है तो वह यहां, कश्मीर में है।
(बरखा दत्त अवार्ड विनिंग जर्नलिस्ट और NDTV की कंसल्टिंग एडीटर हैं। उन्होंने हाल ही में अपनी मल्टीमीडिया कंटेंट कंपनी 'बरखा दत्त लाइव मीडिया' शुरू की है।)
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This Article is From Jan 07, 2016
कश्मीर में शांति की 'तलाश' के लिए समर्पित रहे मुफ्ती मोहम्मद सईद
Barkha Dutt
- ब्लॉग,
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Updated:जनवरी 07, 2016 17:08 pm IST
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Published On जनवरी 07, 2016 16:50 pm IST
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Last Updated On जनवरी 07, 2016 17:08 pm IST
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