बजट पर ऑनिंद्यो चक्रवर्ती : हुई वित्तीय कठमुल्लेपन की जीत

(ऑनिंद्यो चक्रवर्ती NDTV इंडिया तथा NDTV Profit के वरिष्ठ प्रबंध संपादक हैं... उनका लिखा यह आलेख हमारे वरिष्ठ संपादक प्रियदर्शन द्वारा अंग्रेज़ी से अनूदित किया गया है...)

नई दिल्ली : हम सबको यह बताया गया है कि अपनी कमाई से कम खर्च करना ही सबसे सही तरीका है, लेकिन व्यवहार में हममें से ज्यातार लोग ऐसा नहीं करते। हम होम लोन लेते हैं, किस्तों पर कार खरीदते हैं और कई बार अपना क्रेडिट कार्ड भी इस्तेमाल करते हैं, बिना यह सोचे कि अगले महीने में शायद हम पूरा बिल भर भी न सकें। जब तक लोग इतना कमाते हैं कि वे अपनी किस्तें भी दे सकें और क्रेडिट कार्ड के बिल भी नियमित भर सकें, कर्ज़ लेना कोई बुरी बात नहीं है।

जो बात हमारे-आपके लिए सच है, वह कारपोरेट और उद्यमियों के लिए कहीं ज़्यादा सच है। आप जानते हैं कि बड़ी-बड़ी कंपनियों ने अपने विस्तार के लिए, उत्पादन बढ़ाने के लिए और बाज़ार पर कब्ज़ा करने के लिए कर्ज़ लिए हैं, लेकिन दरअसल वही कंपनियां टिकी रहीं और बड़ी बन पाईं, जिन्होंने इतना कमाया कि अपने कर्ज़ चुका सकें।

...तो अपनी कमाई से ज़्यादा ख़र्च करने के लिए लोन लेने की शर्त यह बनती है - यह सुनिश्चित करें कि आप भविष्य में इतना कमाएंगे कि अपना कर्ज़ और उन पर आने वाला ब्याज चुका सकें।

यही बात राष्ट्रों के लिए भी सच है। सरकारें अक्सर टैक्स से जितनी कमाई करती हैं, उससे ज़्यादा ख़र्च कर डालती हैं। इसमें उस समय कोई हर्ज़ नहीं, जब अर्थव्यवस्था अच्छी न चल रही हो, लेकिन सार्वजनिक ख़र्च से मांग बढ़ाने में मदद मिल सकती हो।

सरकारी पैसा आमतौर पर इमारतें, सड़कें, पुल, बांध, बिजलीघर और बुनियादी ढांचे से जुड़ी दूसरी परियोजनाएं बनाने में ख़र्च होता है। सरकारी ख़र्च से उन इंजीनियरिंग और कंस्ट्रक्शन कंपनियों को कारोबार मिल सकता है, जिनके पास परियोजनाओं की किल्लत है। बदले में वे सीमेंट, स्टील, मशीनें ख़रीदेंगी और इंजीनियरों और कामगारों को रोज़गार देंगी। फिर जिसे रोज़गार मिला है, वह अपना वेतन खाने, साबुन, कार, फ्रिज और दूसरी चीज़ों पर ख़र्च करेगा, जो हम ख़रीदते हैं।

सरकारी पैसा सीधे उनको सब्सिडी देने में भी ख़र्च किया जा सकता है, जिनकी कमाई पर्याप्त नहीं है। अगर गरीबों को सस्ता खाना मिल जाता है, तो वे जो थोड़ा-बहुत कमाते हैं, उसे दूसरी चीज़ों पर ख़र्च कर सकते हैं। इससे फिर कुछ सस्ती चीज़ों की मांग पैदा होती है, जैसे सस्ते साबुन, टॉर्च या बिस्किट। कंपनियों और उपभोक्ताओं की अतिरिक्त कमाई आने वाले वर्षों में सरकार के लिए ज़्यादा टैक्स कमाई का जरिया बन सकती है...

...तो एक साल में अतिरिक्त ख़र्च कर सरकार आने वाले वर्षों की अतिरिक्त आमदनी का रास्ता खोल सकती है।

दूसरे शब्दों में, आर्थिक संकट के दौर में, बेहतर है कि सरकार ज्यादा ख़र्च करे और अर्थव्यवस्था को ताकत दे। लेकिन फिर उस डरावने शब्द 'वित्तीय घाटे' का क्या...?

