'अग्निपथ' योजना के लिए पूर्व वरिष्ठ सेना अधिकारी के 5 सुझाव

एक राष्ट्र को अपने फौज के कर्मियों के साथ कभी समझौता नहीं करना चाहिए. आखिर ये फौजी ही सशस्त्र बलों की रीढ़ होते हैं. इस तरह की धारणा को रोकने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि उन्हें राजकोष पर बोझ के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि कच्चे हीरे के रूप में देखा जाए...

'अग्निपथ' योजना के लिए पूर्व वरिष्ठ सेना अधिकारी के 5 सुझाव

रक्षा मंत्रालय ने कुछ दिन पहले ही 'अग्निपथ' (या "टूर ऑफ़ ड्यूटी") योजना की घोषणा की. इसके तहत भारतीय सशस्त्र बलों में भविष्य की भर्ती की एक रूपरेखा भी तय की गई. ये एक आमूलचूल परिवर्तन है कि युवाओं को कैसे सशस्त्र बलों में एक सैनिक, नाविक और वायुसैनिक के रूप में शामिल किया जाएगा.

रक्षा मंत्री की मौजूदगी में तीनों सेना प्रमुखों द्वारा एक व्यापक प्रेस वार्ता में ये जानकारी दी गई कि नई नीति में युवाओं को शामिल किया गया है और फौजी वर्दी में चार साल का अल्प रोजगार 21 वर्ष तक के युवाओं को मिलेगा. गौरतलब है कि पहले 15 साल (या अधिक) की लंबी अवधि की प्रतिबद्धता सरकार की तरफ से होती थी.

इन चार वर्षों में से उनका प्रशिक्षण केवल छह महीने के लिए होगा. बचे हुए समय में आवश्यकतानुसार उनकी तैनाती होगी और ऑपरेशन की दृष्टि से चुनौतीपूर्ण कार्यों के लिए भी उन्हें भेजा जा सकता है. इस नीति को बनाने वालों ने सोचा कि एक आकर्षक वेतन, विशेष भत्ते, नौकरी छोड़ने पर एक पैकेज, किसी भी ग्रेच्युटी या पेंशन के बिना  देशभक्त युवाओं को राष्ट्र की सेवा करने का अवसर मिलेगा. इतना ही नहीं, भविष्य में संभावित रोजगार के लिए क्रेडिट अर्जित करने का मौका मिलेगा साथ ही सशस्त्र बलों में अधिक से अधिक युवाओं की संख्या होगी.

इस साहसिक ( कुछ लोगों के मुताबिक विवादास्पद) नई योजना को सशस्त्र बलों में सेवा देने के लिए एकमात्र भविष्य का जरिया बनाया गया है. लेकिन इसे उन लोगों ने ही स्वीकार नहीं किया जिनके लिए इसको बनाया गया था क्योंकि उन्होंने कई जगहों पर दंगे और आगजनी की है.

कई लोगों के मन में (यहां तक कि मुखर आर्मी वेटरेन समुदाय भी)  कई सवाल उठ रहे हैं. खास तौर से यह कि एक सिस्टम जो काफी अरसे से जारी है उसके साथ छेड़छाड़ क्यूं की जा रही है. इसी चल रही सिस्टम के बदौलत नौजवानों को शामिल किया जाता रहा है, उन्हें आवश्यकतानुसार प्रशिक्षण दे आकार दी जाती है और उनकी सेवा और विशेषज्ञता का उपयोग ज्यादा से ज्यादा समय के लिए की जाती है. दुनिया में सबसे बड़ी स्वयंसेवी सेना भारत के पास है जिन्हें बढ़े हुए वेतन और पेंशन बिल का भुगतान करना होता है. बहरहाल, चारों तरफ लोगों की बढ़ती आमदनी को देखकर ये कहा जा सकता है कि रक्षा बजट के पूंजी पक्ष का लगातार क्षरण हो रहा है. ऐसा लगता है कि अग्निपथ योजना को विकसित करने में यह मुख्य उत्प्रेरक रहा है. अन्य लाभों के साथ इसे जोड़ा गया ताकि सभी के लिए यह एक विन-विन (जीत) की स्थिति की तरह दिखे.

लेकिन प्रक्रिया मायने रखती है. सशस्त्र बल अपनी इकाइयों, स्क्वाड्रनों और अग्रिम पंक्ति के जहाजों के लिए मानव संसाधन प्रतिभा को चुनते हैं, प्रशिक्षित करते हैं और फिर शामिल करते हैं. यह एक महत्वपूर्ण घटक है कि ये शांति और युद्ध में कितना अच्छा प्रदर्शन करते हैं. अभी तक इस क्षेत्र में कोई बड़ी गिरावट नहीं आई है. तो अब यूनिट एकजुटता और दल भावना (विशेष रूप से सेना के लिए) के आधार को बदलने की आखिर कौन सी ऐसी जरूरत आ पड़ी कि नई नीति से तीनों सेवाओं में युवा प्रशिक्षित रंगरूटों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी होगी. गौरतलब है कि भविष्य के युद्धों को जीतने के लिए एक ऐसी दिशा में हम बढ़ रहे हैं जब तीनों सेवाओं के परिष्कृत सिस्टम के संचालन के लिए अधिक विशेषज्ञता और तकनीकी कौशल की मांग होती है.  हां, हमारी सुरक्षा चिंताओं के समाधान के लिए मोटिवेटेड और सुसज्जित फौजियों की आवश्यकता बनी रहेगी. और फिर भी सैनिक के साथ राष्ट्र के अनुबंध की प्रकृति को बदलने के लिए अगर हमने एक साहसिक कदम उठा ही लिया है तो हमें सेना के भीतर सुधार के पूरे मुद्दे को और अधिक समग्र रूप से देखना चाहिए. 21वीं सदी की सेना तैयार करने के लिए जो भी सुधारात्मक कदम उठाए जाए उनमें मानव संसाधन नीतियों में परिवर्तन एक आवश्यक कदम तो है लेकिन उसकी जरूरत सबसे अंत में होती है. Department of Military Affairs (सैन्य मामलों के विभाग) के साथ सीडीएस या चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ का पद बनाना एक शीर्ष स्तर का सुधार है जिससे अब तक हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा उद्देश्यों की स्पष्ट घोषणा होनी चाहिए थी जिससे सशस्त्र बलों के भविष्य के मिशनों का प्रवाह तय होता. सशस्त्र बलों की संरचना और उन्हें विभिन्न योजनाओं से लैस करना और इसके लिए उन्हें बजटीय सहायता देना तो आवश्यक कदम है ही. अंत में , मानव संसाधन नीति को एक सही समयावधि के लिए एक  सही पुरुष / महिला के चुनाव करने की जरूरत है. 

