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This Article is From Jan 27, 2017

सरकार और कमांडरों को नए सेफ्टी वॉल्व स्थापित करने होंगे

Asim Arun
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 27, 2017 20:05 pm IST
    • Published On जनवरी 27, 2017 20:05 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 27, 2017 20:05 pm IST
पिछले कुछ दिनों से केंद्रीय पुलिस बल, राज्य पुलिस और सेना के जवान अपनी समस्याओं को सोशल मीडिया पर व्यक्त कर रहे हैं. ऐसा करने वालों को पता है कि वे अपना कैरियर या नौकरी ही दांव पर लगा रहे हैं. क्या उन पर असहनीय दबाव है. अभी बीएसएफ के मेस के खाने का मसला हल नहीं हुआ था कि केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के एक जवान ने अपने चार साथियों को गोलियों से छलनी कर दिया. अब राज्य पुलिस बलों के सदस्य नित नए वीडियो और मैसेज सोशल मीडिया पर डालकर अपनी समस्याओं को ज़ाहिर कर रहे हैं. क्या मौजूदा सेफ्टी वॉल्व ठीक से काम नहीं कर रहे हैं. क्या फोर्स के प्रेशर कुकर के अंदर दबाव ज़्यादा हो गया है, जिसके लिए नए सेफ्टी वॉल्व बनाने होंगे.

अधिकांश विभागों और प्रतिष्ठानों में ट्रेड यूनियन होती हैं, जो कर्मचारियों के हितों की रक्षा के लिए काम करती हैं. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 नागरिकों को संगठित होने का मौलिक अधिकार देता है, लेकिन साथ ही 'राज्य की सुरक्षा' और 'लोक व्यवस्था' के हित में 'न्यायोचित प्रतिबंधों' का भी प्रावधान करता है, जिसके अंतर्गत 'पुलिस बल : अधिकार प्रतिबंध' अधिनियम, 1966 में पारित किया गया. इससे भारत के सशस्त्र बलों, जिनमें केंद्रीय बल और राज्य सिविल पुलिस भी शामिल हैं, के सदस्यों को यूनियन बनाने के अधिकार से प्रतिबंधित किया गया है.

कुछ राज्य, जैसे बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और केरल ने पुलिसकर्मियों को संगठित होने का अधिकार दिया है. इन राज्यों के पुलिस अधिकारी बताते हैं कि यूनियन के कारण इतनी अनुशासनहीनता हो गई है कि इनके पदाधिकारी वर्दी ही नहीं पहनते. पुलिस अधीक्षक से भेंट करते समय भी. लेकिन वे कुछ असहज सवाल ज़रूर पूछते हैं. मसलन, आरक्षियों के आवास और अधिकारियों के आवास पर मरम्मत के लिए कितना धन व्यय हुआ. आईपीएस और राज्य के अपर और पुलिस उपाधीक्षकों के भी संघ हैं, जो अपने पदाधिकारी का चुनाव करते हैं और नियमित रूप से बैठक करते हैं.

जिन सशस्त्र बलों में यूनियन नहीं हैं, उन्होंने अपने कर्मियों की व्यक्तिगत और सामूहिक समस्याएं सुनने के लिए तमाम प्रबंध किए हैं. वहां सैनिक सम्मेलन होते हैं, जिनमें सैकड़ों कर्मी अपने कमांडर के निर्देश सुनते हैं और अपनी समस्याएं भी रखते हैं. यदि इसे सही भावना से आयोजित किया जाए तो यह प्रजातंत्र का अनुभव देता है. लेकिन कई लोग अपनी व्यक्तिगत समस्या सबके सामने नहीं रखना चाहते, जिनके लिए अलग से बंद कमरे में अधिकारी समस्या सुनते हैं. कई बलों ने सूचना प्रौद्योगिकी का लाभ लेते हुए ऑनलाइन शिकायत और सुझाव पेटी की व्यवस्था भी की है.

