कहते हैं हमारे साथ हमेशा व्यवहार भाईचारे का रहा. खाने के शौक़ीन थे. जब कहीं कोई दावत हुई तो सब्ज़ी अटल जी के हवाले कर देते थे, वही काटते थे. बड़ा अच्छा था, रसोई में जाते थे, कोई अंतर नहीं था. हमारे मुसलमानों में खाना एक थाल में खाते हैं, मैं नहीं खाता मना कर देता हूं... बस प्रार्थना है भगवान से उनको जन्नत में जगह दे.
NDTV से बात करते नवाब इकबाल अहमद
शायरी में कहते हैं, अटलजी का फलसफा था...
तू है हरजाई तो हमारे भी दौर सही, तू नहीं तो और सही... और नही तो और सही.
बताते हैं उनके प्रेम के किस्से ... कश्मीरी महिला से लेकर, महिला वकील तक...
कैसे पंडित जी कंवारे रह गये ... पिता कहते थे, मियां देखकर अटल कहां है...
शिंदे साहब के पाड़े पर पटरियां लगी थीं, फानूस के कांच लेकर देखते थे और हंस देते..
ख़ैर कभी इक़बास साहब ने अपने रिश्तों को भुनाया नहीं...
ये वही शिंदे की छावनी थी, जहां 1924 में ब्रह्ममुहूर्त के वक्त 25 दिसंबर ईसा मसीह का जन्मदिन. 25 दिसंबर को ही अटल जी जन्मे. जब पैदा हुए, पड़ोस के गिरिजाघर में ईसा मसीह के जन्मदिन का त्योहार मनाया जा रहा था. कैरोल गाए जा रहे थे. उल्लास का वातावरण था.
अटलजी को पिता श्री कृष्ण बिहारी वाजपेयी उंगली पकड़कर आर्य समाज के वार्षिकोत्सव में ले जाते थे. भजनों, उपदेशों के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम की बातें बाल मन में घुलती मिलती जा रही थीं. क्या ये सब महज़ संयोग था. या एक महामानव के निर्माण, उनकी काव्यरसधारा के बहने का विधान, उनके मन में बचपन से ही एक कवि की निर्मल आत्मा पलती रही है.
जब राजनीतिक जीवन की जिम्मेदारियों से उनके कंधे बोझिल होते गए तब कवि अटल की कविताओं का प्रवाह जैसे थम सा गया. राजनीति की आपाधापी से खिन्नतो ने भी उन्हें बार बार साहित्य की ओर मोड़ा. कविता को जीवित रखने का श्रेय बाजपेयीजी की जेल यात्राओं को भी जाता है. अटलजी जब अपनी कलम से थकते दिखे तो किताबों में डूब गए.
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हों, दिनकर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, महावीर प्रसाद, भारतेंदु हरिश्चंद्र, महादेवी वर्मा से लेकर शरतचंद्र अटलजी ने अपने समय के सभी साहित्यकारों को बड़े चाव से पढ़ा. तुलसीदासजी का रामचरितमानस तो उनकी प्रेरणा का स्रोत रहा है. लेकिन विचारधारा को लेकर अपने अलग-अलग मत को उन्होंने सदैव निर्भिकता के साथ रखा.
लेकिन इन बातों के अलावा वो यारों के यार थे, ये समझने आप नयाबाज़ार के बहादुरा स्वीट्स जा सकते हैं, किसी अखबार ने लिखा था कि बहादुरा के लड्डू पासपोर्ट टू पीएम हैं. प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वो लड्डू खाने बहादुरा मिठाई की दुकान पर आते रहे. 47 साल के और अब दुकान के मालिक विकास शर्मा अटलजी को याद करते हुए भावुक हो जाते हैं, कहते हैं, 'वो पिताजी के बहुत अच्छे दोस्त थे. बैजनाथ जी और 2-3 दोस्तों के साथ बहुत वक्त दुकान में गुज़ारा करते थे. हमारे यहां दो चीजें बनती थीं लड्डू और गुलाबजामुन. सुबह में कचौड़ी और इमरती वो मुझे कहते थे ऐ इधर आ, जल्दी दे. उस वक्त मुझे अजीब लगता था. लेकिन मेरे पिता कहते थे तुम नहीं समझोगे. अब लगता है मेरा अपना चला गया. हमारे लिये वो परिवार थे."
ये संवदेना बताने एक और वाकया सुना, 1962 युद्द के बाद लता दीदी एक समारोह में ऐ मेरे वतन के लोगों गा रही थीं
अटल जी ने पूरे गाने को सुना. उनके पास गए, बेहद विनम्रता से तारीफ की और सिर्फ इतना कहा कि आज आंखों में पानी की जगह अंगारे भरने की ज़रुरत है.