लेकिन अब जब सरकार ने सैन्य भर्ती के लिए एक नई नीति की घोषणा की है तो इसे लागू करने में शामिल सभी लोगों को मिलकर मसौदे का फाइन प्रिंट तैयार करना चाहिए. और फिर कुछ सिफारिशों पर विचार करना सार्थक होगा. इस बात का एक अच्छा संकेत है कि जो सत्ता में हैं उन्होंने नौजवानों को एकमुश्त आयु छूट दी है जिन्हें महामारी के कारण पिछले दो वर्षों में भर्ती के लिए उपस्थित होने का मौका नहीं मिला है. सुझावों की सूची बहुत विस्तृत नहीं है, फिर भी इसमें नई नीति में कई दुखदायी बिंदुओं को संबोधित करने की कोशिश की गई है. 

सबसे पहले नए रंगरूटों के लिए अनुबंध की अवधि चार साल से अधिक कर देनी चाहिए. ग्रेच्युटी आदि का भुगतान न करने का मुद्दा एक तरह से वैसा ही है जैसे हम किसी व्यक्ति को जीवन या अंग के संभावित नुकसान के लिए प्रतिबद्ध होने को तो कहें लेकिन सेवा करने की उसकी इच्छा के लिए उन्हें पर्याप्त रूप से क्षतिपूर्ति नहीं दें.

दूसरा, संविदा अवधि के अंत में महज 25 प्रतिशत को भर्ती करने पर फिर से विचार करना चाहिए. आदर्श रूप से यह माना जाता है कि लंबी अवधि के पदों के लिए करीबन 50 प्रतिशत से अधिक लोगों को वापस फौज में रिटेन करना चाहिए. लेकिन 25 प्रतिशत से अधिक नौजवानों के पुन: भर्ती को सुनिश्चित करने के और तरीके और साधन हैं. इसके लिए चुनिंदा ट्रेडों या मिशन व्यवसाय की पहचान करनी होगी जिन्हें लंबी सेवा की आवश्यकता होती है. इस नियम को सीधे लागू करने से बचा जाना चाहिए.

तीसरा, अपनी छोटी सेवा के बाद नौकरी छोड़ने वालों के लिए सरकार को चाहिए कि सीएपीएफ (केंद्रीय सशस्त्र अर्धसैनिक बल), राज्यों के पुलिस बलों और अन्य संगठनों से एक बाध्यकारी करार प्राप्त करें कि वे इन प्रशिक्षित सैन्य जनशक्ति को अपने यहां शामिल करने के लिए तैयार हैं.

चौथा, कम संख्या के साथ मौजूदा नियमित नामांकन जारी रखना चाहिए. पांच से दस वर्षों के बाद जब एक बार स्थिर हो जाए तो धीरे-धीरे टूर ऑफ ड्यूटी में स्थानांतरित हो जाएं.

अंत में, अगर हम दूसरे सिफारिशों को स्वीकार करते हैं तो पेंशन भुगतान के बोझ को कम करने के लिए नए रंगरूटों को अंशदायी पेंशन योजना के तहत भी रखा जा सकता है.

एक राष्ट्र को अपने फौज के कर्मियों के साथ कभी समझौता नहीं करना चाहिए. आखिर ये फौजी ही सशस्त्र बलों की रीढ़ होते हैं. इस तरह की धारणा को रोकने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि उन्हें राजकोष पर बोझ के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि कच्चे हीरे के रूप में देखा जाए... उनकी अधिकतम क्षमताओं को तराशा और पॉलिश किया जाए और फिर राष्ट्र की रक्षा में तैनात किया जाए. एक हीरा हमेशा के लिए हीरा ही होता है. वर्दी में हमारे भविष्य के पुरुष और महिलाएं भी राष्ट्र और अपने जीवन की बेहतरी के लिए अपनी अधिकतम सेवा दे सकते हैं. 

(मेजर जनरल बीएस धनोआ 36 साल से अधिक के अनुभव के साथ एक सेवानिवृत्त आर्मर्ड कॉर्प्स अधिकारी हैं. उन्हें युद्ध और युद्ध के संचालन से संबंधित मुद्दों में काफी रूचि रहता है)

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डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.