दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर में घूमते हैरान−परेशान ये बच्चे समझ नहीं पा रहे कि उनकी होने वाली यूनिवर्सिटी उन्हें ग्रेजुएशन की पढ़ाई से पहले कौन सा सबक सिखा रही है? लेकिन क्या हमारी उच्च शिक्षा का सबसे बड़ा सवाल यही है कि ग्रेजुएशन तीन वर्ष का हो या चार वर्ष का?
जिन विश्वविद्यालयों को अच्छा मनुष्य गढ़ने की प्रयोगशाला होना चाहिए, उन्हें कुशल मशीनें गढ़ने के कारखानों में बदला जा रहा है। पढ़ाई का मक़सद बेहतर मनुष्य होना, जीवन को बेहतर ढंग से समझना, समाज से कहीं ज्यादा गहरा सरोकार पैदा करना और ऐसी प्रयोगशील दृष्टि विकसित करना होना चाहिए, जो देश और दुनिया को विचार से लेकर प्रौद्योगिकी तक की दुनिया में कुछ नया दे सके। लेकिन हमारे यहां अच्छी शिक्षा का मतलब अच्छी नौकरियों वाली शिक्षा रह गया है और अच्छी नौकरी का मतलब अच्छा पैसा भर रह गया है।
न जीने का तर्क बचा है न पढ़ने का− सबकुछ नौकरी और पैसे से तौला जा रहा है। ऐसे में विश्वविद्यालयों की वह गरिमा ही नहीं बची है, जो नया समाज गढ़ने वाले किसी संस्थान की होनी चाहिए। अपने व्यावसायीकरण की कोशिश में दिल्ली विश्वविद्यालय ने भी अपना यही हाल कर लिया है।
पिछले साल अगर कुलपति ने शिक्षकों का मान नहीं रखा तो इस साल यूजीसी ने कुलपति का मान नहीं रखा। सच तो ये है कि यूजीसी ने अपना भी मान नहीं रखा। बीते साल वह डीयू की स्वायत्तता का हवाला देती रही इस साल कुलपति को किनारे कर सीधे प्रिंसिपलों को चिट्ठी लिखती दिखाई पड़ी।
संस्थाओं की स्वायत्तता का सवाल पीछे छूट गया। लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय की इस स्वायत्तता पर हमला इसलिए संभव हुआ कि वह भीतर से जर्जर होता संस्थान है। ये सच्चाई सिर्फ डीयू की नहीं हमारे पूरे शिक्षा संसार की है।
आखिर इतने सारे आइ.आइ.टी और आइ.आइ.एम बनाने के बाद भी पिछले पचास साल में हम एक नोबेल विजेता वैज्ञानिक पैदा नहीं कर पाए− बस कुशल तकनीशियन ही बनाते रह गए। क्या इसलिए कि हम न संस्थाओं की परवाह करते हैं? न कायदों की और न ही शिक्षा के बुनियादी उसूलों की?
This Article is From Jun 24, 2014
प्रियदर्शन की बात पते की : ऊंची शिक्षा के बड़े सवाल
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Updated:नवंबर 19, 2014 15:49 pm IST
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Published On जून 24, 2014 23:21 pm IST
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Last Updated On नवंबर 19, 2014 15:49 pm IST
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