ऑनिंद्यो चक्रवर्ती की कलम से : केजरीवाल 'कल्ट' तो होना ही था...

(ऑनिंद्यो चक्रवर्ती NDTV इंडिया तथा NDTV Profit के वरिष्ठ प्रबंध संपादक हैं... उनका लिखा यह आलेख हमारे वरिष्ठ संपादक प्रियदर्शन द्वारा अंग्रेज़ी से अनूदित किया गया है...)

नई दिल्ली : जोसिप विसार्यानोविच जुगश्विली का ख़ौफ़ ऐसा था कि उसकी मौत के तीन साल बाद भी, सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं पार्टी कांग्रेस में निकिता ख्रुश्चेव उसका नाम तक नहीं ले सका, जब वह उस 'पर्सनैलिटी कल्ट' यानी व्यक्ति पूजा की बात कर रहा था, जो सोवियत संघ पर जुगश्विली के दौर में हावी रहा - जुगश्विली यानी जोसेफ़ स्टालिन।

बेशक, पर्सनैलिटी कल्ट या व्यक्ति पूजा की अवधारणा इससे काफ़ी पुरानी है, लेकिन माना जाता है कि ख्रुश्चेव ने जब इस शब्द का इस्तेमाल किया, तब वह प्रचलन में आया। तब से यह उन बहुत सारे नेताओं की चर्चा के क्रम में इस्तेमाल किया जाता रहा है, जिनकी कद्दावर शख्सियत ने उनके संगठनों को ढंक लिया।

विडम्बना यह है कि खुद राजनीतिक दल ही अक्सर ऐसे पर्सनैलिटी कल्ट पैदा करते हैं और उनको पालते-पोसते हैं, ताकि वोटर अपनी ओर मुड़ें, उन्हें एक करिश्माई नेता के पीछे खड़ा करते हैं और फिर उनका इस्तेमाल कर चुनाव जीतते हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के लिहाज से यह कहीं ज़्यादा सच है, लेकिन हमने देखा है कि यह सारी दुनिया में होता रहा है।

हमारे समय में ऐसी व्यक्ति पूजा और प्रभावशाली हो गई है। ये पर्सनैलिटी कल्ट टीवी समाचारों और सोशल मीडिया द्वारा 'निर्मित' और नियंत्रित किए जाते हैं। आर्थिक संकटों के दौर भी ऐसी शख्सियतों के उभार की उपजाऊ ज़मीन हुआ करते हैं, जो नायक और मसीहा नज़र आते हैं। बीते पांच सालों में, हमने कम से कम तीन लोगों के साथ यह होते देखा है - अण्णा हज़ारे, नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल। इन तीनों के मामलों में किसी आंदोलन या पार्टी की पूरी पहचान ही एक नेता की कद्दावर छवि से जुड़ गई।

आम आदमी पार्टी व्यक्ति पूजा की इस राजनीति की सबसे नई और - शायद और सबसे ज़्यादा - लाभ हासिल करने वाली पार्टी रही है। सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम नागरिकों का आंदोलन होने के बावजूद हाल के चुनावों में इसने ख़ुद को एक नेता के सहारे बेचा। इसका नारा 'पांच साल केजरीवाल' और 'मांगे दिल्ली दिल से, केजरीवाल दिल से' जैसे आकर्षक कारोबारी जिंगल एक आम नायक के तौर पर केजरीवाल के सुविचारित छवि निर्माण में केंद्रीय रहे।

आज जिन योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण ने 'आप' के भीतर बढ़ती केजरीवाल-पूजा को मुद्दा बनाया है, वे तब इस चुनावी रणनीति का हिस्सा थे। दरअसल, आज जब मैंने प्रशांत भूषण से पूछा कि क्या पार्टी की जगह केजरीवाल को पेश करना सही था तो उन्होंने माना कि यह चीज़ चुनाव प्रचार के दौरान होनी चाहिए थी।

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मुझे प्रशांत भूषण का यह भरोसा कुछ यूटोपियाई लगा कि जब चुनावों के बाद चीज़ें सामान्य हो जाएंगी, तब व्यक्ति पूजा की जगह आंतरिक लोकतंत्र चला आएगा। राजनीति में व्यक्ति पूजा का ऐसा कोई जादुई बटन नहीं होता, जिसे आप तब दबा दें, जब चुनाव जीतना चाहें और तब बंद कर दें, जब अपनी बात चलाना चाहें।