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This Article is From Jul 08, 2014

प्रियदर्शन की बात पते की : विकास की मंज़िल और ट्रेन का सफ़र

Priyadarshan
  • Blogs,
  • Updated:
    नवंबर 19, 2014 15:46 pm IST
    • Published On जुलाई 08, 2014 23:05 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 19, 2014 15:46 pm IST

1853 में चली पहली ट्रेन से लेकर 2014 तक न चल सकी बुलेट ट्रेन का इतिहास क्या भारत के विकास के अधूरेपन का भी इतिहास है? तीसरे दर्जे से पूरे भारत को देखने वाले गांधीजी ने अपनी किताब हिंद स्वराज में लिखा था कि भारत में अगर ट्रेनों की जगह नहरों का जाल बिछाया गया होता, तो शायद यह देश ज्यादा तरक्की करता। लेकिन दरअसल हम विकास के जाल में फंसे रहे और मानते रहे कि ट्रेनें चलेंगी तो उद्योग खुलेंगे, रोजगार आएगा और देश नए दौर में जाएगा।

इस बार का बजट भी याद दिलाता है कि हमारे यहां रेलों की रफ़्तार जितनी सुस्त है, उससे कहीं सुस्त योजनाओं की रफ़्तार है। हम एक तरफ बुलेट ट्रेन चलाने की बात करते हैं और दूसरी तरफ स्टेशन और डब्बे भी साफ−सुथरे नहीं रख पाते। एक तरफ सुपर राजधानी जैसी प्रीमियम ट्रेनें चलाने और तमाम राजधानियों−शताब्दियों में वाईफाई लगाने का वादा करते हैं और दूसरी तरफ सुरक्षा के साथ मनचाहे खिलवाड़ों की गुंजाइश बनाए रखते हैं।

दरअसल रेलें हमारे यहां विकास का नहीं, विषमता का आईना हो गई हैं− एक ही ट्रेन में जनरल बोगी से लेकर एसी फर्स्ट क्लास तक की बंटी हुई। हक़ीक़त याद दिलाती है कि हम भी बहुत बंटे हुए हैं। कुछ के लिए विकास की ट्रेन बीसवीं सदी के शुरुआती हिस्से के किसी स्टेशन पर ठहरी हुई है, तो कुछ के लिए 22वीं सदी की चमचमाती सुरंग में भागने को बेताब है।

ऐसे बंटे हुए देश में रेलें अर्थनीति के हिसाब से नहीं राजनीति के दबाव में चलती हैं। वे राष्ट्रीय गौरव की पटरी पर दौड़ाई जाती हैं− जाहिर है न ये पटरी बिछ पाती है, न ट्रेनें चल पाती हैं। हमारे देश में रेल बजट का इतिहास अधूरे छूटे वादों और इरादों का भी इतिहास है− इस बार का रेल बजट भी क्या यही याद नहीं दिला रहा कि हमारी सामूहिकता की ट्रेनें असली विकास की मंज़िल से काफी दूर हैं।

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