हर बात में अटल... छात्र जीवन से ही. अटल जी विक्टोरिया कॉलेज के छात्र थे. कॉलेज का माहौल भी साहित्यिक था. एक बार छात्रसंघ की ओर से रात्रि में कवि सम्मेलन का आयोजन था. हॉल खचाखच भरा था, लेकिन कुछ कवियों के मंच पर आने में बहुत देर हो रही थी. जब ज्यादा देर होने लगी और छात्रों के धैर्य का बांध टूटने लगा तो अटलजी मंच पर चले गए और ऐलान कर दिया कुछ कवियों और शायरों के आने में देर हो रही है, श्रोता अधिक विलंब के लिए तैयार नहीं हैं, इसलिए कविता-पाठ स्थगित किया जाता है.
पिता जी चाहते थे अटल जी वकालत पढ़ें. लेकिन पी.एच.डी. में रजिस्ट्रेशन कराने अटलजी लखनऊ चले गए. इस बहाने के ज़रिये शिक्षक पिता को मनाना था, असल में मकसद अपनी कलम के ज़रिये देश में अलख जगाना था. दरअसल लखनऊ में संघ की बैठक में भाऊराव देवरस ने गुरुजी का संकल्प बताया. गुरुजी चाहते थे लखनऊ से अख़बार निकाला जाए. बैठक में अटलजी, राजीवलोचन और दीनदयाल उपाध्याय जी मौजूद थे. मासिक अख़बार की ज़िम्मेदारी मिली दीनदयाल उपाध्याय को. उन्होंने बतौर संपादक अटल जी को चुना. संपादक मंडल में राजीव लोचन अग्निहोत्री भी शामिल हुए. अमीनाबाद की मारवाड़ी गली में अख़बार का कार्यालय खुला. एक चटाई पर सफेद चादर, एक मेज़ पर कागज़ कलाम दवात. यही अख़बार की जमा-पूंजी थी. साथ में अटलजी और सहयोगियों के मेहनत की बेशुमार दौलत. पहले अंक की 3 हज़ार प्रतियां छपीं, संपादकीय दीनदयाल जी ने लिखा. लेकिन पहले पन्ने पर अटलजी थे और उनकी कविता घर-घर में लोगों की ज़ुबान पर.
पत्रकार पाठकों से सीधा संवाद करे, अटलजी पत्रकारिता के इस नियम को मानते थे. पहले अंक के बाद पाठकों की हज़ारों चिठ्ठियों का जवाब, नए अंक की तैयारी. अख़बारों के बंडल बनाने से लेकर, उनपर पता चिपकाना, पार्सल तैयार करना, अटलजी को किसी काम से परहेज नहीं था. एम.ए की डिग्री, कवि-वक्ता अटल अख़बार में डूब गए थे. राष्ट्रधर्म के दूसरे अंक की 8000 प्रतियां छापी गईं. अख़बार के कार्टून भी लोगों में चर्चा का केन्द्र थे. दूसरे अंक के बाद दीनदयाल जी ने 17000 रु में पुरानी प्रेस ख़रीद ली. सदर इलाके में 60 रुपये महीने में किराये से हॉल ले लिया. नाम रखा भारत प्रेस. कुछ दिनों बाद भारत प्रेस से दूसरा अख़बार पांचजन्य भी प्रकाशित होने लगा जिसका संपादन पूरी तरह से अटलजी करते थे.
देश आज़ाद हो गया था लेकिन बापू नहीं रहे. 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई. जिसके बाद भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को प्रतिबंधित कर दिया. चूंकि पांचजन्य संघ का पत्र था इसलिए भारत प्रेस को बन्द कर दिया गया. दीनदयाल जी गिरफ्तार हो गए. अटलजी भूमिगत होकर इलाहाबाद पहुंचे और वहां 'क्राइसिस टाइम्स' के लिए काम करने लगे, बाद में इसी प्रकाशन के अख़बार कर्मयोगी के प्रकाशन का दायित्व संभाला. 6-7 महीने बाद संघ से पाबंदी हट गई, पांचजन्य का प्रकाशन शुरू हो गया और पाठकों में उसकी मांग बढ़ने लगी. अब दीनदयाल जी दैनिक अख़बार निकालना चाहते थे.
परिकल्पना पत्र में तब्दील हुई. स्वदेश के नाम से अख़बार निकला. अपने तेवर-राष्ट्रप्रेम और सच्चाई से जनता से इसने सहज संवाद बना लिया. आज़ाद देश में अपनों की दुर्गति पर उनकी कलम ने ख़ूब आग उगली. कभी संपादकीय तो कभी कविताओं के माध्यम से देश की दुर्दशा पर अटलजी ने कहा
कौरव कौन कौन पांडव,टेढ़ा सवाल है.