बहुत सरल शब्दों में, वित्तीय घाटा सरकार की कमाई और ख़र्चे के बीच का अंतर है। इसमें सिर्फ़ टैक्स की कमाई नहीं आती, बल्कि सरकारी कंपनियों द्वारा हासिल लाभांश भी आता है।

...तो जिस तरह हमें अपनी कमाई और ख़र्च के अंतर को पाटने के लिए लोन लेना पड़ता है या जमीन-जायदाद या स्टॉक बेचने पड़ते हैं, ठीक उसी तरह सरकार को भी वित्तीय घाटे की भरपाई करनी पड़ती है। यह काम वह संस्थाओं या लोगों से लोन (बॉन्ड) लेकर करती है। यह अपनी संपत्ति बेचकर भी पैसा उगाहती है, जैसे सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का हिस्सा बेचकर, जो विनिवेश कहलाता है।

लेकिन जो कर्ज़ हम और आप लेते हैं, उससे अर्थव्यवस्था की ब्याज दर को फर्क नहीं पड़ता, जबकि सरकारें इतनी बडी लेनदार होती हैं कि अगर उन्होंने बहुत ज़्यादा कर्ज़ ले लिया, तो ब्याज दर बढ़ सकती है। यह एक वजह है कि ज़्यादातर अर्थशास्त्री इस बात के पक्ष में नहीं होते कि सरकारें भारी घाटे पर चलें।

हमारे-आपके विपरीत, सरकारें अपने वित्तीय घाटे की भरपाई सीधे-सीधे नोट छापकर भी कर सकती हैं। ज़्यादातर अर्थशास्त्री लेकिन इसे कर्ज़ लेने से कहीं ज़्यादा नापसंद करते हैं। वे कहते हैं, ज्यादा पैसा छापने का सीधा मतलब 'सामान की एक ही मात्रा पर और ज़्यादा पैसा' लगना है। इसका इकलौता मतलब मुद्रास्फीति हो सकता है।

हालांकि कुछ अर्थशास्त्री कहते हैं कि यह तर्क तभी तक सही है, जब अर्थव्यवस्था पूरी क्षमता से चल रही हो - यानी, हर कारख़ाना उतना उत्पादन कर रहा हो, जितना वह कर सकता है। संकट की हालत में, जिस हाल में हम बिल्कुल अभी हैं, जब क्षमता का इस्तेमाल काफी कम हो रहा है, सरकार द्वारा नोटों की अतिरिक्त छपाई कीमतों पर असर डाले बिना उत्पादन बढ़ाने में मदद करेगी।

इसकी और भी व्याख्या करें। अगर छापी गई अतिरिक्त मुद्रा उन लोगों के हाथ में जाती है, जिनके पास सामानों और सेवाओं के भुगतान का पैसा नहीं है, तो उनका उपभोग बढ़ेगा। वे कारखाने अपना उत्पादन बढ़ाएंगे, जिन्होंने पहले इसमें कटौती की थी। वे उत्पादन की लागत भी कम कर सकते हैं, क्योंकि मशीनों और कामगारों की क्षमता का बेहतर इस्तेमाल होगा। तो नोट की छपाई से दाम बढ़ने की जगह ठीक उल्टा भी हो सकता है - यानी दाम कम हो सकते हैं।

तो इन तमाम वर्षों में जिस अर्जित ज्ञान के साथ हम जी रहे हैं, वह भले कहता हो कि वित्तीय घाटा बुरी चीज़ है, लेकिन वह संकट में पड़ी अर्थव्यवस्थाओं के दौर में गलत भी हो सकता है। अरुण जेटली अपने बजट भाषण में इस 'वित्तीय कठमुल्लेपन' से अलग चलते दिखे, जब उन्होंने कहा कि 'निवेश को ताकत देने के लिए सार्वजनिक निवेश के दखल की ज़रूरत है...' उन्होंने यह भी कहा कि 'वित्तीय मज़बूती के लिए पहले से तय टाइम टेबल के हिसाब से बढ़ते रहना मेरी राय में वृद्धि के पक्ष में नहीं होगा...'

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उन्हें कुछ और आगे बढ़ना चाहिए था और इस साल के मुकाबले अगले साल कहीं ज़्यादा वित्तीय घाटे का दबाव बनाना चाहिए था। इसकी जगह उन्होंने वित्तीय कंसॉलिडेशन की समयसीमा एक साल बढ़ाकर मामूली-सी रियायत भर दी। शायद इसलिए जेटली के भाषण में बजट के वास्तविक आंकड़े उनके दावों पर सवाल खड़े कर रहे हैं। यह वित्तीय कठमुल्लेपन की जीत है, जिसमें सार्वजनिक ख़र्च को बढ़ाने की जगह उसमें ख़ासी कटौती कर दी गई है।