इन व्यवस्थाओं के बाद भी जवानों को लगता है कि उनकी आवाज़ सही तरह नहीं सुनी जा रही है. उनकी शिकायत है कि हर वेतन आयोग के साथ उनका वेतन अन्य कर्मियों, जो सुसंगठित हैं, के अनुपात में कम होता जा रहा है. सरकारी कर्मियों के विचार जानने के लिए वेतन आयोग तमाम संगठनों से मिलता है, लेकिन यूनियन-विहीन बलों के कर्मियों की बात उनके अधिकारी रखते हैं. अधिकारियों से अपेक्षा है कि वे कमांडर के साथ यूनियन लीडर का भी दायित्व निभाएंगे, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता.

प्रायः जवानों की शिकायत रहती है कि उनकी बैरक में बत्ती-पंखा ठीक नहीं है. वैसे भी बैरक में रहने में कोई निजता नहीं बचती. नहाने के लिए स्नानागार के बजाय एक खुला स्थान निश्चित कर दिया जाता है. गुज़रे वक़्त में ऐसा चल गया, क्योंकि जवानों के घरों में भी इससे मिलती-जुलती परिस्थितियां थीं, लेकिन आज 'निजता के अधिकार' और 'व्यक्ति की गरिमा' का ध्यान रखते हुए मौलिक सुविधाओं से उन्हें वंचित नहीं रखा जा सकता. पहले जवान दूरस्थ स्थान पर नियुक्त होता था और उसके पारिवारिक दायित्व बाकी भाई निभाते थे, लेकिन अब शहर और गांव - दोनों में एकल परिवार होने लगे हैं. पुलिसकर्मी अपने परिवार की ज़िम्मेदारी कैसे पूरी करें. अगर परिवार साथ रह भी रहा हो, तो उन्हें बच्चों को पढ़ाने या सप्ताहांत पर सैर-सपाटा कराने का समय नहीं मिलता. दबाव बढ़ता जाता है.

पुलिस बल में प्रमोशन मिल पाना अनिश्चित है, लेकिन ऊबाऊ दिनचर्या, बैरकों में रहना और खुले में स्नान करना जीवन भर के लिए सुनिश्चित हैं. दबाव काफी ज़्यादा है और उसे निकालने के लिए सेफ्टी वॉल्व चाहिए. क्या सोशल मीडिया पर भड़ास निकालना एक बेहतर हल है.

बीते दिनों में तो इस भड़ास का कुछ लाभ होता दिखा है, क्योंकि सरकार व अधिकारी समस्याओं के हल के प्रति संकल्प ले रहे हैं. लेकिन किसी भी रैंक के सैनिक के सोशल मीडिया पर बोलने से परेशानियां उत्पन्न होना निश्चित है. शुरू में तो यह ध्यानाकर्षण करेगा, लेकिन शीघ्र ही इसमें कोई नयापन नहीं बचेगा. पनीली दाल और जले परांठे का व्याख्यान करने वाले बीएसएफ के जवान ने जाने-अनजाने अपनी यूनिट का नाम, नियुक्ति का स्थान, दायित्व, प्रयोग में लाए जाने वाले हथियार एवं उपकरण, बुलेट प्रूफ आदि का तमाम विवरण दुश्मन को दे दिया, जिसका दुरुपयोग हो सकता है. वैसे भी दुश्मन देश की एजेंसियां 'हनी ट्रैप' द्वारा सैनिकों को अपने चंगुल में फंसाने के लिए सोशल मीडिया द्वारा लगातार प्रयास कर ही रही हैं.