दोनों ओर शकुनि, का फैला, कूटजाल है.
धर्मराज ने छोड़ी नहीं, जुए की लत है.
हर पंचायत में, पांचाली, अपमानित है.
बिना कृष्ण के, आज, महाभारत होना है, कोई राजा बने, रंक को तो रोना है.
अटल जी के सम्पादकीय भी काफ़ी सराहे गए और चर्चा का केन्द्र बने. लेकिन धीरे-धीरे सरकार ने अख़बार को विज्ञापन देना बंद कर दिया. पत्र के बढ़ते ख़र्च और घटती आमदनी की वजह से से स्वदेश को बंद कर देना पड़ा. फिर अटलजी दिल्ली आए और वहां से प्रकाशित होने वाले 'वीर अर्जुन' का सम्पादन करने लगे. यह दैनिक एवं साप्ताहिक दोनों आधार पर प्रकाशित हो रहा था.
एक पत्रकार के रूप में अटलजी के तेवर संसद तक उनके साथ गए. संसद में बैठकर भी वो सड़क को नहीं भूले.
तेज रफ्तार से दौड़ती बसें... बसों के पीछे भागते लोग... बच्चे संभालती औरतें
सड़कों पर इतनी धूल उड़ती है कि मुझे कुछ दिखाई नहीं देता... मैं सोचने लगता हूं
पुरखे सोचने के लिए आंखें बंद करते थे, मैं आंखें बंद होने पर सोचता हूं ...
बसें ठिकानों पर क्यों नहीं ठहरतीं, लोग लाइनों में क्यों नहीं लगते...
आख़िर ये भागदौड़ कबतक चलेगी...
देश की राजधानी में... संसद के सामने धूल कबतक उड़ेगी...
मेरी आंखें बंद हैं, मुझे कुछ दिखाई नहीं देता ... मैं सोचने लगता हूं...
10 बार सांसद रहे और प्रधानमंत्री के पद पर पहुंचे अटल जी ने राजनीति में आए आशा और निराशा के दौरों को बखूबी व्य़क्त किया. कठिन से कठिन परिस्थितियों में वो निराश नहीं हुए, हताश नहीं हुए. बस तकलीफ ज्यादा हुई तो कलम को दवा बना लिया, उसे ही तकलीफ सुना दी. अपने भाषणों के माध्यम से विरोधियों की आलोचना करने की एक मधुर कला अटलजी ने आत्मसात की. हमेशा संसदीय भाषा का प्रयोग करते हुए अपनी मर्यादा का ख्याल रखा.
अटलजी 5 दशकों तक राजनीति में रहे. लेकिन अजातशत्रु. उनका साफ मानना था राजनीति में मतभेद सैकड़ों हो सकते हैं मनभेद नहीं होना चाहिए. अटलजी का मजाक भी लोगों के लिए एक यादगार संस्मरण बन गया. अटलजी के आलोचनों से भरे शब्दों को भी लोगों ने अपनी यादों की पोटली में संजो कर रखा है. अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय माटी की वह सुगंध हैं जो मिटाए नहीं मिटती. बतौर कवि, लेखक, पत्रकार, राजनेता उनके बारे में कई बातें हो चुकी हैं. लेकिन हकीकत में वो दीदावर हैं. हर क्षेत्र में, बेहतरीन प्रशासक, स्टेट्समैन, पोखरण में परमाणु परीक्षण, लाहौर बस यात्रा, कारगिल, मुशर्रफ की आगरा यात्रा, भारतीय संसद पर हमला.
सीमा पर सेनाएं भी तैनात हो गईं. समूचा देश उन के इस फैसले के साथ था. अब यह अटल बिहारी वाजपेयी पर मुनःसर था कि वो पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध का बिगुल बजाएं कि नहीं बजाएं. सेनाएं आमने सामने थीं. हो सकता था कि पाकिस्तान तहस नहस हो जाता. हो सकता था कि पाकिस्तान एटमी लड़ाई छेड़ देता. कुछ भी हो सकता था. पर ऐसे में मानवता का क्या होता. आज की दुनिया का भूगोल क्या होता? इतिहास क्या होता? और कि क्या यह बांचने देखने के लिए हम आप भी होते? होते भी तो क्या ऐसे ही होते? लेकिन वो अटलजी का धैर्य था जो चूका नहीं. वाजपेयी जी की पहली कैबिनेट में मंत्री रहे सरताज सिंह ने बताया, 'वो बहुत भावुक थे, जब खुफिया विभाग ने अंदेशा जताया कि लड़ाई में दोनों देशों के 6 लाख लोगों की जान जा सकती है, परमाणु हथियार नस्लें तबाह कर सकते हैं. लेकिन इन बातों का ये मतलब कतई नहीं था कि उनके नेतृत्व में सब सहने को तैयार थे. नहीं, अगर वो पोखरण में धमाके के लिए अटल थे तो तमाम विसंगतियों और बाधाओं के बावजूद बस में बैठकर लाहौर जाकर दोस्ती का हाथ बढ़ाने के लिए भी.' आखिर काल के कपाल पर मनचाही इबारत लिखने और मिटाने का संकल्प लेकर चलनेवाले अटलजी में पराजय बोध की कल्पना तो कोई नहीं कर सकता.
