(ऑनिंद्यो चक्रवर्ती NDTV इंडिया तथा NDTV Profit के वरिष्ठ प्रबंध संपादक हैं... उनका लिखा यह आलेख हमारे वरिष्ठ संपादक प्रियदर्शन द्वारा अंग्रेज़ी से अनूदित किया गया है...)
जब मेरी बेटी करीब दो साल की थी, वह उस इलाके को कुछ-कुछ पहचानने लगी, जहां हम रहते थे। वह इसका नाम बता सकती थी और शहर के दूसरे हिस्सों से अलग इसे पहचान सकती थी। लेकिन तब तक, उसे यह समझाना लगभग नामुमकिन था कि ऐसी सारी बस्तियां दिल्ली नाम के शहर का हिस्सा हैं, या दिल्ली और कलकत्ता दोनों भारत नाम के एक देश के हिस्से हैं।
मेरी बेटी को, पहली बार, भारत क्या है, यह तब समझ में आया, जब उसने स्कूल जाकर नक्शा देखना सीखा। वर्ल्ड मैप पर भारत का आकार देखकर वह अपने देश को पहचान लेती थी। हम सबने शायद इसी तरह भारत को पहचानना सीखा था - एनसीईआरटी की किताबों में छपे नक्शों से। धीरे-धीरे हमने राष्ट्र के दूसरे प्रतीकों को भी पहचानना सीखा - झंडा, सिक्के, और दूसरी चीज़ें, जो हमें स्कूल में पढ़ाई जाती थीं।
...और उसके बाद हमने सीखा किताबी, आधिकारिक इतिहास। अकबर अच्छा था, औरंगजेब बुरा। पृथ्वीराज चौहान और शिवाजी महान थे। गांधीजी ने अहिंसा से आज़ादी दिलाई। भूगोल में हमने सीखी अनेकता में एकता, भारत के विभिन्न राज्यों की अलग-अलग भाषाएं, संस्कृति और पोशाकें।
मुझे याद है, बचपन का होमवर्क, जिसमें मोहल्ले की स्टेशनरी शॉप से खरीदे हुए चार्ट काटकर नोटबुक में चिपकाना पड़ता था। चार्ट में छपी होती थीं भारत के प्रसिद्ध स्मारकों, स्वतंत्रता सेनानियों, धर्मों और राज्यों की 'टिपिकल' तस्वीरें। आज भी मैं अपनी आँख बंद करके याद करूं तो उस 'टिपिकल' बंगाली और तमिल आदमी के, गोखले और तिलक के, अकबर और शिवाजी के, जंतर-मंतर और सांची के स्तूप के हाथ से बनाए चित्रों के प्रिंट्स को देख सकता हूं।
इन्ही तस्वीरों और चिह्नों से बनी थी मेरी राष्ट्रवाद की समझ। तीस साल बाद मेरी बेटी के दिमाग में राष्ट्रवाद का आइडिया ऐसी ही 'टिपिकल' तस्वीरों और चिह्नों से ठोस आकार ले रहा है। हम सब के राष्ट्रवाद ऐसे ही चिह्नों, तस्वीरों, नक्शों, नामों से बनते हैं। साथ-साथ राष्ट्रवाद की समझ उन चीज़ों से भी होती है, जो हमसे अलग हैं, जैसे दूसरे देशों की भाषाओं के नाम, उनका खान-पान, उनकी पोशाक, उनके सिक्के। ये सब अलग-अलग तरह के प्रतीक और चिह्न हैं, जो हमारे लिए अपने और पराये की व्याख्या करते हैं।
जब उज्ज्वल निकम ने कसाब के संदर्भ में बिरयानी के प्रतीक का इस्तेमाल किया, तो वह - जाने या अनजाने - ठीक यही काम कर रहे थे। वह एक पाकिस्तानी शख्स के लिए एक प्रतीक या चिह्न तैयार कर रहे थे, जो अपना 'राष्ट्रीय' व्यंजन मांग रहा था। बिरयानी का यही प्रतीक था, जिसे फिर पाकिस्तान को चिह्नित करने के लिए तब इस्तेमाल किया गया, जब कोस्ट गार्ड के एक डीआइजी बीके लोशाली ने कहा कि वह चाहते थे कि पाकिस्तानी बोट उड़ा दी जाए, क्योंकि 'हम उन्हें बिरयानी परोसना नहीं चाहते थे...' और यही वजह है कि हाफ़िज़ सईद से वेद प्रताप वैदिक की मुलाकात पर वीएचपी ने कहा कि 'सईद के साथ बिरयानी खाना' देशभक्ति नहीं है।
ऐसी बातें बिरयानी शब्द को एक चिह्न में बदल देती हैं, जिसमें एक खाने की चीज़ को पाकिस्तान और आतंकवाद का प्रतीक बना दिया जाता है, लेकिन निशाने पर न पाकिस्तान है, न आतंकवाद। असली निशाना घर में है - तथाकथित बिरयानी खाने वाले - भारतीय मुसलमान। बार-बार बिरयानी और आतंकवाद को साथ जो़ड़कर बोलते हुए बिरयानी को एक भयावह शब्द में बदल दिया जा रहा है, और शब्द के उच्चारण से एक छवि सामने आ रही है, एक कट्टर आदमी, जो धर्म के लिए देश के साथ गद्दारी कर सकता है।
वे सब लोग, जो यह दलील दे रहे हैं कि बिरयानी की कहानी गढ़कर निकम ने सही किया, चाहे-अनचाहे, यही छवि बना रहे हैं। हमें इन छवियों से सावधान रहने की ज़रूरत है, क्योंकि अगर हमने उन्हें अपने रोज़मर्रा की भाषा के अर्थों को बदलने दिया, तो एक दिन वह हमारे राष्ट्रवाद की समझ को भी बदल सकती है।