यद्यपि सोशल मीडिया सैन्य बलों की आंतरिक समस्याओं पर चर्चा करने के लिए उपयुक्त स्थान नहीं है, ज़रूरत है कि सूचना प्रौद्योगिकी का लाभ उठाते हुए ऐसे सुरक्षित माध्यम तैयार किए जाएं, जहां जवान सीधे सक्षम अधिकारी तक अपनी शिकायत पहुंचा सकें, सचित्र प्रमाण के साथ. कितना बेहतर होता यदि बीएसएफ के मुखिया दाल-रोटी के मसले को फेसबुक या राष्ट्रीय टीवी के बजाय अपने आंतरिक प्लेटफॉर्म पर देखते और उस पर कार्रवाई करते. इस प्रकार आंतरिक मसलों को तो बेहतर तरीके से हल किया जा सकता है, लेकिन पुलिसकर्मी सरकार तक ऐसी शिकायतें कैसे पहुंचाएं, जिन पर वही निर्णय ले सकती है. कमांडरों से अपेक्षा करना कि वे यूनियन लीडर का रोल भी अदा करेंगे, अस्वाभाविक है. वैसे भी, सरकारें ऐसे कमांडर को पसंद करती हैं, जो परिणाम दे और परेशानियां न गिनाए. 'प्रजातांत्रिक पर्यवेक्षण' की ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है, जिसमें विधायिका और कार्यपालिका की समितियां पदों की सीढ़ी के सबसे निचले स्तर पर काम कर रहे लोगों की व्यावसायिक और जीवनस्तर संबंधी परेशानियों को सीधे अनुभव करें और सुनिश्चित करें कि सरकार उन्हें हल करे.

तनाव का एक और बड़ा कारण है तबादले और बेजा सज़ा मिलने का डर. पुलिसकर्मियों को लगता है उनके कमांडर उन्हें बचा नहीं सकते, ऐसी स्थिति में भी जब वे जानते हैं कि उनके विरुद्ध शिकायत गलत है. खासकर यदि शिकायतकर्ता के पीछे एक मजबूत यूनियन खड़ी हो. जैसे - वकील, डॉक्टर, छात्र या नेता. किसी ज्वलंत मामले को हल करने के लिए पुलिसकर्मी को दंडित करने से पहले कमांडर ज़रा भी नहीं हिचकेंगे. माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा संस्तुत 'पुलिस शिकायत प्राधिकरण' स्थापित कर पुलिस की जवाबदेही बढ़ाई जा सकती है और अन्यायपूर्ण स्थानांतरण और दंड से ईमानदार कर्मियों को बचाया जा सकता है.

अब समय आ गया है, जब 'मानवीय समानता' जैसे प्रजातांत्रिक आदर्शों को सुरक्षा बलों में भी लागू किया जाए. पदों के भेद को दूर करते हुए आंतरिक प्रशासन में कानून का राज और समानता के सिद्धांत का पालन किया जाए. नागरिकों को भी ऐसी पुलिस मिलनी चाहिए, जो प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप हो. उन्हें चाहिए ऐसी पुलिस, जो कानून के राज को निर्भीक होकर लागू कर सके, व्यावसायिक विशेषज्ञता दिखाए और नागरिकों के अधिकारों का सम्मान करे.

आज हमारे समाज की धारा में दो बहाव स्पष्ट हैं. सूचना प्रौद्योगिकी का प्रसार और प्रजातंत्र का परिपक्वता की ओर बढ़ना. सुरक्षा बलों के निचले पायदान से उठ रही आवाज़ों का संबंध इन बहावों से मेल खाता है. सरकार और कमांडरों को इसे पहचानना होगा और नए सेफ्टी वॉल्व स्थापित करने होंगे, ताकि समस्याएं सुरक्षित तरीके से उठें और प्रभावी रूप से हल हों. उन्हें ऐसे कदम भी उठाने होंगे, जिनसे समानता, विशेषज्ञता और सत्यनिष्ठा जैसे उच्च आदर्शों की सुगंधित बयार का विस्तार सुरक्षा बलों में भी पूरी तरह हो जाए.

असीम अरुण उत्तर प्रदेश पुलिस में महानिरीक्षक (एटीएस) हैं...

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