शायद इसलिये लश्कर में स्थित गोरखी माध्यमिक विद्यालय में उनके नाम को आज भी सहेजा है, ये वही स्कूल था जहां 1935 से 1937 तक उनके पिता प्राचार्य रहे. ग्वालियर के ही एमएलबी कॉलेज से ग्रेजुएशन करने के बाद वो पोस्ट ग्रेजुएशन के लिये कानपुर चले गये. स्कूल की बिल्डिंग अब जर्जर हो चली है लेकिन वो रजिस्टर बचा है जिसमें अटलजी का नाम दर्ज है. स्कूल के प्रिंसिपल कहते हैं, "ये हमारे लिये ऐतिहासिक दस्तावेज है. 101 पर अटलजी का नाम लिखा है. यहां उन्होंने 1935 में आठवीं पास करने के बाद स्कूल छोड़ा. इस स्कूल की पहचान ही अटल जी के नाम पर है, हम यही चाहते हैं कि स्कूल का नाम उनके नाम पर रखा जाए.''
अटलजी को कबड्डी और हॉकी खेलने का शौक था. साइकिल भी बड़े मज़े से चलाते थे. उनकी भतीजी कांति मिश्रा कहती हैं, 'वो कि साइकिल लेकर ग्वालियर में अपने मित्रों के घर चल देते थे. एक बार राजमाता सिंधिया ने उनके लिये कार भेज दी तो उन्होंने ससम्मान उसे वापस भेजते हुए कहा कि ये शहर मेरा है.'
हालांकि 1984 के बाद से ग्वालियर के साथ एक तरह से उनका व्यक्तिगत राजनीतिक संबंध खत्म हो गया, जब चुनाव में उन्हें युवा माधव राव सिंधिया ने भारी अंतर से हरा दिया. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अटलजी को याद करते हुए कहा कि उस वक्त जब उन्होंने भोपाल का दौरा किया, तो उन्होंने मुझे बताया, "शिवराज, अब मैं बेरोजगार हूं". 1991 में वो दो सीटों विदिशा और लखनऊ से लोकसभा चुनाव लड़े. बुधनी के एक विधायक के नाते मुझे विदिशा के पूरे संसदीय क्षेत्र में प्रचार करने का मौका मिला. अटल जी ने दोनों सीटें जीतीं लेकिन उन्होंने लखनऊ को बनाए रखने का फैसला किया और मुझे खाली विदिशा सीट से उप-चुनाव लड़ाने का फैसला किया. जब मैं उपचुनाव जीतने के बाद उनसे मिलने गया, तो उन्होंने मुझे 'आओ विदिशापति' के साथ संबोधित किया और तब से जब भी मैं उनसे मिला, तो उन्होंने हमेशा मुझे विदिशापति के नाम से संबोधित किया."
2006 के बाद, अटल जी ने कभी भी अपने स्वास्थ्य की वजह से ग्वालियर का दौरा नहीं किया. लेकिन इस शहर के लोग हमेशा अपने अटलजी की स्मृतियों को संजो कर रखेंगे.
अटलजी में एक द्ंव्द्व तो था... शायद खुद से...
वो अध्यापक बनना चाहते थे... बन नहीं पाए...
वो कलम की दुनिया में बसना चाहते थे... बस नहीं पाए...
वो नेता बनकर उस ऊंचाई पर नहीं पहुंचना चाहते थे, जहां इक़बाल साहब जैसे बालसखा उनसे दूर हो जाएं... हुआ वही...
ख़ैर इन्हीं विरोधाभासों से तो वो बने थे ... शायद!
(ये पढ़ते वक्त मैं एकाकार हूं ... वो शख्स जिसने अपने जीवन में बतौर नेता अटलजी को देखा ... स्टेटसमैन माना ... हो सकता है किसी को वस्तुनिष्ठ ना लगे, मकसद भी नहीं है)
(अनुराग द्वारी एनडीटीवी में एसोसिएट एडिटर हैं)
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