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पुरानी स्याही से नई रेखा खींचते आजाद

Atul Ranjan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    July 03, 2024 22:15 IST
    • Published On July 03, 2024 22:15 IST
    • Last Updated On July 03, 2024 22:15 IST

क्या देश एक ही धर्म का है? ये वो सवाल है जो ‘नए भारत' में बड़े-बड़े धर्मनिरपेक्ष नेताओं की जुबां पर आने से हिचकता है. वो इस सवाल का पर्याप्त जवाब दे पाने में कठिनाई महसूस करतें हैं. ऐसे में किसी नए-नवेले सांसद का ठोस लहजे में ये बार-बार पूछना सुर्खी तो है. 

नगीना से चुने गए सासंद और भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर आजाद लगातार पूछ रहे कि अगर कावड़ यात्रा को लेकर 10 दिनों तक रास्ते बंद हो सकते हैं तो ईद की नमाज के लिए 15 मिनट में क्या दिक्कत हो जाएगी. आजाद के धर्मनिरपेक्ष सुर धार्मिक उग्रता के युग में पूर्वी हवा के झोंके सा ताजा मालूम पड़ता है. हालांकि, इसकी ‘बैकस्टोरी' राजनीतिक तकाजे के खंभे पर खड़ी है.  

चंद्रशेखर जिस नगीना सीट पर 50 फीसदी से अधिक वोट लाकर जीते हैं वो दलितों के लिए आरक्षित है. वहां दलितों की संख्या 21 फीसदी, तो वहीं 40 फीसदी से अधिक आबादी मुसलमानों की है. सपा-कांग्रेस गठबंधन ने आजाद को सहयोग न देने का फैसला किया था. इससे बीजेपी को उम्मीद थी लड़ाई त्रिकोणीय हो जाएगी और वो बाजी मार लेगी. 

नतीजों के बाद जब 'INDIA' ने चंद्रशेखर को डिप्टी स्पीकर के चुनाव के लिए समर्थन देने की अपील की तब वो मान तो गए पर इशारों में ही साफ कर दिया कि आगे भी उनका समर्थन मुद्दों पर निर्भर करेगा, यानि इसकी गारंटी नहीं है. 

दरअसल, 'INDIA' से सोची-समझी दूरी के पीछे चुनाव-उपरांत बदले हुए राजनीतिक हालात हैं. नतीजों ने बसपा की ढीली पड़ती दलित वोटों पर पकड़ को एक बार फिर सरेआम तो कर दिया लेकिन उस बिखरते वोट बैंक पर भाजपा के एकमात्र दावे का ट्रेंड भी डगमगा गया. 

CSDS-लोकनीति के 2024 चुनावों पर अध्ययन के मुताबिक 'INDIA' को जाटव दलितों का 25 फीसदी तो वहीं अन्य दलितों का 56 फीसदी वोट मिला. गैर-जाटव दलितों का बसपा और NDA के ऊपर 'INDIA', खासकर सपा को तरजीह देना कोई सामान्य राजनीतिक घटना नहीं है. अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी ने पिछले कुछ समय से PDA-पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक - का मंत्र अपना रखा है और चुनावी नतीजों ने इसे हिट साबित किया है. 

यह आकड़े चंद्रशेखर आजाद को उत्साहित नहीं करेंगे. मायावती के गिरते चुनावी स्टॉक पर नजरें चंद्रशेखर की भी उतनी ही हैं जितनी अखिलेश कीं. ऐसे में अगर बसपा के खाली होते राजनीतिक जमीन पर भाजपा या सपा कब्जा करती दिखे तो ये चंद्रशेखर और उनकी आजाद समाज पार्टी के लिए सुखद नहीं हो सकता. 

इस बात से बख़ूबी वाकिफ आजाद पुरानी स्याही से नई रेखा खींचने में लगे हैं. उनके भाषण दलितों के साथ-साथ मुसलमानों को भी साधने का प्रयास करते हैं. सड़क से संसद तक के सफर में आजाद की सर्व धर्म सम भाव वाली बोली बदली नहीं है. ये वो दो वर्ग हैं जिनके समर्थन से कांशीराम-मायावती ने बहुजन समाज पार्टी को खड़ा किया. दोनों ने जमीन पर खूब संघर्ष किया, गली-गली यात्रा करके बहुजनों के मुद्दे उठाए और उनमें आंबेडकर और संविधान को लेकर जुड़ाव पैदा किया. बसपा की बुनियाद जमीनी और वैचारिक संघर्ष से बनायी गई थी. 

चंद्रशेखर का संगठन अभी काफी छोटा है. सहारनपुर की सड़कों से शुरू हुई भीम आर्मी ने उन्ना से लेकर शाहीन बाग तक कई क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मुद्दों के सहारे अपने अस्तित्व को आकार दिया. चंद्रशेखर अपनी यंग टोली लेकर सत्ता-प्रशासन से टकराते रहे हैं. हालांकि, इससे उन्हें खबरों में जगह तो मिली लेकिन दलित राजनीति के एक वर्ग से आलोचना का भी सामना करना पड़ा. 

कहा गया कि चंद्रशेखर के तेवर ‘बागी' हैं. उनकी राजनीति तत्कालीन दलित राजनीतिक एकजुटता में दरार पैदा करने वाली है. ये बहुजन राजनीति को कमजोर कर सकती है. उनसे मायावती के हाथ को मजबूत करने की अपेक्षा की जाती रही. 

ऐसा नहीं है कि चंद्रशेखर ने मायावती के करीब जाने की कोशिशें नहीं की. वो तो मायावती थी जिन्हें आजाद में साझेदार नहीं दावेदार दिखा. ऐसे में आजाद ने नया रास्ता निकाला जो बसपा के राजनीतिक कदमों पर सवाल तो करता है पर पार्टी और बहनजी के बहुजन राजनीति में योगदान और महत्वता को नीचा नहीं दिखाता. 

उल्लेखनीय है कि बसपा ने धारा 370, नागरिकता कानून, और स्वर्ण आरक्षण पर केंद्र सरकार का समर्थन किया था. चुनाव और अन्य अहम राजनीतिक घटनाक्रमों पर माया की चुप्पी या नपी-तुली टिप्पणियां अब तो आम जनता की नजरों से भी बची हुई नहीं है. 

इसी पृष्ठभूमि में चंद्रशेखर ने साल 2020 में आजाद समाज पार्टी का गठन किया. प्रयास किए गए कि सपा से गठबंधन हो, पर 2022 के जैसे 2024 में भी बात बन नहीं पाई. खबरों की मानें तो अबकी बार पेंच नगीना सीट पर ही फंसा था. अखिलेश अल्पसंख्यक बहुल नगीना को हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे. 

अब नतीजों के बाद अखिलेश ने आजाद की जीत को PDA की जीत बताया है. आजाद के सुर एकला चलो वाले हैं - “हमारा कोई दोस्त-दुश्मन नहीं”.

(अतुल रंजन NDTV इंडिया में कार्यरत हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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